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आम्बेडकर का बंधनमुक्ति एजेन्डा : सीमाएं और संभावनाएं

एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत, केवल चुनावी प्रजातंत्र में समानता देता है और इस समानता के रहते हुए भी, सामाजिक व आर्थिक असमानता के कारण, समाज के वे वर्ग स्वतंत्र नहीं हो पाएंगे, जिन्हें वे स्वतंत्र होते देखना चाहते हैं।

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर बाबा साहब के जोर और ब्राहम्णवाद व पूंजीवाद को पराजित करने व जाति का उन्मूलन करने के उनके लक्ष्यों के बीच कभी सामंजस्य नहीं बन सका – न तो सिद्धांत में और ना ही व्यवहार में।

वे कहते हैं कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत, केवल चुनावी प्रजातंत्र में समानता देता है और इस समानता के रहते हुए भी, सामाजिक व आर्थिक असमानता के कारण, समाज के वे वर्ग स्वतंत्र नहीं हो पाएंगे, जिन्हें वे स्वतंत्र होते देखना चाहते हैं। उनकी एक और सैद्धांतिक दुविधा यह थी कि जहां न्यायपालिका और राजनीति के क्षेत्रों में और संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में, देश में प्रजातंत्र था, वहीं समाज में वर्गीय, जातिगत और लैंगिक असमानता के कारण प्रजातंत्र का अभाव था। अगर हम यह कहें कि यह प्रजातंत्र असली स्वतंत्रता और मुक्ति हासिल करने का साधन है तब, बाबा साहेब इस प्रजातंत्र को जिस दृष्टि से देखते थे, उसके चलते, हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि यह एक झूठा और बनावटी प्रजातंत्र है।

दलितों से उनकी यह अपील कि वे शासक वर्ग बनें, प्रजातंत्र की मूल आत्मा के खिलाफ है क्योंकि प्रजातंत्र में परिवर्तन चाहने वालों के पक्ष में बहुमत होना चाहिए। दलितों के शासक बनने का एकमात्र तरीका यह होगा कि सभी दमित वर्ग दलितों के नेतृत्व में एक हो जाएं। परंतु आम्बेडकर अपने विमर्श में कहीं यह बात नहीं कहते। उन्होंने बौद्ध धर्म की शरण ली और शायद इसलिए उन्होंने कहा कि जरूरी बहुमत हासिल करने के लिए करूणा, मैत्री और प्रज्ञा की विचारधारा को आवश्यक रूप से अपनाना होगा। इससे यह स्पष्ट है कि अपनी एक पहचान बनाने के लिए जो लोग बहुमत में हैं, उन्हें बौद्ध बनना होगा और अपनी अलग-अलग व विरोधाभासी पहचानों को तिरोहित कर देना होगा।

बौद्ध बनना एक तरह से धार्मिकता के दायरे में आता है। अगर विभिन्न वर्गों, जातियों, लिंगों व समुदायों के लोग बौद्ध बन भी जाएं तब भी इससे उनके बीच के ऊँच-नीच, शोषण व दमन पर आधारित रिश्तों के कारण उत्पन्न विरोधाभास अपने आप समाप्त नहीं हो जाएंगे। इन विरोधाभासों को समाप्त करने के लिए केवल बौद्ध बनना काफी नहीं होगा बल्कि एक ऐसे कार्यक्रम की आवश्यकता होगी जिससे लोगों के बीच के आपसी रिश्ते बदल सकें। और इस कार्यक्रम के आर्थिक, राजनैतिक, विधिक व सांस्कृतिक पहलू होंगे और इसका संबंध उत्पादन से भी होगा।

बाबा साहब आम्बेडकर ने इस समस्या के सुलझाव स्वरूप अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया। लेकिन इससे भी सभी शोषितों की मुक्ति और शोषितों मेें से विशिष्ट दमन या शोषण के शिकार लोगों की मुक्ति के बीच का विरोधाभास समाप्त नहीं हो सका। इससे हमें यह पता लगता है कि हम स्वतंत्रता, मुक्ति और पात्रता को उनके सारे ऐतिहासिक, सामाजिक व प्रणालीगत पहलुओं में कैसे समझें। इससे हमें यह भी पता लगता है कि स्वतंत्रता आदि की अवधारणाएं सर्वकालिक नहीं हैं और ना ही स्थान व काल निरपेक्ष हैं।

बुद्ध के दर्शन ने हमें प्रतीत्यसमुत्पाद की अवधारणा दी जिसका अर्थ है कि यह विश्व सतत परिवर्तनशील है। यह सतत परिवर्तनशील विश्व, जीवन के यथार्थों को भी परिवर्तित करता रहता है और जाहिर है कि इसके कारण मानवीय रिश्तों से संबद्ध विभिन्न अवधारणाएं भी बदलती रहती हैं। दासों की खेतों में गुलामी से मुक्ति और उनका कर्मकार (अर्थात वेतन पर काम करने वाला श्रमिक) बनना बुद्ध के जीवनकाल में एक प्रकार की मुक्ति थी परंतु बुद्ध के लिए स्वतंत्रता केवल किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं थी बल्कि वह उन सभी वर्गों के लिए थी जो दु:ख भोग रहे थे। दु:ख के अस्तित्व का संज्ञान लेना, दु:ख के कारणों का पता लगाना और सब्बमंगलम् तक पहुंचना एक महत्वपूर्ण जरूरत है, परंतु वह भी दुनिया के सतत परिवर्तनशील चरित्र व दु:ख के चरित्र में परिवर्तन पर निर्भर करती है।

अगर निर्वाण को (इसी जीवन में) दु:ख व उसे जन्म देने वाले कारणों से मुक्ति माना जाए, तो छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व का निर्वाण, बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी के निवाज़्ण से भिन्न होगा। उसी तरह, करूणा, मैत्री, प्रज्ञा इत्यादि के अर्थ भी सतत परिवर्तनशील हैं।

यद्यपि दार्शनिक अवधारणाओं की दृष्टि से कई ऐसे विरोधाभास हैं, जिनका कोई समाधान नहीं हो सका है, परंतु बाबा साहेब जाति उन्मूलन के संदर्भ में इन विरोधाभासों से अत्यंत कौशल से निपटे। उनकी ‘स्तरीकृत असमानता’, ‘श्रमिकों का विभाजन’, ‘आधार के पहले अधिरचना को नष्ट करना’ आदि जैसी अवधारणाएं 21वीं सदी के एक अत्यंत उन्नत दर्शन के विकास की ओर यात्रा थी-एक ऐसा दर्शन जो स्वतंत्रता, मुक्ति आदि की सापेक्ष अवधारणाओं नहीं वरन सकारात्मक अवधारणाओं पर आधारित होगा। बाबा साहब ने बुर्जुआ प्रजातंत्र का भी इस तरह का आलोचनात्मक अध्ययन किया है कि हम उसे और बौद्ध धर्म की उनकी समझ के आधार पर मुक्त मानवता की एक नई दार्शनिक अवधारणा का निर्माण कर सकते हैं।

यह लेख seekingbegumpura.wordpress.com पर 1 जनवरी 2014 को पोस्ट किए गए ब्लॉग से उद्धृत है।

(फारवर्ड प्रेस के दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

गेल ऑम्वेट

गेल ऑम्वेट (2 अगस्त, 1941 – 25 अगस्त, 2021) समाजशास्त्री, लेखिका व कार्यकर्ता रहीं। अपने जीवन में इन्होंने बहुजनों के विमर्श को केंद्र में रख विपुल लेखन किया। इनकी प्रकाशित किताबों में शामिल हैं– 'कल्चरल रिवोल्ट इन अ कोलोनियल सोसायटी : दी ननब्राह्मण मूवमेंट इन महाराष्ट्र' (1976), 'वी विल स्मैश दिस प्रिज़न : इंडियन वुमेन इन स्ट्रगल' (1980), 'आंबेडकर : टूवार्ड्स ऐन एनलाटेंड इंडिया' (2005), 'सिकिंग बेगमपुरा : दी सोशल विजन ऑफ एंटीकास्ट इंटलैक्चुअल्स' (2009), 'अंडरस्टैंडिंग कास्ट : फ्रॉम बुद्धा टू आंबेडकर एंड बियांड' (2011) आदि शामिल हैं। ईपीडब्ल्यू के सितंबर, 1971 के अंक में 'जोतीराव फुले एंड दी आइडियोलॉजी ऑफ सोशल रिवॉल्यूशन इन इंडिया' शीर्षक आलेख इनके महत्वपूर्ण आलेखों में एक है।

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