क्रिसतोफ ज्हेफरलो की पुस्तक इंडियास साईलेंट रेवोलूशन : द राईज ऑफ दि लो कास्ट्स इन नार्थ इंडियन पालिटिक्स, भारत की खामोश क्रांति : उत्तर भारत की राजनीति में नीची जातियों का उदय, परमानेंट ब्लैक, ओरिएंट लोंगमेन, दिल्ली, 2003, पृष्ठ-396-408 से उद्धत।
- बसपा का मुख्य लक्ष्य वही था जो कि डीएस 4 का था। एक ऐसे बहुजन मोर्चे का निर्माण जो सत्ता पर काबिज हो सके। इस विमर्श का प्रतीक बना बालपेन जिसके रूपक का इस्तेमाल कांशीराम ने विभिन्न मंचों से और कैमरों के सामने अगणित बार किया। यहां उच्च जातियां पेन का लिखने वाला हिस्सा हैं जो कि आबादी का 15 प्रतिशत होते हुए भी देश पर शासन कर रही हैं, जबकी पेन का शेष हिस्सा प्रतिनिधि है 85 प्रतिशत लोगों का, जिन्हें उनकी प्रारब्ध और संख्याबल का भान कराया जाना है।
- पिछड़ी जातियों समेत उच्च जातियों के बरक्स उसके सभी हिस्सों के हितों की वकालत कर कांशीराम ने संपूर्ण बहुजन समाज के प्रवक्ता के रूप में उभरने की कोशिश की।
- मंडल विवाद के उदय के भी पहले जब लोकसभा व उसके बाहर मंडल आयोग की रपट पर बहस जोर पकड़ रही थी, कांशीराम ने ओबीसी के हकों पर जोर दिया। यह हरियाणा विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सन 1987 में दिए गए उनके एक भाषण से स्पष्ट है-बहुजन समाज के दूसरे तबके, अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त जिन्हें हम ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग कहते हैं, को भी इस पार्टी, बसपा की सख्त जरूरत है। स्वतंत्रता के उनचालीस साल बाद भी ये लोग न तो संगठित हैं और ना ही कोई अधिकार पा सके हैं। अनूसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की स्थिति में तो कानूनों के जरिए सुधार आया है परंतु इन लोगों के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।
- इस प्रकार उन्होंने स्वीकार किया कि कुछ अर्थों मेें अनुसूचित जातियों की हालत ओबीसी से बेहतर है। वे इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि आरक्षण के कारण नौकरशाही में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व ओबीसी से अधिक है। ओबीसी की संख्या 50 से 52 प्रतिशत है परंतु उनमें से कोई हमें जिला दंडाधिकारी नहीं नजर आता। हमारे लिए जो मुद्दा महत्वपूर्ण है वह यह है कि आरक्षण हमारे लिए रोटी का प्रश्न नहीं है, वह हमारे लिए नौकरी का प्रश्न नहीं है। आरक्षण हमारे लिए सरकार और प्रशासन में भागीदारी का प्रश्न है। इस देश में प्रजातंत्र है, अगर देश के 52 प्रतिशत लोग गणतंत्र का हिस्सा नहीं हैं तो वे किस तंत्र का हिस्सा हैं।
- कांशीराम इस समूह, ओबीसी, जिसे वे सुविधाविहीन मानते थे के लिए आरक्षण के हामी थे। बसपा के नारों में से एक था मंडल आयोग लागू करो, कुर्सी खाली करो, यह बहुजन समाज को एक राजनैतिक शक्ति की शक्ल देने की उनकी रणनीति का भाग था। इसमें कोई संदेह नहीं कि मंडल मुद्दे से बसपा को लाभ मिला और चुनावों में उसने ओबीसी मत कबाडऩे की पूरी कोशिश की।
- ठ्सन् 1999 के लोकसभा चुनावों में कांशीराम ने इस नीति को और विस्तार देते हुए समाज में विभिन्न समुदायों व जातियों के अनुपात के अनुरूप उम्मीदवार नामांकित करने का फैसला किया। उन्होंने जो 85 उम्मीदवार खड़े किए उनमें से 17 मुसलमानों, 20 प्रतिशत 20 अनुसूचित जातियों, 23 प्रतिशत 38 ओबीसी, 45 प्रतिशत व 10 उच्च जातियों, 12 प्रतिशत 5 ब्राह्मण व 5 राजपूत..में से थे।
- बसपा के राज्य-स्तरीय पदाधिकारियों में ओबीसी की हिस्सेदारी, पार्टी के विधायकों में उनकी संख्या से अधिक महत्वपूर्ण है। इनमें से अधिकांश अति पिछड़ी जातियों के हैं न कि उन पिछड़ी जातियों के नहीं, जिनके सदस्य अक्सर दलितों से मजदूरी करवाते हैं और उनका शोषण भी करते हैं। आश्चर्यजनक रूप से दलित पदाधिकारियों की संख्या ओबीसी पदाधिकारियों की आधे से भी कम है। यद्यपि सत्ता एक चमार मायावती के हाथों में है। बसपा की दलित पार्टी होने की छवि यथार्थ से मेल नहीं खाती, क्योंकि उत्तरप्रदेश में अनुसूचित जातियों के सदस्य न तो पदाधिकारियों और ना ही पार्टी के उम्मीदवारों या विधायकों में बहुमत में हैं, तथापि यह उसके चुनावी समर्थकों की सामाजिक संरचना के अनुरूप है।
- जहां तक कांशीराम की रणनीति का प्रश्न है, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में बसपा के हमारे अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि वे दलितों और ओबीसी व कुछ हद तक मुसलमानों और आदिवासियों को पार्टी से जोड़कर उसे बहुजन समाज का मिलनस्थल बनाना चाहते हैं। अलबत्ता पार्टी की दलितों के अलावा अन्य समुदायों में पैठ बनाने के उनके प्रयास अधिक सफल नहीं हो सके हैं और बसपा को ओबीसी मतों का केवल एक छोटा हिस्सा मिलता है।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)
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