जब बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की बात आती है तो महात्मा बुद्ध और उनका आंदोलन याद आता है, करो या मरो का नारा कानों में पड़ते ही महात्मा गांधी और उनका आंदोलन याद आता है। शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो, सुनते ही बाबा साहेब आम्बेडकर और उनका आंदोलन याद आता है, ठीक उसी प्रकार सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है, का नारा कानों में पड़ते ही अमर शहीद जगदेव प्रसाद और उनका आंदोलन याद आता है।
जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी, 1922 को बिहार के जहानाबाद जिला अंतर्गत कुर्था प्रखंड के शकुराबाद गांव के कुरहारी टोला में पिछड़े वर्ग के अंतर्गत आने वाले कोयरी (कुशवाहा) किसान परिवार में हुआ था। जगदेव प्रसाद की प्रारंभिक पढाई-लिखाई गांव के स्कूलों में हुई, बाद में उन्होंने पटना कालेज से अपनी एमए की पढाई पूरी की। इस दौरान उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक माहौल का बड़ी ही सूक्ष्मता से अध्ययन किया। चारों ओर उच्चवर्गीय और उच्चवर्णीय वर्चस्व और दबंगई को देखकर वे बेचैन रहने लगे। एक बार तो उनका मन किया कि सरकारी नौकरी करके अपना और परिवार का जुगाड़ कर लें और बाकी लोगों के बारे में सोचऩा बंद कर दें। परंतु अगले ही क्षण उन्हें लगा कि ऐसा करने से लाखों गरीब, असहाय, शोषित, पीडि़तों का हाल और बुरा हो जाएगा। इसलिए उनके लिए उन्हें सार्वजनिक जीवन में, राजनीति में उतरना ही होगा। इस प्रकार वे राजनेता राममनोहर लोहिया के साथ हो लिए।
जगदेव प्रसाद एक कुशल नेता थे। उन्होंने मजबूती से बिहार की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया। परिणाम यह हुआ कि बिहार में उन्हीं के प्रयास से पहली बार तीन दिनों के लिए ही सही, सतीश प्रसाद सिंह के नेतृत्व में पिछड़ों की सरकार बनी। सरकार गिरने पर पुन: पिछड़े वर्ग के ही एक दूसरे नेता बीपी मंडल के नेतृत्व में सरकार बनी। जगदेव प्रसाद सरकार में दूसरे नंबर की हैसियत रखने वाले सिंचाई मंत्री बने। याद रहे ये वही बीपी मंडल हैं जिनके नेतृत्व में मंडल आयोग का गठन किया गया था। बाद में राममनोहर लोहिया के समाजवादी दर्शन के अनुसार सत्ता में पिछड़े वर्ग को भागीदारी नहीं मिलने के कारण जगदेव प्रसाद ने दल से अलग होकर पहले हिन्दुस्तानी सोशलिस्ट पार्टी और बाद में शोषित समाज दल बना लिया। बाद में कुछ लोगों के प्रयास से अर्जक संघ के संस्थापक महामना रामस्वरूप वर्मा के साथ राजनीतिक मामले पर लम्बी बातचीत हुई और अंतत: वर्माजी के समाज दल और जगदेव प्रसाद के शोषित दल का विलय हुआ और इसके साथ ही नए राजनीतिक दल शोषित समाज दल का जन्म हुआ।
आजकल देखा जा रहा है कि जिन दलित-पिछड़े लोगों को शोषित जनता ने विधानसभाओं और संसद में पहुंचाया वे ही अब शोषकों की तरफदारी करने लगे हैं। आजादी के 65 वर्षों तक शोषितों का आरक्षण सही ढंग से पूरा लागू नहीं हुआ, परंतु पिछड़े, झोलाटांग शोषकों के गुलाम नेता विधानसभा और संसद में अगड़ों के आरक्षण देने के लिए गला फाड़कर चिल्ला रहे हैं। जगदेव बाबू कहा करते थे कि जैसे बाघ कभी बकरी की रखवाली नहीं कर सकता, उसी प्रकार शोषक कभी शोषितों के हितों की रक्षा नहीं कर सकता। बाघ और बकरी का एक खूंटे पर रहना सिर्फ फिल्मों और कहानियों में अच्छा लगता है, वास्तविकता में यह संभव नहीं है।
इसे हम जगदेव प्रसाद के आंदोलन की ही देन कह सकते हैं कि आज बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे पिछड़े वर्ग के नेता बारी-बारी से मुख्यमंत्री बन रहे हैं। सवर्णों के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी सपना बनकर रह गई है। इसके अलावा देश के अन्य प्रांतों में भी जगदेव प्रसाद के आंदोलनों का असर पड़ा।
जगदेव बाबू 5 सितंबर, 1974 को अपने दल की सात सूत्री मांगों को लेकर जहानाबाद जिले के कुर्था प्रखंड पर शांतिपूर्वक ढंग से हजारों समर्थकों के साथ प्रदर्शन कर रहे थे। उनकी मुख्य मांगें थीं–आम्बेडकर साहित्य को पुस्तकालयों में रखवाना, पुनपुन सिंचाई परियोजना, भ्रष्टाचार की समाप्ति आदि। इससे जगदेव प्रसाद दलित-शोषित जनता में काफी लोकप्रिय होते जा रहे थे। लेकिन उनकी लोकप्रियता सामंतों और सवर्णों को इस तरह चुभ रही थी कि उसने एक गहरी साजिश के तहत पुलिसिया गोली से जगदेव बाबू की निर्मम हत्या करवा दी गई। मरने के पूर्व घायल अवस्था में होने पर उन्हें प्रखंड परिसर में घसीटा गया। आजाद भारत में किसी राजनेता की ऐसी निर्मम एवं बर्बर हत्या आजतक कभी नहीं हुई। जिन नब्बे फीसदी शोषित-पीडि़त जनता की आवाज उन्होंने बुलंद की, वे प्यार से उन्हें बिहार के लेनिन के नाम से पुकारते थे। जगदेव प्रसाद ने शोषितों-पीडि़तों के हितों की खातिर जिस तरह अपना बलिदान तक दे दिया, उसे देखते हुए महान नायक स्पार्टाकस की याद आती है, जिन्होंने रोमन साम्राज्य के खिलाफ बगावत का परचम लहरा दिया था।
(फारवर्ड प्रेस के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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