इस देश के मूल निवासियों की परम्परा प्रकृति से घनिष्ठ रूप से जुडी रही है। राजस्थान- गुजरात सीमा पर स्थित मानगढ़ की पहाड़ी और स्थानीय नायक गोविंद गुरू का इतिहास इसकी पुष्टि करता है।
गोविंद गुरु का जन्म 20 दिसंबर 1858 ई. को डूंगरपुर जिले के बेड़सा गांव में एक गैर-आदिवासी बंजारा परिवार में हुआ था। 1903 में उन्होंने ‘संप सभा’ नामक संगठन बनाया। ‘संप’ का अर्थ है मेल-मिलाप और बुराईयों का त्याग करना। गोविंद गुरु के नेतृत्व में ‘मेल-मिलाप’ का यह कार्य आगे बढ़ा और मानगढ़ इसका केन्द्र बन गया। इस केंद्र ने आदिवासियों को अपनी संस्कृति के बारे में जागृत किया था। गोविंद गुरू को मानने वाले लोग मूर्ति पूजा का निषेध करते हैं तथा किसी ईश्वर की पूजा नहीं करते। वे प्रकृति-पूजक हैं।
गोविंद गुरु ने आदिवासियों को संगठित करने का कार्य भी किया। इसका नतीजा यह हुआ की डूंगरपुर का तत्कालीन राजा इतना डर गया कि उसने अंग्रेज सेना से सहायता मांगी। 1913 में अंग्रेज सेना की सहायता से लगभग 1500 निहत्थे आदिवासियों की मानगढ़ की पहाड़ी पर हत्या कर दी गयी और गोविंद गुरु को अंग्रेजों ने बंदी बना लिया। उन्हें 1923 में इस शर्त पर छोड़ा गया कि वे इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे। 30 अक्टूबर 1931 को गोविंद गुरु की मृत्यु हो गई, जहां उनका चबूतरा बना हुआ है।
इन दिनों राजस्थान सरकार, मानगढ के शहीदों की याद में एक स्मृति स्तंभ बनवा रही है।
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)
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