हमारे लोग तो देसी शराब के कारण तबाह हो रहे हैं। हमें इसकी कोई जरूरत नहीं है। अगर इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाए तो हमलोग बहुत आगे जा सकते हैं। यहां जितने भी महुए के पेड़ थे वे खत्म हो गए, फिर भी उसका कारोबार चल रहा है क्योंकि महुआ बाहर से यहां आ रहा है।’ यह कहना है दक्षिणी राजस्थान के बागड़ क्षेत्र के आदिवासी किसान खाटू डामोर का, जो बागीदौरा तहसील के वनेला गांव में रहते हैं। उनके घर पर आज भी बिजली की सुविधा नहीं है। परिवार में एक बच्चा मास्टर है और बाकी भाई के बच्चे स्कूल जाते हैं और आज भी चिमनी में पढ़ाई करते हैं। तकनीक और विज्ञान के युग में इस देश के समाज का क्या हाल है, वह आज भी कहां है, उसको अपने अधिकारों के बारे में कितना पता है, यह इससे समझा जा सकता है। जब मैं उनके घर गया तो उसका कहना था कि ‘यहां के मंत्री मालवीय जी से हमने कहा भी था पर बिजली की कोई व्यवस्था नहीं हुई। ऐसे में इस चुनाव में कौन विजयी होता है इससे हमको कोई लेना-देना नहीं, क्योंकि हमारे जीवन में कोई बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं होने जा रहा।’
दक्षिण राजस्थान का बागड़ क्षेत्र आदिवासी आरक्षित क्षेत्र है। यहां की 16 सीटें विधानसभा के लिए आरक्षित हैं। लेकिन यहां पर भाजपा और कांग्रेस का राज है। पिछली बार ये सीटें कांग्रेस के पास थीं इस बार दो सीट को छोड़कर बाकी सभी सीटें भाजपा के पास चली गईं। इस चुनाव में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बस चेहरे बदल गए। कांग्रेस जिनको दाना डाल रही थी अब उनके लोगों को भाजपा दाना डाल रही है। बागीदौरा से कांग्रेस के पूर्व मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय ने अपनी जीत दर्ज की। वे चुनाव प्रचार में यही कहते रहे कि मैंने जो विकास किया उस पर मुझे वोट कीजिए। उन्होंने मानगढ़ के नाम पर फाउंडेशन भी खोल रखा है। लेकिन उन्होंने वहां क्या किया यह वही बता सकते हैं।
पिछले दिनों खुद राजस्थान की राज्यपाल मारग्रेट अल्वा आई थीं और मानगढ़ के विकास पर अपनी असंतुष्टि जताकर गई थीं। फिर यहां की सड़कों की हालत बहुत ज्यादा खस्ता है। खासकर आनंदपुरी की सड़क सबसे ज्यादा खराब है। जबकि यह क्षेत्र मंत्री जी का है, तो कांग्रेस के विकास को आदिवासी कैसे देखें! वैसे भी असल समस्या यह है कि यहां का जो आदिवासी नेतृत्व है वह यह जानता भी नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा का कोई विकल्प पैदा किया जा सकता है। वह इनकी कृपा पर जीने का आदी हो गया है। आरक्षण होने के बावजूद इस क्षेत्र में ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं दिखाई देता जिसको आदिवासियों की उपलब्धि कहा जाए। न तो यहां आदिवासी राजनीति का कोई प्रादुर्भाव हुआ है और न ही यहां आदिवासी संस्कृति को कोई पहचान मिली है। यहां के आदिवासी वहीं के वहीं हैं और अल्पसंख्यक सवर्ण उन्नति करते जा रहे हैं।
बांसवाड़ा के बसपा प्रभारी रामलाल बौद्ध यहां के विकास की विडंबना पर अपनी राय देते हुए कहते हैं, ‘यहां के आदिवासी न तो अपनी राजनीति को विकसित कर पाए और न ही किसी आदिवासी नेता को आदिवासी और दलित इतिहास का ज्ञान है। ऐसे में वे किस आधार पर अपने लोगों को पहचान दिलाएंगे। वे तो केवल शतरंज के मोहरे हैं। असली खिलाड़ी तो वही लोग हैं जो पांच हजार साल से राज करते आ रहे हैं। यहां के आदिवासी नेता केवल ब्राह्मणवाद के पुल के अभिशप्त पाये हैं। वे पाये हट जाए बस, फिर देखना कैसे वह पुल धराशायी होता है।’
यह अजीब विडंबना है कि आदिवासी आरक्षित होने के बावजूद आदिवासी राजनीति के नाम पर यह क्षेत्र शून्य है। पिछले दिनों बांसवाड़ा में वेद विद्यापीठ खोला गया। यहां के आदिवासी वेद और शास्त्र पढ़ेंगे। जिस धर्म और शास्त्र ने उनको पांच हजार साल तक अंधेरे में रखा उसको फिर से उन पर थोपा जा रहा है। यहां संघ प्रमुख मोहन भागवत आते हैं और आदिवासी समाज को राम और शबरी की कहानी सुनाते हैं और कहते हैं कि आपको वही वादा निभाना है और भाजपा की सरकार बनानी है। क्या इस बात को यहां के आदिवासी राजनेता जानते हैं, जवाब है, नहीं जानते हैं। उनको भाजपा और कांग्रेस में क्या अंतर है यह भी मालूम नहीं है। वे तो उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं जो उनको टिकट देती है। जबकि उनका खुद का टिकट है और उस टिकट को प्राप्त करने के लिए उनको किसी का कृपापात्र बनना पड़ रहा है और बन रहे हैं। गढ़ी का वर्तमान विधायक जीतमल खाट है। जिसने अपनी राजनीति जनता दल से शुरू की लेकिन इस बार उसने भाजपा से टिकट लिया और जीत भी गया। अब वह गोविंद गुरु की परंपरा पर काम करेगा या फिर वह भगवा के पीछे चलेगा। जब कांग्रेस के राज में वेद विद्यापीठ खुल रहे हैं तो बीजेपी के राज में तो संस्कृत की पाठशालाएं खुलेंगी और जोर-शोर से आदिवासी संस्कृत पढ़ेंगे। उनको अपना इतिहास पढऩे की क्या आवश्कता है। और यह कार्य यहां के आदिवासी मंत्री के रहते हुए हुआ। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां पर कौन सी विचारधारा काम कर रही है और चुनाव का पासा किसके पास है।
इस क्षेत्र में एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। यहां पर है तो माही डेम, जो बहुत पुरानी है। उससे इस क्षेत्र को बहुत लाभ मिला। लेकिन अब उसकी नहरों में भी इतने सिपेज हो गए हैं कि किसी को मरम्मत कराने का समय नहीं है। यहां के आदिवासी कृषि करते हैं। इसके अलावा वे चुनाव लड़ते हैं लेकिन वे चुनाव नहीं लड़ते बल्कि उनको मजबूरी में लडऩा पड़ता है। यही कारण है कि उनका केवल इस्तेमाल होता है और इस चुनाव में भी यही हुआ। इस चुनाव के बारे में यह कहना कि बागड़ में सत्ता परिवर्तन हुआ है, बहुत बड़ा झूठ होगा। यहां केवल मोहरे बदले हैं खेलनेवाले तो वही हैं। लेकिन अब जरूरत यह है कि यहां पर वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व की पहल हो, और इसके लिए सबसे पहले आदिवासियों को अपने इतिहास और परंपरा को जानना होगा और यह वेद विद्यापीठ से नहीं बल्कि आदिवासी विद्यापीठ से संभव होगा। यह बंद बस्ती और खुली बस्ती दोनों ही तरह के आदिवासी जीवन के लिए आवश्यक है।
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