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यह कठपुतली तो बोलने लगी!

जीतन राम मांझी बिहार के तीसरे दलित मुख्यमंत्री हैं। इसके पहले भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास जैसे दलित मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्हें उंची जातियों के लोगों ने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए मुख्यमंत्री बनाया था। दोनों कठपुतली मुख्यमंत्री बने रहे। मांझी को भी नीतीश कुमार ने कठपुतली ही बनाना चाहा। लेकिन यह कठपुतली तो बोलने लगी है

बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी अपने भाषणों को लेकर विवादों में हैं। बिहार के दैनिक अखबार, जिनका सामाजिक चरित्र जगजाहिर है, मुख्यमंत्री का लगातार मजाक उड़ा रहे हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देते हैं। ये लोग न तो मुख्यमंत्री की पृष्ठभूमि से परिचित होना चाहते है और ना ही उन प्रसंगों और परिस्थितियों पर विचार करना चाहते हैं, जिनके बीच ये बातें कही गई हैं। मैं समझता हूं कि लोगों का पारंपरिक सोच पर अड़े रहना और अपवादात्मक परिस्थितियों को खारिज करना, इस विवाद की जड़ में है।

मांझी अपवादात्मक परिस्थितियों में मुख्यमंत्री बने हैं। लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पराजित हुए नीतीश कुमार ने अचानक मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। नीतीश शर्मिंदगी सेे उबरना चाहते थे। नरेंद्र मोदी की असाधारण जीत ने उन्हें विचलित कर दिया था। इस्तीफे के बाद उनकी पार्टी ने उन्हें ही विधायक दल का नया नेता नामित करने का अधिकार दे दिया। लोकसभा चुनावों में सवर्णों ने उन्हें वोट नहीं दिया था। पिछड़े-अति पिछड़े तबकों ने भी निराश किया था। पंद्रह प्रतिशत के लगभग उन्हें जो वोट मिले थे, उनमें संभवत: आधे वोट दलितों के थे। इसलिए नीतीश कुमार ने एक दलित मुसहर परिवार में जन्मे जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री नामित किया। इस निर्णय से लगभग सभी हैरान रह गए। नीतीश कुमार की यह राजनीतिक चतुराई थी। अपनी इस चतुराई पर वे आत्ममुग्ध थे।

मांझी पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं। बारह वर्षोंं तक उन्होंने केंद्रीय सरकार में सेवा भी की है। लंबे समय तक विधायक, मंत्री रहे हैं। कई अन्य दलित नेताओं की तरह, अपनी विपन्नता, बेचारगी और कटु जीवनानुभवों को वे छुपाते नही हैंं। नरेंद्र मोदी और लालू प्रसाद जैसे ताल ठोककर अपने को चाय बेचनेवाले और दही बेचनेवाले का बेटा कहते हैं, उसी तरह मांझी भी बड़े गर्व से खुद को चूहा पकडऩे वाले का बेटा कहते हैं। उनके पिता ‘नटुआ’ थे। नटुआ, साड़ी पहनकर नाचने वाले मर्द होते हैं। इसे मुख्यमंत्री मांझी बतलाने में तनिक भी हिचकते नहीं। वे सभाओं में चूहा खाने से लेकर तरह-तरह से अपमानित होने के प्रसंग बतलाते रहते हैं। निश्चय ही इसमें उन्हें आनंद आता होगा। गरीबों से संवाद बनाने में वे धीरे-धीरे सफल होते दिख रहे हैं। उन्होंने अपनी सभाओं मेें बतलाया कि कैसे उन्होंने भी बिजली विभाग में घूस दी थी। शराब के बारे में यह कहकर कि दवा के रूप में थोड़ा पीने में हर्ज नहीं है, वे सुर्खियों में आए थे।

लेकिन हाल में उनके एक भाषण ने राजनीतिक गलियारों में कुछ ज्यादा ही हलचल मचा दी। दलित-आदिवासियों की एक सभा में उन्होंने कहा कि केवल वे लोग ही भारत के मूलवासी हैं। जो अपने को सवर्ण कहते हैं, वे आर्यों की संतान हैं और विदेश से आए हैं। अगले दिन, जैसे ही यह खबर अखबारों में छपी, बिहार के सवर्ण नेताओं ने उनकी तीखी आलोचना शुरू कर दी। इसमें उनकी पार्टी के विधायक, मंत्री भी शामिल थे। इन सवर्ण नेताओं ने मुख्यमंत्री को मूर्ख, पागल, अनपढ़ आदि-आदि कहा। उनकी पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव ने भी इसके लिए मुख्यमंत्री की आलोचना की। लालू और नीतीश अलबत्ता चुप रहे। अखबारों ने जनता दल ‘यू’ के उस बाहुबली विधायक का बयान भी प्रमुखता से छापा, जिसने अंगूठा छाप होने की वजह से विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करने में लगभग महीने भर की देर की थी। येनकेन नाम लिखना सीखकर शपथ लेने की खानापूर्ति उन्होंने की थी। इस ‘विद्वान’ विधायक का बयान मीडिया ने इस तरह छापा जैसे वह किसी इतिहासकार का बयान हो।

पटना या देश की विद्वतमंडली ऐसे अवसरों पर चुप रहना ही पसंद करती है। मुख्यमंत्री मांझी ने वही कहा है जिसे जवाहरलाल नेहरू, डी.डी. कोशाबी, रामशरण शर्मा, डी.एन.झा व भगवतशरण उपाध्याय जैसे विद्वान इतिहासकारों ने कहा है। लेकिन मांझी यह कैसे कह सकता है? लोग उन्हें उनकी औकात बतलाना चाहते हैं। अगर वे मुख्यमंत्री हैं तो क्या तरस तो मुझे शरद यादव पर आता है, जिन्हें मैं थोड़ा पढ़ा-लिखा समझता था। उन्होंने मुख्यमंत्री मांझी को आगे से ऐसा कुछ न बोलने की चेतावनी दी है। ध्यान दीजिए शब्दों पर – चेतावनी दी है, सलाह नहीं। क्या ऐसी चेतावनी वे नीतीश कुमार को दे सकते थे? तब वे क्या कर रहे थे जब नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग का गठन किया था?

मांझी महादलित हैं। उन्हेें कोई भी, कुछ भी कह सकता है। भोजपुरी में कहावत है ‘अबरा की जोरू सबकी भौजाई’। कमजोर की बीवी से हर कोई दिलग्गी कर लेता है। मुख्यमंत्री मांझी को हर ऐरा-गैरा चेतावनी दिए जा रहा है। लेकिन मांझी बहादुर आदमी हैं। उनका कहना है कि मैं जानता हूं वे लोग ऐसा क्यों कहते हैं। कबीर की तरह वे हंसकर कहना चाहते हैं-‘पांडे, बूझ न मोर गियाना’। सवर्णों! मेरे ज्ञान को तुम नहीं समझ सकते।

जीतन राम मांझी बिहार के तीसरे दलित मुख्यमंत्री हैं। इसके पहले भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास जैसे दलित मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्हें उंची जातियों के लोगों ने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए मुख्यमंत्री बनाया था। दोनों कठपुतली मुख्यमंत्री बने रहे। मांझी को भी नीतीश कुमार ने कठपुतली ही बनाना चाहा। लेकिन यह कठपुतली तो बोलने लगी है और हैरानी की बात तो यह है कि यह अपने आका की भाषा नहीं, अपनी ही बात बोलने लगी है। कोहराम का कुल कारण यही है।

(फारवर्ड प्रेस के  दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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