(वरिष्ठ दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से इम्तियाज अहमद आजाद की बातचीत)
ओबीसी साहित्य की अवधारणा पर आपकी क्या टिप्पणी है?
इस बारे में मेरा साफ नजरिया है कि साहित्य में पिछड़े वर्ग की अवधारणा का कोई तुक नहीं है। वैसे तो पिछड़े वर्ग के लोग ऊपरी केटेगरी में जाने के लिए लालायित रहते हैं, अब साहित्य में अगर अलग वर्ग की स्थापना करके यदि वे पिछड़ा बने रहना चाहते हैं तो उसके लिए उन्हें अपने को साबित करके दिखाना होगा। इसके लिए उन्हें घर से बाहर निकलना होगा और अपने को नवक्षत्रिय कहने से परहेज करना होगा। लेकिन सवाल यह है कि दलित एवं आदिवासी उनके साथ आते हैं कि नहीं, इसमें संदेह है। यदि दलितों और पिछड़ों को लेकर माया और मुलायम का संगठन तैयार होता है तो दक्षिण वाले तो उनका साथ देने के लिए कब से तैयार बैठे हैं। हमारा एतराज सिर्फ यह है कि वे पहले अपने को अगड़ी जातियों के कर्मकांडों से मुक्त करें और दलितों के साथ सवर्णों जैसा व्यवहार करना छोड़ें। वे एकाधिकार एवं आधिपत्य की बात करते हैं लेकिन अछूत का दर्द तो वही समझ सकता है जिसने उसे झेला है। महात्मा फुले ने तो साफ कहा है कि वेद-पुराण आदि धर्मग्रंथों को घर से बाहर निकालो। इसलिए पिछड़ी जाति के लोग पहले ऐसा कर लें, तब किसी नए अवधारणा की बात करें। मेरी नेक सलाह तो यही है कि जब तक बहुजन साहित्य की परिकल्पना साकार नहीं होती तब तक पिछड़े वर्ग के लोग दलित साहित्य को पढ़ें और उसे समझें।
ज्यादातर साहित्यकारों-आलोचकों का यह आरोप है कि दलित साहित्य से यदि आत्मकथाओं को हटा दें तो बाकी कुछ खास बचा नहीं रह जाएगा?
दरअसल, दलित साहित्य में आत्मकथाओं की चर्चा ज्यादा होती रही है, अत: अन्य विधाएं नाटक, कहानी, कविता आदि बैकग्राउंड में चली गईं। दलित साहित्य की कहानियों के पात्र भी ज्यादातर असली ही हैं, काल्पनिक नहीं। उदाहरण के तौर पर मोहनदास नैमिशराय की कहानियां काफी अच्छी हैं लेकिन उनकी चर्चा नहीं होती, जबकि कहानी संग्रह की तरफ भी आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए। बहुत से दलित साहित्यकारों के कविता संग्रह और नाटक भी प्रकाशित हुए हैं। मेरा भी एक नाटक है–दो चेहरे। अभी हाल ही में जयपुर साहित्य महोत्सव में दलित कविताओं पर एक अच्छा कार्यक्रम हुआ जिसे बहुत पसंद किया गया। उसमें 30 मिनट का समय मुझे भी दिया गया था।
आपकी आत्मकथा जूठन को बहुत प्रसिद्धि मिली। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। आखिर ऐसा क्या है उसमें? उसकी कुछ खास बातें बताएं?
मेरा मानना है कि साहित्य हर अच्छी-बुरी बातों का दस्तावेज है, अर्थात् इसमें अच्छाइयां, बुराइयां तंगदिली, संगदिली सब कुछ है। अपनी आत्मकथा जूठन में मेरी यह कोशिश रही है कि वह समाज के दबे-कुचले, शिक्षा से महरूम लोगों की ज़ुबान बनकर उभरे। रोजाना एक-दो पाठक उससे जुड़ रहे हैं, जो कि मेरे लिए प्रसन्नता की बात है। इससे मेरा उत्साह और बढ़ता है। आपको जानकर ख़ुशी होगी कि जूठन का अनुवाद कश्मीरी और उर्दू को छोड़कर सभी भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेजी, जर्मन और स्वीडिश में भी हुआ है। साम्य प्रकाशन कोलकाता से भी यह छपी और अंग्रेजी में भी खूब बिकी। इसका पहला अनुवाद पंजाबी में हुआ और इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके कई संस्करण आए। इसमें हमने मूक लोगों को ज़ुबान देने की कोशिश की है और उनका दर्द बयान किया है। इसकी सफलता का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं की सवर्ण जाति की एक लड़की अपने प्रोफेसर बाप को जूठन की प्रति देते हुए कहती है कि इतने कमीने थे आपलोग और आपलोगों के पूर्वज, मुझे इस किताब को पढ़कर पता चला। सभी वर्ग के लोगों ने जूठन का स्वागत किया है। बहुत बड़े पैमाने पर स्वीकृति मिलना ही एक बड़ी बात है। यही इसकी सफलता है।
आरक्षण विरोधी लोग आजकल कुछ ज्यादा ही मुखर हो रहे हैं?
देखिए, आरक्षण विरोधियों का यह कहना है कि आरक्षण हटाकर योग्यता के आधार पर संस्थाओं में प्रवेश और नौकरी दी जाए। मैं उनसे सिर्फ यह पूछना चाहता हूं कि जब ये इतने ही योग्य थे तो लगभग 300 वर्षों तक विदेशियों के ग़ुलाम क्यों बने रहे। सही बात यह है कि दूसरों का शोषण करने और उनका हक खाने की इन्हें आदत पड़ गई है। सौ की सीधी एक बात है कि जाति-व्यवस्था खत्म कर दो। हमें आरक्षण नहीं चाहिए। यह सवाल आर्थिक नहीं सामाजिक है। आज यदि आरक्षण नहीं होता तो ओमप्रकाश वाल्मीकि आपको इंटरव्यू नहीं दे रहा होता, बल्कि कहीं नगरपालिका में झाड़ू लगा रहा होता। सवर्णों में इतना तास्सुब है कि ये लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार आदि के नाम के आगे कभी जी नहीं लगाते, क्योंकि ये लोग सवर्ण नहीं हैं, जबकि सवर्ण वर्ग के एक अदना से आदमी के नाम के साथ कभी जी लगाना नहीं भूलते। सुश्री मायावती के लिए तो ये लोग ऐसे अपशब्दों का प्रयोग करते हैं कि बयान नहीं किया जा सकता। आज भी ये लोग दलित या पिछड़े वर्ग के किसी लेखक को उभरने नहीं देते। आपको तो पता ही है कि आलोचना, प्रकाशन, संपादन, मीडिया आदि सब पर इन्हीं का आधिपत्य और एकाधिकार है। जाति-व्यवस्था ने इनको जो ताकत दी है, उसे ये किसी भी हाल में छोडऩा या खोना नहीं चाहते। यही कारण है कि सामाजिक स्तर पर आजतक कोई खास परिवर्तन नहीं हो पाया है। समाज में विघटन पैदा करने में इनसे बड़ा कूटनीतिज्ञ और कारीगर कोई नहीं है।
आपको नहीं लगता कि वर्तमान में मीडिया की ताकत बहुत बड़ी ताकत है, जिसमें दलितों, पिछड़ों की भागीदारी नहीं के बराबर है। अत: उनकी बातें समाज के लोगों तक नहीं पहुंच पातीं या उस तरह नहीं पहुंच पातीं जिस तरह वो चाहते हैं?
जी हां, मुझे मीडिया की ताकत का भी अंदाजा है और उसकी ताकत के दुरुपयोग का भी। खास तौर पर दलितों, पिछड़ों के खिलाफ जब तक हम इनके समानांतर अपना मीडिया संगठन नहीं खड़ा कर लेते तब तक हालात नहीं सुधरने वाले। एक बात तो बिलकुल साफ है कि हजारों वर्षों से जिन लोगों ने आपकी पैरवी नहीं की फिर आप क्यों उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वो आपकी बात करेंगे। मुझे उम्मीद है कि दलित साहित्य की तरह एक दिन उसका मीडिया संगठन भी खड़ा हो जाएगा।
वर्तमान दलित नेतृत्व को आप किस नजरिए से देखते हैं?
दलित नेतृत्व को लेकर मेरा जो अनुभव है उसके आधार पर यह कह सकता हूं कि समीकरण तो बनते हैं लेकिन मुद्दों की बात नहीं होती। आम्बेडकर की विचारधारा व दर्शन को लेकर कोई आगे नहीं बढ़ता। अत: आगे चलकर ऐसे लोग अपना हित साधने में लग जाते हैं। फिर क्या खाक नेतृत्व करेंगे। उत्तर प्रदेश इसका जीता-जागता उदाहरण है। हाल ही में खैरलांजी की जो घटना हुई और उसके बाद का जो आंदोलन हुआ, उसमें किसी भी राजनीतिक व्यक्ति को नहीं आने दिया गया।
अपने जीवन की किसी ऐसी घटना का जिक्र आप करना चाहेंगे, जिसमें आपको जाति के नाम पर प्रताड़ित किया गया हो?
ऐसी कुछ घटनाओं का जिक्र मैं आपसे करना चाहूंगा। पहली यह कि मैं जब तीसरी कक्षा में था तो मेरे कक्षा अध्यापक ने शीशम की टहनियों का झाड़ू पकड़ाकर बोला कि पूरे स्कूल कैम्पस की सफाई करो, जबकि मेरे सभी सहपाठी पढ़ाई कर रहे थे। संयोग से मेरे पिताजी उधर से गुजर रहे थे और उन्होंने मुझे झाड़ू लगाते देख लिया, फिर ग़ुस्से में बोले, कौन है वो द्रोणाचार्य की औलाद जो मेरे बेटे से झाड़ू लगवा रहा है। उस अध्यापक से मेरे पिताजी की ख़ूब बहस हुई और तबसे मुझे उस तरह का कोई काम नहीं सौंपा गया। दूसरी घटना भी स्कूल की ही है। जब मेरे एक टीचर त्यागीजी ने बताया कि द्रोणाचार्य के बेटे अश्वत्थामा को एक बार भोजन के अभाव में आटा घोलकर पिलाया गया था, तो मैंने कहा कि गुरुजी, हमलोग रोज ही चावल का मांड पीते हैं लेकिन हम पर कोई कुछ नहीं लिखता। इतना कहना था कि उस त्यागी ब्राह्मण अध्यापक ने छड़ी उठाकर मेरी पीठ लाल कर दी, जिसके निशान आज भी आप मेरी पीठ पर देख सकते हैं। तीसरी घटना मेरी माताजी से संबंधित है, जिसके कारण मैंने अपनी आत्मकथा का नाम जूठन रखा। मेरी मां किसी सवर्ण के घर में काम करती थी.. जैसे पशुओं की देखभाल कर देना, गोबर उठा देना, वहां साफ-सफाई कर देना, उपले बना देना आदि। एक दिन उनके घर किसी शुभ अवसर पर कुछ मेहमान आए हुए थे, जिनका छोड़ा हुआ खाना जूठन मेरी मां को मालकिन द्वारा दिया गया। उस पर मेरी मां की प्रतिक्रिया थी– इसको ठा के रख लेना, कल तड़के मेहमानों के काम आएगी। इस एक घटना ने मेरी जिंदगी का फलसफा बदल दिया। दरअसल, मुझे अपनी मां का ही तेवर विरासत में मिला है।
फारवर्ड प्रेस पत्रिका और इसके पाठकों के लिए कुछ कहना चाहेंगे?
जी, मैं यही कहना चाहूंगा कि इस तरह के प्रयास सार्थक हैं, क्योंकि यह पत्रिका पिछड़े, दलितों की आवाज को बुलंद कर रही है। वर्तमान में जिसकी बहुत जरूरत है। ऐसा कदम उठाने और ऐसी कोशिश करने से ही सामाजिक परिवर्तन संभव है। पत्रकारिता के क्षेत्र में यह पत्रिका निश्चित रूप से एक दिन मील का पत्थर साबित होगी। मेरी शुभकामनाएं सदैव इस पत्रिका, इसके स्टाफ, लेखकों और इसके पाठकों के साथ रहेंगी।
वाल्मीकिजी से मेरी यह बातचीत पश्चिमी दिल्ली के एक बड़े निजी अस्पताल में हुई, जब वे अपने रूटीन चेकअप के लिए देहरादून से आए हुए थे। उनके चेहरे के हाव-भाव, उनकी मुस्कराहट और बातचीत के अंदाज से आप कतई अनुमान नहीं लगा सकते कि यह बड़ा दलित लेखक किसी लाइलाज बीमारी से पीडि़त है। आइये हम सब लोग मिलकर ईश्वर से प्रार्थना करें कि वे जल्द से जल्द रोगमुक्त हो जाएं और दीर्घायु हों ताकि ज्यादा दिनों तक साहित्य सेवा कर सकें और समाज को उसका लाभ मिल सके।
(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2013 अंक में प्रकाशित )