भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत सारे लेखकों का बचपन बड़ी मुश्किलों में गुजरा है और कइयों को तो कलम घसीटते-घसीटते ही इस दुनिया से कूच कर जाना पड़ा है। मुनाफाखोरी की इस पूंजीवादी व्यवस्था ने कभी भी काम करने वाले दो हाथों की मेहनत के बारे में नहीं सोचा।
मजदूरों का शारीरिक श्रम हो या कलम के सिपाही की मानसिक मेहनत, दोनों को कई स्तरों पर दलाली या फिर यह कहें कि कई को मुनाफाखोरी की चक्कियों में पिसने को मजबूर होना पड़ता है। इस दलाली में मजदूरी के रूप में मानो मजदूरों के हाथ में हाथी के पेट में गए मनों अनाज के बदले लीद जैसी थोड़ी सी मजदूरी ही हाथ लगती रही। कइयों ने व्यवस्था से तात्कालिकता को ध्यान में रखकर उसके इशारे पर कदमताल किया तो उसे बड़ा बताया गया, तथाकथित सम्मान दिए गए और बदले में अपनी ही शान में उससे कसीदे पढ़वाए। जिन लेखकों ने अपने मूल्यों को ताक पर रखकर लिखना मुनासिब नहीं समझा, वे सचमुच में बड़े हुए। इनमें ऐसे भी लेखक हुए जिनका बचपन बड़ी मुश्किलों में गुजरा। उन्होंने ‘दलित’ जैसी मर्मांतक पीड़ाओं से गुजरकर रचने की प्रक्रिया में कलम हाथ में उठाई। आज के दौर में डॉ. तुलसी राम एक ऐसे ही लेखक हैं जिन्होंने ब्राह्यणवादी व्यवस्था से मिले दंश को पूरी तरह अपने भीतर जज्ब कर लिया और अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ लिखते हुए एक बड़े परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखा।
‘मुर्दहिया’ में उनके बचपन के हिस्से को पढ़ते हुए उनकी मासूमियत का अहसास होता है। अक्सर दलित लेखकों की आत्मकथा को पढ़ते हुए उसके भीतर के गुस्से का भी अहसास पाठकों को होता है, लेकिन तुलसीराम की इस किताब को पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं होता है। कभी भी उनकी लेखनी में तल्खी प्रकट नहीं होती है। वे अपने बचपन के बारे में लिखते हुए घटनाओं का ब्योरा पूरे विस्तार के साथ पेश करते हैं। ये ब्योरे ही इसके कथ्य की खूबसूरती हैं और यही ब्योरे आपकी संवेदना को झकझोरते भी हैं। किताब को पढ़ते हुए आपके मन में यह सवाल उठता है कि क्या किसी खास तबके को मरी हुई गाय या भैंस का मांस मिट्टी की कोठली में दबाकर रखना पड़ता है और बुरे वक्त में उसे पकाकर खाने की नौबत भी आ सकती है? क्या बुरे वक्त में खेतों में चूहे के बिलों से अनाज निकालकर पकाने की भी जरूरत आ सकती है? क्या किसी बच्चे को ‘कनवा, कनवा’ कहकर उसके कोमल मन को चोट पहुंचाई जा सकती है? क्या किसी बच्चे को सिर्फ स्कूल इसलिए भेजा जा सकता है ताकि वह दूर-दराज नौकरी-चाकरी करने गए अपने नातेदारों की चिट्ठी अपने पीछे गांव में छोड़ गए परिवार को पढ़कर सुनाएगा? क्या अपनी मेहनत से पढ़कर पास कर गए बच्चों से गुरुजी नजराने (रिश्वत) के बतौर पैसे भी मांगेंगे? ऐसे बहुत सारे सवाल ‘मुर्दहिया’ को पढ़ते हुए मन में उठते हैं। आज बहुत कुछ बदला है। जीवन में सुविधाओं की भी बाढ़-सी आ गई है।
भारत का दूसरा चेहरा यह है कि आज भी बहुत सारे छोटे बच्चे कूड़े में से अपने लिए भोजन निकालकर खाते हुए दिख जाते हैं, फिर सवाल यह उठता है कि किसकी दुनिया में चमत्कार हुआ है? आंकड़े देखेंगे तो पाएंगे तन्हा बचपन की अधिकांश आबादी दलित और वंचित तबके से ही आती है। वे आज भी विकास पुरुष नीतीश कुमार या नरेंद्र मोदी के राज्यों के गांवों में खेतों से चूहा पकड़कर खाती है और अपनी भूख मिटाती है।
लेखक के बचपन को पढ़ते हुए कम-से-कम 80-85 फीसदी हिस्सा मुझे खुद का या फिर बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के ऐसे बच्चों का बचपन लगता है जो 1970-75 के दौर तक पैदा हुए हों। तुलसी राम के बचपन के खेल भी वही सब रहे, जो मेरे रहे थे। यहां तक कि जो रूपक उनके खेलों में गढ़े जाते थे, वही शब्द-दर-शब्द मेरे बचपन के भी खेलों के दौरान गाए जाते रहे। अब सवाल यह उठता है कि दोनों जीवन में फर्क कहां है, हमारे दौर में ये खेल अपनी अंतिम सांसें ले रहा है जबकि तुलसी राम के जीवन में ये खेल अपनी चरम पर थे। आर्थिक परेशानी उनकी दिक्कतों को दोहरा बनाती है सो अलग। बड़ा फर्क यह दिखता है कि तुलसी राम के खेलों में फुटबॉल, क्रिकेट और वॉलीबॉल नहीं रहे। मतलब साफ है कि दलित बचपन आर्थिक दलदल में बुरी तरह धंसा हुआ रहता है।
इस किताब की पहली पंक्ति ही दिमाग को झकझोरती है। तुलसी राम लिखते हैं– ‘मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी।’ इसकी व्याख्या करते हुए वे फिर कहते हैं– ‘मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था।’ लेखक ने लगभग 2300 वर्ष पूर्व यूनान से भारत आए मिनांदर का हवाला देते हुए यह कहा है कि आज भी करोड़ों भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है। अब यहां लेखक से सवाल किया जा सकता है कि क्या मूर्खता का संबंध किताबी या स्कूली ज्ञान से है? कबीर ने कोई पारंपरिक पढ़ाई नहीं की लेकिन उस जैसा ज्ञानी दूसरा कहां? खेतों में हल चलाने का ज्ञान पाठशाला में कहां मिल सकता है? लेकिन सच यह भी है कि स्कूल में मिलने वाली अधकचरी शिक्षा ही सही मनुष्य को सच-झूठ, न्याय-अन्याय, काला-सफेद में अंतर करना तो सिखाती ही है। दरअसल लेखक का यह बयान एक तबके को सैकड़ों वर्षों तक स्कूल से दूर रखने की साजिश के प्रपंचों की वजह से पैदा हुई पीड़ा के फलस्वरूप आया है। सच है कि दलितों और स्त्रियों को बहुत लंबे समय तक स्कूल व किताब की पहुंच से दूर इसलिए रखा गया ताकि वे शासकों (राज्य से घर तक की सत्ता के संदर्भ में) के पेंचों को समझ नहीं पाएं और गुलामी को अपनी किस्मत समझ लें। आज इस तबके का छोटा हिस्सा स्कूल जाने के महत्व को समझने लगा है। वे पढऩे और लडऩे भी लगे हैं। यही वजह है कि सरकार इनकी पहुंच वाले सरकारी स्कूलों को बर्बाद करने में लगी है। व्यवस्था को चलाने के लिए ब्यूरोक्रेट और क्लर्क तो लाखों और हजारों की फीस वाले स्कूल से मिल ही जाएंगे। वह दलितों और वंचितों की लड़ाई को कमजोर करने के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद कर रही है तब ‘मुर्दहिया’ के यथार्थ भोगने वाली आबादी के लिए मुक्ति की लड़ाई को और तेज करने के अलावा और क्या रास्ता बच जाता है? एक लेखक के ‘दलित बचपन’ को मुक्त करने का सपना भी तभी पूरा हो पाएगा जब स्कूल और शिक्षा बचेगी।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)