उत्तर भारत में मुख्यत: दो प्रकार की परंपराएं या संस्कृतियां प्रचलित हैं। पहली है सुर (देव) /ब्राहम्णवादी/ द्विज/आर्य इत्यादि परंपरा। दूसरी को असुर/अनार्य/ राक्षस/दैत्य इत्यादि परंपराएं कहा जाता है।
वैसे तो उत्तर भारत में कई परंपराएं, रीति-रिवाज और संस्कृतियां प्रचलित हैं परंतु विश्लेषण की सुविधा के लिए इन्हें ऊपर बताए गए दो मुख्य वर्गों में बांटा गया है। हम सुर व असुर या देवासुर शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। सुर और असुर शब्दों का अर्थ समय के साथ बदलता रहा है-वैदिक व परवैदिक काल में व विशेषकर उस काल में जब पुराण लिखे गए। पौराणिक काल के बाद से असुर शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जाने लगा।
दीपावली सुर परंपरा का हिस्सा है और इसे मनाने के कई कारण बताए जाते हैं। पहला-और यह सबसे लोकप्रिय है-यह कि दीपावली, भगवान राम की असुर रावण पर विजय के बाद उनके वनवास से अयोध्या लौटने के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। उनकी घर वापसी पर दीप जलाकर खुशियां मनाई जाती हैं। इस त्योहार का नाम दीपावली इसलिए पड़ा क्योंकि उनके विजयी सम्राट राम के आगमन पर अयोध्यावासियों ने दीपों की अवली (पंक्ति) जलाई थी। दीपावली से संबंधित दूसरे मिथक का वर्णन महाभारत में है। ऐसा कहा जाता है कि वनवास से पांडवों के हस्तिनापुर लौटने पर नगरवासियों ने मिट्टी के दीपक जलाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी। एक तीसरा मिथक यह भी है कि देवासुर संग्राम के दौरान हुए समुद्र-मंथन में देवी लक्ष्मी अवतरित हुईं और भगवान विष्णु ने उसी रात उनसे विवाह कर लिया। प्रसन्नता के इस अवसर को मनाने के लिए दीपों की पंक्तियां प्रज्जवलित की गईं।
असुर परंपरा में दीपावली की शुरुआत को पुराणों में वर्णित एक कथा से जोड़ा जाता है। ऐसी मान्यता है कि राजा बलि या बलिराजा, जोकि एक अत्यंत शक्तिशाली व प्रजापालक असुर सम्राट थे, का संपूर्ण पृथ्वी पर शासन था। सुरासुर संग्राम में बलिराजा ने सुरों को पराजित कर दिया। इसके बाद, सुरों ने भगवान विष्णु से सहायता मांगी। भगवान विष्णु वामन अवतार में बलि राजा के पास पहुंचे और उनसे दान की याचना की। उदार ह्दय बलि राजा ने अपना संपूर्ण राज्य और धन-संपत्ति भगवान विष्णु को दान कर दी और उनकी इस उदारता का उन्हें यह पुरस्कार मिला कि उन्हें पाताललोक में निष्कासित कर दिया गया। ऐसा माना जाता है कि दीपावली, असुर राजा पर सुरों की इस विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है।
एक अन्य कथा कहती है कि असुरों के साथ युद्ध में सुर हार गए। इसके बाद, काली देवी ने दुर्गा देवी के मस्तक से प्रकट होकर, असुरों का संहार किया। इस विजय का उत्सव, कालीपूजा के रूप में मनाया जाता है, जिसका आयोजन दीपावली के आसपास, देश के कई भागों में होता है।
यह महत्वपूर्ण है कि सुर या ब्राह्मणवादी संस्कृति में प्रचलित सभी कथाओं के अनुसार, दीपावली असुरों पर सुरों का विजयोत्सव है। इसलिए असुरों-जो आज के बहुजन हैं-को दीपावली कतई नहीं मनानी चाहिए। विडंबना यह है कि समकालीन भारत में ब्राहमणवादी दीपावली को असुर मूल के लोग तो मना ही रहे हैं, कुछ गैर-हिन्दू भी मना रहे हैं।
सच तो यह है कि असुर परंपरा को ‘वृहद परंपरा’ व सुर परंपरा को ‘लघु परंपरा’ माना जाना चाहिए, हालांकि शिकागो विश्वविद्यालय के मानवशास्त्री मैंकिम मेरियट ने इसके विरुद्ध मत व्यक्त किया है। ब्राहम्णवादी हिन्दू समाज की तथाकथित मुख्यधारा की परंपरा में, असुर परंपरा का नकारात्मक चित्रण किया गया है। अब समय आ गया है कि प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समतावादी भारतीय समाज ब्राहमणवादी दीपावली की परंपरा को सिरे से खारिज करे।
–जैसा कि उन्होंने फारवर्ड प्रेस के लखनऊ संवाददाता अनुराग भास्कर को बताया।
(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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