बहुजन साहित्य क्या है? यह सवाल उठाता और उस का जवाब देता है फारवर्ड प्रेस का दूसरा ‘बहुजन साहित्य वार्षिक अंक’ (अप्रैल 2013)। इस विषय पर अनेक दृष्टिकोणों से चर्चा, परिचर्चा और विचार विमर्श करने वाले इस अंक के अठारह लेख अपनी विविधता और पैनी धार के लिए बहुत दिनों तक याद रखे जाएंगे, पत्रिका के संपादकों की मान्यता है कि बहुजन साहित्य के प्रपितामह हैं महात्मा जोतिबा फुले, इस मान्यता के समर्थन में मुख्य संपादक आयवन कोस्का तर्क देते हैं कि ‘यद्यपि बाबासाहब (भीमराव आ बेडकर) दलित लेखकों की कई पीढिय़ों के प्रेरणास्रोत थे, तथापि वे स्वयं लेखक नही थे, जबकि फुले स्वयं साहित्य रचयिता थे।’
प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन अपने संपादकीय लेख ‘बहुजन साहित्य और आलोचना’ में पूछते हैं- ‘हम किसी साहित्य को कैसे देखें, कैसे उसे दूसरों से अलगाएं और उसकी विशेषता, उसके महत्व, उसके उद्देश्य, उसके प्रभाव को कैसे समझें, किस कोण से उसका आस्वाद अधिक से अधिक ग्रहण किया जा सकता है—क्या यह बताना आलोचना का दायित्व नहीं है?’ सचमुच हम पाते हैं कि अरसे से हिंदी आलोचना इस दायित्व को नहीं निभा रही है। जैसा कि प्रमोद रंजन लिखते हैं ‘अपनी द्विज सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण, हिंदी के कुछ नामचीन आलोचकों ने शूद्रों और अतिशूद्रो के साहित्य को अलग से अपने संज्ञान में नहीं लिया’ वे इसके दायरे को विशाल करने के लिए इस के अंतर्गत दलित, शूद्र, आदिवासी तथा स्त्री साहित्य की भी गिनती करते हैं।
इस अंक में सभी लेखों के विषय हैं – बहुजन साहित्य क्या है, इसकी प्रासंगिकता क्या है, है भी या नहीं है. हरिनारायण ठाकुर अपने लंबे लेख दलित और बहुजन साहित्य की मुक्ति चेतना में इसके मूल उद्भव और विकास में राजा राम मोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, पेरियार और आंबेडकर को गिनते कहते हैं कि ‘इस महामंडल के दो अन्य सदस्य फुले और गांधी ही ऐसे हैं जिनके आगे महात्मा शब्द लगा है’ इस प्रकार, इस साहित्य का विराट ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य पाठक को मिलता है। इस अंक में इतिहास को और पीछे संत रैदास तक ले जातीं हैं सपना चमडिय़ा।
एक मुख्य सवाल है मार्क्सवाद का, अंक के एक लेख में हरेराम सिंह कहते हैं- ‘सर्वहारा (प्रोलेतेरिएत) के साथ बहुजन शब्द जोड़ऩा मैं उचित समझता हूं, क्योंकि पूंजी ही समाज में सब कुछ नहीं है’।
यहां मैं अपने निजी अनुभव से कुछ जोडऩा चाहूंगा। पचास आदि दशक में मैं कांग्रेस छोड़ कर कम्यूनिस्ट पार्टी का उत्साही सदस्य बना था। कांग्रेस में हम नौजवान गांधी जी के उद्धार आंदोलन के अंतर्गत ‘हरिजन’ बस्तियों में शिक्षा का प्रसार करने, बच्चों और बुज़ुर्गों को पढ़ाने जाया करते थे, कम्यूनिस्ट पार्टी की करौल बाग़ ब्रांच में मुझे चित्रकार रामकुमार, उनके छोटे भाई चिन्तक व लेखक निर्मल वर्मा और भविष्य के सुप्रसिद्ध चित्रकार स्वामीनाथन से निकट संपर्क का सौभाग्य मिला और मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा भी। जिला स्तर की एक मीटिंग में मैं अपने अज्ञानवश निर्मल से पूछ बैठा- ‘कामरेड, हमारी हरिजन नीति क्या है?’ मुझे एक बिल्कुल अस्वीकार्य समाधान दिया गया, ‘साम्यवाद में पूंजीवादी, सर्वहारा आदि वर्ग होते हैं हरिजन इनमें से कुछ भी नहीं है इसलिए इस संबंध में हमारी कोई अलग नीति हो ही नहीं सकती, मैं उत्तर से संतुष्ट तो नहीं था, पर सोचा कि कोई गंभीर बात है जो बाद में समझ में आएगी। साठ आदि दशक आते आते न निर्मल साम्यवादी रहे थे, न मैं। अफ़सोस की बात यह रही कि निर्मल हिंदूवाद के पैरोकार बन गए, और मै उस का कट्टर विरोधी था, और अब तक हूं।
अत: मैं हरेराम जी और राजेंद्र प्रसाद सिंह के इस कथन से तो सहमत हूं कि ‘सर्वहारा के साथ बहुजन शब्द जोडऩा उचित है’ हालांकि उनकी अन्य कुछ बातों से मेरी असहमति भी है। हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है कि औद्योगिक क्रांति के काल में यूरोपीय सामाजिक और आर्थिक स्थिति में उपजा मार्क्सवाद भारत सहित पूर्व के तथा अफ्रीकी समाजों की समस्याओं का कोई संतोषप्रद समाधान नहीं दे सकता, न दे पाया है, स्वयं चीन में मार्क्स के आदि सैद्धांतिक मंतव्यों को, बाद में माओ के सिद्धांतों को ताक़ पर रख देना पड़ा है।
बहरहाल, फारवर्ड प्रेस की इस साहित्य वार्षिकी ने कई सवाल हमारे सामने रखे हैं, जिनके उत्तर तलाशे जाने चाहिए। उम्मीद है वे इस पत्रिका की अगली वार्षिकी में इन सवालों के उत्तर भी तलाशने की कोशिश होगी।
(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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