h n

भारतीय सर्वहारा के रूप में बहुजन

साठ आदि दशक आते आते न निर्मल साम्यवादी रहे थे, न मैं। अफ़सोस की बात यह रही कि निर्मल हिंदूवाद के पैरोकार बन गए, और मै उस का कट्टर विरोधी था, और अब तक हूं।

बहुजन साहित्य क्या है? यह सवाल उठाता और उस का जवाब देता है फारवर्ड प्रेस का दूसरा ‘बहुजन साहित्य वार्षिक अंक’ (अप्रैल 2013)। इस विषय पर अनेक दृष्टिकोणों से चर्चा, परिचर्चा और विचार विमर्श करने वाले इस अंक के अठारह लेख अपनी विविधता और पैनी धार के लिए बहुत दिनों तक याद रखे जाएंगे, पत्रिका के संपादकों की मान्यता है कि बहुजन साहित्य के प्रपितामह हैं महात्मा जोतिबा फुले, इस मान्यता के समर्थन में मुख्य संपादक आयवन कोस्का तर्क देते हैं कि ‘यद्यपि बाबासाहब (भीमराव आ बेडकर) दलित लेखकों की कई पीढिय़ों के प्रेरणास्रोत थे, तथापि वे स्वयं लेखक नही थे, जबकि फुले स्वयं साहित्य रचयिता थे।’

प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन अपने संपादकीय लेख ‘बहुजन साहित्य और आलोचना’ में पूछते हैं- ‘हम किसी साहित्य को कैसे देखें, कैसे उसे दूसरों से अलगाएं और उसकी विशेषता, उसके महत्व, उसके उद्देश्य, उसके प्रभाव को कैसे समझें, किस कोण से उसका आस्वाद अधिक से अधिक ग्रहण किया जा सकता है—क्या यह बताना आलोचना का दायित्व नहीं है?’ सचमुच हम पाते हैं कि अरसे से हिंदी आलोचना इस दायित्व को नहीं निभा रही है। जैसा कि प्रमोद रंजन लिखते हैं ‘अपनी द्विज सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण, हिंदी के कुछ नामचीन आलोचकों ने शूद्रों और अतिशूद्रो के साहित्य को अलग से अपने संज्ञान में नहीं लिया’ वे इसके दायरे को विशाल करने के लिए इस के अंतर्गत दलित, शूद्र, आदिवासी तथा स्त्री साहित्य की भी गिनती करते हैं।

इस अंक में सभी लेखों के विषय हैं – बहुजन साहित्य क्या है, इसकी प्रासंगिकता क्या है, है भी या नहीं है. हरिनारायण ठाकुर अपने लंबे लेख दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना में इसके मूल उद्भव और विकास में राजा राम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार और आंबेडकर को गिनते कहते हैं कि ‘इस महामंडल के दो अन्य सदस्य फुले और गांधी ही ऐसे हैं जिनके आगे महात्मा शब्द लगा है’ इस प्रकार, इस साहित्य का विराट ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य पाठक को मिलता है। इस अंक में इतिहास को और पीछे संत रैदास तक ले जातीं हैं सपना चमडिय़ा।

एक मुख्य सवाल है मार्क्सवाद का, अंक के एक लेख में हरेराम सिंह कहते हैं- ‘सर्वहारा (प्रोलेतेरिएत) के साथ बहुजन शब्द जोड़ऩा मैं उचित समझता हूं, क्योंकि पूंजी ही समाज में सब कुछ नहीं है’।

यहां मैं अपने निजी अनुभव से कुछ जोडऩा चाहूंगा। पचास आदि दशक में मैं कांग्रेस छोड़ कर कम्यूनिस्ट पार्टी का उत्साही सदस्य बना था। कांग्रेस में हम नौजवान गांधी जी के उद्धार आंदोलन के अंतर्गत ‘हरिजन’ बस्तियों में शिक्षा का प्रसार करने, बच्चों और बुज़ुर्गों को पढ़ाने जाया करते थे, कम्यूनिस्ट पार्टी की करौल बाग़ ब्रांच में मुझे चित्रकार रामकुमार, उनके छोटे भाई चिन्तक व लेखक निर्मल वर्मा और भविष्य के सुप्रसिद्ध चित्रकार स्वामीनाथन से निकट संपर्क का सौभाग्य मिला और मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा भी। जिला स्तर की एक मीटिंग में मैं अपने अज्ञानवश निर्मल से पूछ बैठा- ‘कामरेड, हमारी हरिजन नीति क्या है?’ मुझे एक बिल्कुल अस्वीकार्य समाधान दिया गया, ‘साम्यवाद में पूंजीवादी, सर्वहारा आदि वर्ग होते हैं हरिजन इनमें से कुछ भी नहीं है इसलिए इस संबंध में हमारी कोई अलग नीति हो ही नहीं सकती, मैं उत्तर से संतुष्ट तो नहीं था, पर सोचा कि कोई गंभीर बात है जो बाद में समझ में आएगी। साठ आदि दशक आते आते न निर्मल साम्यवादी रहे थे, न मैं। अफ़सोस की बात यह रही कि निर्मल हिंदूवाद के पैरोकार बन गए, और मै उस का कट्टर विरोधी था, और अब तक हूं।

अत: मैं हरेराम जी और राजेंद्र प्रसाद सिंह के इस कथन से तो सहमत हूं कि ‘सर्वहारा के साथ बहुजन शब्द जोडऩा उचित है’ हालांकि उनकी अन्य कुछ बातों से मेरी असहमति भी है। हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है कि औद्योगिक क्रांति के काल में यूरोपीय सामाजिक और आर्थिक स्थिति में उपजा मार्क्सवाद भारत सहित पूर्व के तथा अफ्रीकी समाजों की समस्याओं का कोई संतोषप्रद समाधान नहीं दे सकता, न दे पाया है, स्वयं चीन में मार्क्स के आदि सैद्धांतिक मंतव्यों को, बाद में माओ के सिद्धांतों को ताक़ पर रख देना पड़ा है।

बहरहाल, फारवर्ड प्रेस की इस साहित्य वार्षिकी ने कई सवाल हमारे सामने रखे हैं, जिनके उत्तर तलाशे जाने चाहिए। उम्मीद है वे इस पत्रिका की अगली वार्षिकी में इन सवालों के उत्तर भी तलाशने की कोशिश होगी।

(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

अरविंद कुमार

माधुरी और रीडर्स के हिंदी संस्करण सर्वोत्तिम के संपादक रहे अरविंद कुमार की गिनती हिंदी के सबसे महत्वपूर्ण भाषाविदों में होती है। अपनी पत्नी कुसुम के साथ उन्होंनें हिंदी के प्रथम थिसारस ‘समांतर कोश’ का निर्माण किया है व कई हिंदी शब्दकोशों का प्रकाशन भी

संबंधित आलेख

नदलेस की परिचर्चा में आंबेडकरवादी गजलों की पहचान
आंबेडकरवादी गजलों की पहचान व उनके मानक तय करने के लिए एक साल तक चलनेवाले नदलेस के इस विशेष आयोजन का आगाज तेजपाल सिंह...
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में मानवीय चेतना के स्वर
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदू संस्कृति के मुखौटों में छिपे हिंसक, अनैतिक और भेदभाव आधारित क्रूर जाति-व्यवस्था को बेनकाब करते हैं। वे उत्पीड़न और वेदना से...
दलित आलोचना की कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य (संदर्भ : डॉ. धर्मवीर, अंतिम भाग)
प्रेमचंद ने जहां एक ओर ‘कफ़न’ कहानी में चमार जाति के घीसू और माधव को कफनखोर के तौर पर पेश किया, वहीं दूसरी ओर...
अली सरदार जाफ़री के ‘कबीर’
अली सरदार जाफरी के कबीर भी कबीर न रहकर हजारी प्रसाद द्विवेदी के कबीर के माफिक ‘अक्खड़-फक्कड़’, सिर से पांव तक मस्तमौला और ‘बन...
बहुजन कवि हीरालाल की ग़ुमनाम मौत पर कुछ सवाल और कुछ जवाब
इलाहाबाद के बहुजन कवि हीरालाल का निधन 22 जनवरी, 2024 को हुआ, लेकिन इसकी सूचना लोगों को सितंबर में मिली और 29 सितंबर को...