महात्मा बुद्ध की ज्ञानस्थली, डॉ. विनियन से लेकर महापंडित राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सहजानंद सरस्वती की कर्मस्थली और विभिन्न नक्सली समूहों की प्रयोगस्थली रही बोधगया में चार दशक पहले एक भूमि संघर्ष के परिणामस्वरूप बोधगया महंत के कब्जे से तकरीबन दस हजार एकड़ भूमि महादलित परिवारों के बीच वितरित की गई थी। इस भूमि संघर्ष का अगुआ थी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गठित छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी।
वाहिनी के इस क्षेत्र में प्रवेश के पहले भाकपा, सोशलिस्ट पार्टी और विभिन्न नक्सली संगठन यहां काम कर चुके थे और इस क्रम में एक भाकपा कार्यकर्ता महंत के गुर्गों से लड़ते हुए अपनी शहादत भी दे चुका था लेकिन महादलित-भूमिहीनों के इस संघर्ष को मुकाम तक पहुंचाया छात्र-युवा संधर्ष वाहिनी और शांतिमय संघर्ष के उनके अनूठे प्रयोग ने ही। वाहिनी ने समस्तीपुर में महंत के गुर्गों के हाथों अपने दो साथियों को खो दिया और इसके प्रत्युत्तर में ‘हमला चाहे जैसा हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा’ की नीति से विचलित होते हुए वाहिनी ने रक्षात्मक कार्रवाई की जिसमें बोधगया महंत का एक गुर्गा खेत रहा। पर लम्बे संघर्ष और शहादत के बाद मिली सफ लता की वर्तमान स्थिति बेहद अफसोसजनक है। नवभूधारी और खासकर भुईयां जाति के लोग जो वाहिनी आंदोलन की रीढ़ थे, आज फि र से भूमिहीन हो गए हैं और सिर्फ वाहिनी के भू-आंदोलन से मिली जमीन ही नहीं भूदान आंदोलन के तहत मिली जमीन भी इनके हाथ से निकल चुकी है। यद्यपि भूदान आंदोलन से मिली जमीन का हस्तांतरण उस गति से नहीं हुआ, पर इसका कारण मात्र इतना है कि ये सारी जमीन बंजर और असिंचित थी, इसमें पटवन की व्यवस्था आजतक नहीं की गई। जबकि वाहिनी के भू-आंदोलन के तहत मिलीजमीन पूरी तरह सिंचित और बहुफसली थी। कुल मिलाकर भूदान और वाहिनी के तहत बंटी जमीन का 80 से 90 फीसदी हिस्सा नवभूधारियों के हाथों से निकल चुका है।
भुईयां-मुसहर जाति मुख्यत: एक मजदूर जाति है। खेती से इनका संबंध तो पुराना है लेकिन हैसियत मजदूर की ही रही है और मजदूर आज में जीता है। भू-वितरण के बाद भुईयां जाति के बीच में रहकर, उससे अपना संबंध बनाए रखकर उसकी जीवनदृष्टि में बदलाव लाने की कोई कोशिश नहीं की गई और ना ही उस अधोसंरचना का विकास किया गया जो किसानी के लिए जरूरी है। यही कारण है कि धीरे-धीरे नवभूधारी जमीन खोते गए। भूहस्तांतरण के कुछ नमूनों को देखने से ही इसकी पुष्टि हो जाएगी। प्रखंड डोभी, ग्राम हबीबपुर में बोघगया महंत की 119 एकड़ जमीन वितरित की गई। इसमें से तकरीबन 55 एकड़ जमीन बेच दी गई है। इसी गांव में 4 एकड़ जमीन सामूहिक खेती के लिए रखी गई थी पर आज भी यह जमीन सामूहिक खेती के प्रयोग की बाट जोह रही है।
ग्राम बिजाए प्रखंड डोभी में 800 एकड़ जमीन वितरित की गई। इसमें से 150 एकड़ जमीन बंधक रख दी गई। इसी गांव में भूदान की 500 एकड़ जमीन वितरित की गई और इसमें से 400 एकड़ जमीन बंधक रख दी गई। ग्राम परवतिया प्रखंड डोभी में बोघगया महंत की 15 एकड़ जमीन वितरित की गई, इसमें से 9 एकड़ जमीन बंघक रखी जा चुकी है। जयप्रकाश नगर प्रखंड डोभी में खुद जयप्रकाश आए थे, भुईयां जाति के साथ घंटों बैठकर भविष्य का खांचा तैयार किया था, विकास के सपने संजोए थे और उन्हीं के नाम पर इसका नामकरण जयप्रकाश नगर किया गया था। यह वही गांव है, जहां पत्रकार मणिमाला ने अपने हाथों से हल चलाकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती पेश की थी और उस प्रचलित धारणा को तार-तार किया था कि हल और फावड़ा पर सिर्फ पुरुषों का अधिकार है। इसी गांव में भूदान की 156 एकड़ जमीन वितरित की गई थी, इसमें से अभी भी 125 एकड़ जमीन परती पड़ी है, मात्र 31 एकड़ में खेती होती है और इसमें से भी 12 एकड़ जमीन बेच दी गई है। इस गांव में भुईयां जाति के पास जीविका का मुख्य साधन पत्थर तोड़ उसे स्थानीय बाजार में बेचना है। सुबह से लेकर शाम तक वृद्ध महिलाओं से लेकर छोटे-छोटे बच्चे तक इसी में लगे रहते हैं।
यह याद रहे कि जमीन का यह हस्तांतरण सवर्ण जातियों की ओर नहीं हुआ बल्कि गांव की ही मघ्यम पिछड़ी और दबंग पिछड़ी जातियों की ओर हुआ है। मध्यम पिछड़ी जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर दलित-महादलित जातियों से बेहतर नहीं है। पेशा आधारित जातियों की स्थिति तो कई जगहों पर महादलितों की तुलना में भी बदतर है। इन मध्यम पिछड़ी जातियों ने स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास की उपेक्षा कर, भोजन में कटौती कर, जमीन के टुकड़े को खरीदा या बंधक रखा है। यद्यपि इस जमीन का हस्तांतरण ही अवैध है पर इन मध्यम जातियों से जमीन का महादलितों की ओर पुन: हस्तांतरण की कोशिश एक त्रासदपूर्ण सामाजिक तनाव पैदा करेगा और साथ ही सामाजिक सद्भाव की प्रक्रिया को बाधित भी।
यदि सम्पूर्णता में देखा जाए तो जमीन प्राप्त करना एक बड़ी लड़ाई का एक बेहद छोटा सा हिस्सा था। इसके बाद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव की लड़ाई लड़ी जानी थी। सामुदायिक विकास के विभिन्न प्रयोग खड़े किए जाने थे पर छात्र पृष्ठभूमि से आए नेतृत्व के लिए यह मात्र भू-मुक्ति का आंदोलन था। सामाजिक-राजनीतिक संरचना में बदलाव का बुनियादी संघर्ष नहीं। एक छात्र के नाते समता-समानता का संघर्ष उन्हें प्रेरित तो करता था पर कुल मिलाकर यह उनके लिए एक पार्टटाइम आंदोलन ही था और तब इस आंदोलन का शंखनाद दूर तक कैसे जाता, अपने मुकाम तक कैसे पहुंचता। इसीलिए तो आज मुसहर भुईयां और भी विकट परिस्थितियों में जीने को विवश है। एक बात नोट करने वाली है कि बोधगया भू-मूक्ति के पूर्व तक अपने तमाम त्रासदपूर्ण जीवन के बावजूद भी मुसहरभु ईयां को कभी किसी ने भीख मांगते नहीं देखा लेकिन आज वे बोधगया के विभिन्न मंदिरों में भिक्षाटन करते देखे जा सकते हैं। लालच और प्रलोभन में उनका बड़ी संया में धर्मांतरण भी करवाया जा रहा है। अब सवाल यह पैदा होता है कि उनकी स्थिति बिगड़ी या सुधरी?
दूसरी तरफ इस धारा से निकला नेतृत्व बड़े-बड़े मंचों और संस्थाओं से जुड़कर किसी न किसी रूप में इस आंदोलन की पैकेजिंग कर रहा है। कुछ ने राजनीति की राह पकड़ अपने जीवन को सुगम बना लिया, तो किसी ने बोधगया मठ के समानांतर मठ-गढ बना अपने को ही
मठाधीश में तब्दील कर लिया। बोधगया भू-आंदोलन के केंद्र में रहे कौशल गणेश आजाद कहते हैं कि अपनी तमाम कमजोरियों और विफ लताओं के बावजूद हमने संघर्ष नहीं छोड़ा, अपने सीमित संसाधनों के बूते ही सही मुसहरों के बीच खड़ा तो हूँ। पर सवाल तो यह है कि संसाधनों की कमी तो तब भी नहीं थी, जब इस इलाके में कथित स्वयंसेवी संस्थाओं का मकडज़ाल नहीं फैला था। फिलहाल तो हमें ग्राम बगुला के एक युवा मुसहर का वह संवाद याद आता है कि, ‘कभी न कभी तो दिन फि रेगा ही, दशरथ मांझी के हम वंशज हैं, तुलसीवीर का लहू हमारी रगों में फि रता-तैरता है, क्रांति तो होगी ही, संपूर्ण क्रांति का सपना बेकार नहीं जाएगा और अब हुमच के होगा।’
(फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)
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