समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया मुलायम सिंह यादव का दलित विरोधी प्रतिक्रियावादी चेहरा बार-बार प्रकट हो रहा है। उत्तरप्रदेश में मार्च, 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद से मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी एक के बाद एक दलित विरोधी कदम उठाते जा रहे हैं। कुछ महीने पहले दलितों को पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर सपा ने जिस तरह से संसद से सड़क तक हंगामा बरपाया था उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। अब वह ओबीसी की श्रेणी में आने वाली कहार, कुम्हार, मल्लाह, निषाद, केवट, प्रजापति, धीवर आदि 17 जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने जा रही है। उत्तर प्रदेश की सपा सरकार अपने इस कदम से कई निशाना साधना चाहती है, जिसके निहितार्थ को समझना जरूरी है।
इससे पहले मायावती जब उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री थीं तब उन्होंने भी ओबीसी की इन जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालने के लिए केंद्र सरकार के पास प्रस्ताव भेजा था। लेकिन उन्होंने शर्त रखी थी कि अनुसूचित जातियों को वर्तमान में मिलने वाले आरक्षण को 8 प्रतिशत बढा दिया जाए। मायावती का प्रस्ताव समझदारी भरा और तर्कसम्मत था, क्योंकि नई जातियों के अनुसूचित जातियों में शामिल होने से अनुसूचित जातियों की आबादी बढ जाती और बढी हुई आबादी को भी उतने ही आरक्षण से संतोष करना पड़ता। एक और मार्के की बात यह है कि ओबीसी की अधिसूचित जातियों में से 17 जातियों के अनुसूचित जातियों में शामिल हो जाने से उनकी आबादी में तो कमी हो जाती लेकिन उनको मिलने वाले आरक्षण का प्रतिशत पूर्ववत् ही रहता। यानी आबादी कम और प्रतिनिधित्व ज्यादा।
अब मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी ने मायावती के प्रस्ताव को पलट दिया है और बगैर आरक्षण को बढाए हुए ओबीसी की 17 जातियों को अनुसचित जातियों की श्रेणी में डालने के प्रस्ताव को केंद्र को भेजने की तैयारी में जुटी हुई है। समाजवादी पार्टी के ऐसा करने के पीछे मायावती की बढत को रोकने की मंशा है। सपा चाहती है कि मायावती को जिन दो-तीन दलित जातियों के एकमुश्त वोट मिलते हैं, उन्हें मिलने वाली सुविधाओं और अधिकारों को तहस-नहस कर दिया जाए। मायावती को मुख्य रूप से दलितों की बड़ी आबादी वाले चमारों, वाल्मीकियों, पासियों और कुछ हद तक खटीकों के वोट मिलते हैं। यही जातियां राजनीति और सरकारी नौकरियों में आगे हैं, मायावती को बिना शर्त समर्थन देती हैं और उन्हें अपना एकमात्र नेता मानती हैं। समाजवादी पार्टी की सोच है कि सामाजिक संस्तरण (सोशल हायरार्की) में जो जातियां दलितों की इन जातियों से ऊपर के पायदान पर हैं, उनको अनुसूचित जातियों की श्रेणी में यदि डाल दिया जाए तो चमारों, वाल्मीकियों और पासियों को मिलने वाली सुविधाओं और अवसरों में अपने-आप भारी कटौती हो जाएगी। उनमें आपसी टकराव भी बढने लगेगा, जिसका नुकसान मायावती की दलित राजनीति को होगा।
दरअसल, मुलायम सिंह का लक्ष्य 2014 के लोकसभा चुनाव में उन जातियों का वोट प्राप्त करना है, जिन्हें एससी में डालने का प्रस्ताव वे कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव बराबर इस बात को दुहराते रहते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश से उन्हें कम से कम 80 सीटें चाहिए ताकि उनके प्रधानमंत्री बनने की राह आसान हो सके। अभी इन जातियों के वोट बैंक पर कुछ-कुछ मायावती का भी अधिकार है। यहां एक बात गौरतलब है कि जिन जातियों को समाजवादी पार्टी अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालनी चाहती है उनमें से अधिकांश जातियां बिहार में अत्यंत पिछड़ी जातियां (मोस्ट बैकवर्ड क्लासेस) में आती हैं। बिहार में अकेली इस श्रेणी की आबादी 33-36 प्रतिशत के आसपास है। माना जाता है कि इन्हीं जातियों के वोटों के बलबूते नीतीश कुमार ने पिछले लोकसभा चुनाव में 20 सीटें फतह की और दुबारा बिहार के मुख्यमंत्री बने। मुलायम सिंह यादव भी उत्तरप्रदेश में नीतीश कुमार के फार्मूले को अपनाना चाहते हैं और इन जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में डालकर इनकी सहानुभूति प्राप्त करना चाहते हैं।
मुलायम सिंह यादव के दलित विरोधी कदमों को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि जिस ताबड़तोड़ तरीके से वे और उनकी पार्टी दलित हितों को चोट पहुंचाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं उससे बहुजन एकता में दरार पडऩी शुरू हो गई है और इसकी शुरुआत उत्तरप्रदेश से हो रही है। जो मुलायम सिंह यादव हाल के वर्षों तक सामाजिक न्याय के हिरावल दस्ते में शामिल हुआ करते थे और सांप्रदायिकता और ब्राह्मणवाद को कड़ी शिकस्त देने के लिए कांशीराम और मायावती से हाथ मिलाया करते थे, वह दलितों के खलनायक के रूप में सामने आ जाएंगे, सोचकर ही हैरत होती है।
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)