h n

हरियाणा की जाट राजनीति का डर

जब भगाना के आंदोलनकारियों को धरने पर बैठे चार दिन हो गए और आपने कोई कवरेज नहीं दी तो उन्हें लगा कि शायद निर्भया को न्याय जेएनयू के छात्र-छात्राओं के आंदोलन की वजह से मिला। वे 19 अप्रैल को जेएनयू पहुंचे और वहां के छात्र छात्राओं से इस आंदोलन को अपने हाथ में लेने के लिए गिड़गिड़ाए

जानते हैं पिछले 14 अप्रैल से दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना पर बैठे भगाना के लगभग 100 गरीब दलित परिवारों की महिलाओं, पुरुषों, बच्चों के साथ दिल्ली पहुंचने के पीछे क्या मनोविज्ञान रहा होगा? उन्हें लगता है कि यहां का मीडिया उनका दर्द सुनेगा और उन्हें न्याय दिलवाएगा। उन्होंने निर्भया कांड के बारे में सुन रखा है। उन्हें लगा कि उनकी बच्चियों को भी दिल्ली पहुंचे बिना न्याय नहीं मिलेगा। यही कारण था कि वे अपनी किशोरावस्था को पार कर रही गैंग-रेप पीडि़त चारों लड़कियों को साथ लेकर आए। अन्यथा, चेहरा ढंककर घर से बाहर निकलने वाली इन महिलाओं को अपनी बेटियों की नुमाइश के कारण भारी मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है।

जानता हूं, ऊंची जातियों के परिवारों में पैदा हुए मेरे पत्रकार साथी एक बार फिर कहेंगे कि हमने तो उनकी खबर नहीं रोकी। इस आंदोलन में जितनी भीड़ थी, उसके अनुपात में उन्हें जगह तो दी ही। लेकिन साथी! क्या आपका दायित्व इतना भर ही है? क्या किसी खबर को कितना स्थान मिले, यह सिर्फ भीड़ और बिकने की क्षमता पर निर्भर होना चाहिए? क्या मीडिया का समाज के वंचित तबकों के प्रति कोई अतिरिक्त नैतिक दायित्व नहीं बनता? क्या अपनी छाती पर हाथ रखकर आप बताएंगे कि अन्ना आंदोलन के पहले ही दिन जो विराट देशव्यापी कवरेज आपने उसे दिया था, उस दिन कितने लोग वहां मौजूद थे? क्या निर्भया की याद में कैंडिल जलाने वालों की संख्या कभी भी भगाना के
आंदोलनकारियों से ज्यादा थी? वर्ष 2012 में इसी जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के आंदोलन के बगल में ही भगाना से बहिष्कृत ये दलित-पिछड़े भी सैकड़ों की संख्या में धरना पर बैठे थे। लेकिन मीडिया ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर उस समय इन्हें मीडिया की पर्याप्त तवज्जो? मिली होती तो कम से कम बलात्कार की यह घटना तो नहीं ही होती।

जब भगाना के आंदोलनकारियों को धरने पर बैठे चार दिन हो गए और आपने कोई कवरेज नहीं दी तो उन्हें लगा कि शायद निर्भया को न्याय जेएनयू के छात्र-छात्राओं के आंदोलन की वजह से मिला। वे 19 अप्रैल को जेएनयू पहुंचे और वहां के छात्र छात्राओं से इस आंदोलन को अपने हाथ में लेने के लिए गिड़गिड़ाए। 22 अप्रैल को जेएनयू छात्र संघ (जेएनएसयू) ने अपने पारंपरिक तरीके के साथ जंतर-मंतर और हरियाणा भवन पर जोरदार प्रदर्शन किया। लेकिन क्या हुआ? कहां थे आजतक, एबीपी न्यूज और एनडीटीवी? सबको सूचना दी गई, लेकिन पहुंचे
सिर्फ हरियाणा के स्थानीय चैनल और उन्होंने भी आंदोलन के बहिष्कार की घोषणा कर आंदोलनकारियों के मनोबल को तोड़ा ही। उसी शाम, बहिष्कार करने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों के दफ्तर से आंदोलनकारियों को फोन आया कि वे आंदोलन का बहिष्कार नहीं कर रहे। खबर दिखाएंगे। संभवत: उनका ऐसा फैसला मीडिया संस्थानों में खूब पढे जाने वाले भड़ास फॉर मीडिया व अन्य सोशल साइट्स पर बहिष्कार की खबर प्रसारित होने के कारण हुआ।

साथी, चुनाव का मौसम है। हरियाणा में कांग्रेस की सरकार है। भगाना के चमार और कुम्हार जाति के लोग पिछले दो सालों से जाटों द्वारा किए गए सामाजिक बहिष्कार के कारण अपने गांव से बाहर रहने को मजबूर हैं। धानुक जाति के लोगों ने बहिष्कार के बावजूद गांव नहीं छोड़ा। ये चार बच्चियां, जिनमें दो तो सगी बहनें हैं, इन्हीं धानुक परिवारों की हैं, जिन्हें एक साथ उठा लिया गया तथा दो दिन तक लगभग एक दर्जन लोग इनके साथ गैंग-रेप करते रहे। यह सामाजिक बहिष्कार को नहीं मानने की खौफनाक सजा थी। 23 मार्च को हुए इस गैंग-रेप की एफआईआर, धारा 164 का बयान, मेडिकल रिपोर्ट आदि सब मौजूद है। ऐसे में, क्या यह आपका दायित्व नहीं था कि आप कांग्रेस के बड़े नेताओं से यह पूछते कि आपके राज में दलित-पिछड़ों के साथ यह क्या हो रहा है? किस दम पर आप दलित-पिछड़ों का वोट मांग रहे हैं? आप मोदी के पिछड़ावाद की लहर पर सवार भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की बाइट लेते कि पिछले चार-पांच सालों से हरियाणा से दलित और पिछड़ी लड़कियों के रेप की खबरें लगातार आ रही हैं लेकिन इसके बावजूद आपकी राजनीति सिर्फ जाटों के तुष्टिकरण पर ही क्यों टिकी हुई है? आप अरविंद केजरीवाल से पूछते कि भाई, अब तो बताओ कौन है आपकी नजर में आम आदमी? अरविंद केजरीवाल तो उसी हिसार जिले के हैं, भगाणा और मिर्चपुर गांव हैं। लेकिन क्या आपने कभी आम आदमी पार्टी को हरियाणा के दलितों के लिए आवाज उठाते देखा। जबकि उनके हरियाणा के मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार योगेंद्र यादव यह कहते नहीं थकते कि दिल्ली में उन्हीं सीटों पर उनकी पार्टी को सबसे अधिक वोट मिले जहां गरीबों, दलितों और पिछड़ों की आबादी थी। आप क्यों नहीं उनसे पूछते कि दलित-पिछड़ों के वोटों का क्या यही इनाम आप उन्हें दे रहे हैं? बात-बात पर आंदोलन करने वाला दिल्ली आप का कोई भी विधायक जंतर-मंतर क्यों नहीं जा रहा? क्यों आपके समाजवादी प्रोफेसर आनंद कुमार ने जेएनयू में 19 अप्रैल को इन लड़कियों को न्याय दिलाने के लिए बुलाई गई सभा में शिरकत नहीं की, जबकि उन्हें बुलाया गया था और वे वहीं थे।

साथी, अब भी समय है। भगाना की दलित बच्चियां जंतर-मंतर पर आपकी राह देख रही हैं।

 

(फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्कृति  व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। द मार्जिनालाज्ड प्रकाशन, इग्नू रोड, दिल्ली से संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

संबंधित आलेख

पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी में गिनने से तेलंगाना में छिड़ी सियासी जंग के मायने
अगर केंद्र की भाजपा सरकार किसी भी मुसलमान जाति को ओबीसी में नहीं रखती है तब ऐसा करना पसमांदा मुसलमानों को लेकर भाजपा के...
क्या महाकुंभ न जाकर राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय के प्रति अपनी पक्षधरता दर्शाई है?
गंगा में डुबकी न लगाकार आखिरकार राहुल गांधी ने ज़माने को खुल कर यह बताने की हिम्मत जुटा ही ली कि वे किस पाले...
यूपी : विधानसभा में उठा प्रांतीय विश्वविद्यालयों में दलित-बहुजन शिक्षकों के उत्पीड़न का सवाल
कुलपतियों की नियुक्ति में वर्ग विशेष के दबदबे पर सवाल उठाते हुए डॉ. संग्राम यादव ने कहा कि “विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों में एक ख़ास...
एससी, एसटी और ओबीसी से जुड़े आयोगों को लेकर केंद्र की नीयत में खोट : जी. करुणानिधि
सामान्य नीतिगत मामले हों या ओबीसी वर्ग की समस्याओं से जुडे मामले, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने प्रभावी ढंग से उनका प्रतिनिधित्व नहीं किया...
‘कुंभ खत्म हो गया है तो लग रहा है हमारे दुख कट गए हैं’
डेढ़ महीने तक चला कुंभ बीते 26 फरवरी, 2025 को संपन्न हो गया। इस दौरान असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, जिनमें दिहाड़ी मजदूर से लेकर...