सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में किन्नर समाज को थर्ड जेंडर के तौर पर पहचान दी है। अब महिला व पुरुष के अलावा एक और जेंडर होगा, जिसे तीसरे जेंडर (लिंग) के तौर पर पहचाना जाएगा और जो किन्नर होंगे। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को किन्नरों को भी सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हुए वर्गों को मिलने वाली सारी सुविधाएं मुहैया
कराने की बात कही है। किन्नरों की आबादी 20 लाख के आसपास है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि शैक्षिक संस्थाओं और नौकरियों में उन्हें ओबीसी के तहत आरक्षण का लाभ मुहैया कराया जाए, पर सवाल यह उठता है कि किन्नरों को ओबीसी के तहत ही क्यों आरक्षण दिया जाए? अगर किन्नरों को एक अलग जेंडर (लिंग) का दर्जा दिया जा रहा है तो फि र उनके उत्थान के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्थाएं महिलाओं को दिए जा रहे आरक्षण की तर्ज पर या सामान्य श्रेणी के तहत क्यों नहीं की जानी चाहिए? ओबीसी के तहत आरक्षण का प्रावधान तो अलग-अलग राज्यों में सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ी जातियों के लिए किया गया है। फिर किन्नर तो सभी जातियों में हैं। लेकिन दूसरी ओर, सच यह भी है कि उनकी पूरी आबादी अब तक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सभी स्तरों पर उपेक्षा की शिकार रही है।
ओबीसी के तहत आनेवाली आबादी को यह चिंता सताने लगी है कि नीति-निर्धारण करने वाले सत्ता में बैठे सवर्णजातियों के लोग ओबीसी आरक्षण का औचित्य ही खत्म कर देना चाहते हैं। वे ऐसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि कांग्रेस ने चुनाव के मद्देनजर हाल ही में मुस्लिमों को भी ओबीसी आरक्षण के तहत ही 4.5 फीसदी आरक्षण देने की कवायद शुरू की है। गौरतलब है कि इससे पूर्व जाटों को भी ओबीसी श्रेणी के तहत ही आरक्षण प्रदान किया गया है जबकि जाट आर्थिक-सामाजिक तौर पर बहुत बेहतर स्थिति में हैं।
देश की 54 फीसदी आबादी ओबीसी के अंतर्गत आती है। इसमें 8 फीसदी मुस्लिम आबादी का पिछड़ा वर्ग भी शामिल है। ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इस श्रेणी के तहत आरक्षण का लाभ पाने वालों की संख्या में तो हर रोज इजाफा हो रहा है लेकिन आरक्षण के कोटे में कोई परिवर्तन नहीं किया जा रहा है। ऐसे में नीति-नियंताओं की नीयत के प्रति संदेह पैदा होना बहुत ही स्वाभाविक है।
दो परिवार की रोटी पर पूरे गांव को न्योतना ठीक नहीं : प्रेमकुमार मणि
किन्नरों या मुस्लिमों को आरक्षण दिए जाने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्नर सैकड़ों-हजारों सालों से उपेक्षित रहे हैं इसलिए उन्हें शिक्षा और नौकरी के मौके जरूर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। उन्हें हर वह लाभ मिलना चाहिए जिसके जरिए वे जल्दी से जल्दी समाज के अन्य लोगों के साथ खड़े हो जाएं। फि लहाल, इन्हें ओबीसी के तहत आरक्षण दिए जाने की बात तो कुछ ऐसी प्रतीत होती है जैसे दो परिवारों के लोगों के रसद-पानी में पूरे गांव को न्योत दिया गया हो। किन्नरों के लिए सामान्य आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए और ऐसा ही मुस्लिमों में पिछड़ी या अति-पिछड़ी जातियों के मामले में किया जाना चाहिए।
महाभारत में वर्णित एक मिथक यहां पेश करना चाहूंगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने एक यज्ञ का आयोजन किया। एक नेवला घूमता-घामता वहां
पहुंच गया। उसने भी सामूहिक भोज का आनंद उठाया। खाना खाने के पश्चात् वह बुदबुदाते हुए कहने लगा कि यह यज्ञ बेकार है। युधिष्ठिर ने पूछा-‘ऐसा क्यों कह रहे हो?’ उसने कहा कि मैं एक यज्ञ में गया था जहां भोजन करने के पश्चात् मेरा आधा शरीर सोने-सा हो गया। आपके यज्ञ में कृष्ण भी शामिल हैं लेकिन पेट भरने के अलावा कुछ और कहां हासिल हो सका? युधिष्ठिर की जिज्ञासा बढ़ी और उन्होंने नेवले से उसे यज्ञ की कहानी सुनाने को कहा। नेवले ने बताया कि मैं पिछले दिनों एक गरीब ब्राह्मण के यज्ञ में गया था। उस परिवार को मेहनत-मजदूरी के बाद सत्तू प्राप्त हुआ। पति, पत्नी और बेटा खाने बैठे ही थे कि एक भिखारी वहां पहुंच गया और खाना मांगने लगा। ब्राह्मण ने अपने हिस्से का खाना उसे खिलाया और फि र पूछा-‘और खाएंगे?’ भिखारी ने हामी भरी तो पहले पत्नी और बाद में बेटे के हिस्से का सत्तू उसे खिला दिया गया। खाना खिलाने के पश्चात् ब्राह्मण ने भिखारी से पूछा कि आपने कितने दिनों से खाना नहीं खाया था? जवाब में भिखारी ने बताया कि वे चार दिनों से भूखे थे। भिखारी ने पलटकर पूछा, आप क्या खाएंगे ? ब्राह्मण ने कहा कि मैं तो दो ही दिनों से भूखा हूं। आप मुझसे ज्यादा भूखे थे इसलिए पहले आपका खाना जरूरी था। नेवले ने बताया कि थोड़ा सा सत्तू उसी भोजन में से बच गया था जिसे उसने खाया और उसका आधा शरीर सुनहला हो गया।
इस कहानी का सार यह है कि आरक्षण देने के पहले आपको देखना होगा कि कौन सी जातियां कितने हजारों साल से वंचित हैं, कितनी जिल्लत झेल चुकी हैं, उन्हें आरक्षण देकर गैर-बराबरी वाले समाज के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाना होगा। अब सवाल यह है कि आरक्षण के बंटवारे को लेकर बार-बार ऐसी स्थिति क्यों बनती है? सर्वोच्च न्यायालय, समाजशास्त्रियों और राजनेताओं के बीच आरक्षण की अवधारणा को लेकर एक किस्म का भ्रम है कि इससे पिछड़ों की आर्थिक उन्नति हो सकेगी। पर आर्थिक उन्नति के लिए तो व्यापार भी किया जा सकता है। व्यापार में आर्थिक उन्नति की संभावना नौकरी के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। मेरा मानना है कि आरक्षण समाज में छुआछूत और गैर-बराबरी मिटाने का एक हथियार है। मैं दिल्ली में जाटों को मिले आरक्षण का समर्थन करता हूं क्योंकि आरक्षण के जरिए यह समाज पढ़-लिखकर नौकरी-पेशे में आएगा तो उनके अंदर बहुत गहरे पैठ चुकी जातिगत दुर्भावना व जड़ता टूटने लगेगी। यही वजह है कि मैं जाट, जो आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बेहतर हैं, उन्हें भी आरक्षण दिए जाने की वकालत करता हूं। ओबीसी के कोटे में से ही अगर आरक्षण
देना है तो फि र 27 फीसदी की सीमा का विस्तार भी करना चाहिए।
(जैसा कि उन्होंने स्वतंत्र मिश्र को बताया)
(फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित)
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