प्रिय दादू,
दुनिया में व्याप्त अन्याय से कैसे लड़ें, इस विषय पर आपके पहले पत्र से मैंने जाना कि मुझे इसके लिए एक ऐसे मंच या ‘ब्राह्य स्थिति’ की जरूरत होगी जो (1) मेरी योग्यताओं और क्षमताओं के अनुरूप हो और यथासंभव मेरी कमियों और कमजोरियों की पूर्ति करे, ताकि मैं बेहतर से बेहतर ढंग से काम कर सकूं (2)जो उस स्तर के अनुरूप हो, जिस स्तर के अन्याय से मैं लडऩा चाहती हूं और (3) जो मुझे ऐसे गठजोड़ बनाने में मदद करे, जो अन्याय के विरूद्ध मेरी लड़ाई को मजबूती दें।
आपके दूसरे पत्र से मैंने जाना कि अन्याय से लडऩे के लिए ‘आंतरिक शक्ति’ की भी आवश्यकता होती है। मुझे ईश्वर की दृष्टि में जो सत्य और सही है, उसे समझने और अपनाने का प्रयास करना होगा, मुझे दूसरों के कार्यों और इरादों का मूल्यांकन उदारतापूर्वक और अपने कार्यों और इरादों का कड़ाई से करना होगा, मुझे अपने जीवन के उन पक्षों में बदलाव लाने के लिए, जिनमें सुधार की जरूरत है, ईश्वर से और दूसरों से क्षमायाचना करनी होगी, मुझे उन लोगों से भी प्रेम करना होगा जिन्हें मैं नहीं चाहती या जो मुझसे घृणा करते हैं, अन्याय से लडऩे के लिए जो साधन मैं अपनाऊंगी वे भी शुद्ध और न्यायपूर्ण होने चाहिए, मुझे जो सही है, उसे करने की कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना चाहिए, मुझे उन महान लोगों की जीवनियां पढऩी चाहिए, जिन्होंने अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया, मुझे उन अन्य लोगों से जुडऩा चाहिए, जो न्यायपूर्ण व मानवीय तरीकों से अन्याय के विरूद्ध लडऩे के प्रति प्रतिबद्ध हैं और मुझे संगीत व गीतों का इस्तेमाल स्वयं व अन्यों को प्रेरणा देने के लिए करना चाहिए।
यह सब करना काफी कठिन है और इससे मुझमें बदलाव आना निश्चित है। परंतु अब मैं यह जानने के लिए बेचैन हूं कि दुनिया में अन्याय से लडऩे की सर्वश्रेष्ठ रणनीति क्या है।
सप्रेम,
आकांक्षा
प्रिय आकांक्षा,
शाबाश! मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हें यह लग रहा है कि इन चीजों से तुममें बदलाव आएगा। यह बदलाव, जितना तुम समझ रही हो, उससे कहीं अधिक गहरा होगा। कई बार, हम स्वयं में आ रहे बदलावों को खुद नहीं देख पाते परंतु हमारे मित्र, परिवारजन और यहां तक कि हमारे शत्रु इन्हें बेहतर ढंग से देख पाते हैं। हमें इस बात की कतई फिक्र नहीं करनी चाहिए कि हममें आ रहे बदलाव दुनिया को नजर आ रहे हैं या नहीं। हमें केवल सही काम करने पर अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए-वे काम जिनकी सूची तुमने ऊपर दी है।
तो इस प्रकार, तुम अब इस प्रश्न पर विचार करने के लिए तैयार हो कि दुनिया में अन्याय से लडऩे के लिए कौन सी रणनीति सर्वश्रेष्ठ है।
कई मामलों में अन्याय व्यक्तिगत होता है-जैसे किसी पत्नी का अपने पति या बच्चों से रूखा बर्ताव, बच्चों का अपने माता-पिता के साथ अन्याय, पति द्वारा पत्नी की पिटाई या तुम्हारी जाति, त्वचा के रंग या लिंग के कारण तुम्हारे साथ दुव्र्यहार। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमें इस तरह के व्यक्तिगत अन्यायों के विरूद्ध भी लडऩा चाहिए।
परंतु थोड़ा सोचने पर तुम यह समझ पाओगी कि व्यक्तिगत अन्याय के कई, बल्कि अधिकांश मामले, उन विचारों और विश्वासों से उपजते हैं, जो समाज में व्याप्त होते हैं। कई बार इनकी जड़ें स्कूल, विश्वविद्यालय या जिस कंपनी में तुम काम करती हो, उनकी नीतियों या नियमों में भी होती हैं।
इसके अतिरिक्त, कई ऐसे नियम, ढांचे और विश्वास हैं, जो राष्ट्रव्यापी या कभी-कभी विश्वव्यापी होते हैं। उदाहरणार्थ, हमारे देश में नीची जातियों के साथ भेदभाव करने का एक पारंपरिक तरीका यह था कि उन्हें शहर या गांव के आकर्षक व बेहतर संसाधनों से युक्त हिस्से से खदेड़ दिया जाता था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार के नियम ऐसे हैं, जिनके कारण खाद्यान्न व अन्य मूलभूत सामग्री का उत्पादन करने वालों की कीमत पर, औद्योगिक उत्पाद बनाने वाली बड़ी कंपनियों को लाभ मिलता है।
इसी तरह, वित्त संबंधी लिखित व अनौपचारिक नियम ऐसे हैं, जिनसे जो लोग पहले से ही अमीर हैं, उनकी राह आसान बनती है, वहीं गरीबों के लिए कठिनाईयां बढ़ती हैं।
छोटे स्तर पर शुरूआत
अन्याय के विरूद्ध हर स्तर पर संघर्ष करना आवश्यक है और शुरूआत उस पहले अन्याय से की जा सकती है, जिसे देखकर तुम्हें गुस्सा आता है-क्योंकि संभावना यही है कि उस अन्याय को देखकर उन लोगों को भी गुस्सा आएगा, जिन्हें तुम जानती हो। अनुभव बताता है कि एक व्यक्ति का गुस्सा, एक व्यक्ति की अन्याय के विरूद्ध कार्यवाही, अन्य लोगों को उस अन्याय से लडऩे की ओर उद्यत करती है।
अगर तुम छोटे-छोटे अन्यायों के विरूद्ध ईमानदारी से संघर्ष करोगी तो तुम जल्द ही यह पाओगी कि तुम बड़े अन्यायों के विरूद्ध भी खड़ी हो रही हो। यद्यपि मैं गांधीजी के सभी कार्यों का प्रशंसक नहीं हूं तथापि उनका जीवन इस बात की पुष्टि करता है। 18 वर्ष की आयु में वे पढऩे के लिए इंग्लैंड चले गए और मात्र 23 वर्ष की आयु में वे वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए, जहां उन्होंने नस्लवाद और वहां के भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय और उनके प्रति पूर्वाग्रह के विरूद्ध संघर्ष किया। भारतीयों के नागरिक अधिकारों के लिए उनके संघर्ष ने ही उन्हें हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभालने के लिए तैयार किया। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के पांच वर्ष बाद, जब वे अपनी आयु के चौथे दशक के मध्य में थे, तब वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े।
हम अपने जीवन में जो रास्ता चुनते हैं, उसके अनुरूप ही हमें परिणाम प्राप्त होते हैं। जिस तरह उपलब्ध विकल्पों में से सबसे बेहतर विकल्प चुनकर हम अपने लिए सबसे अच्छी राह बना सकते हैं उसी तरह हमारे अनुभव से हमें यह पता चलता है कि हमारे सच्चे मित्र कौन हैं। कुछ मित्र हमसे दूर चले जाएंगे परंतु दूसरे और उनसे बेहतर मित्र हमारा साथ देंगे।
एक आखिरी बात। अन्याय के विरूद्ध संघर्ष, शब्दों और कार्यों दोनों के जरिए किया जाता है। इस संघर्ष के दौरान हम कई बार व्यक्तियों का दानवीकरण करने लगते हैं। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि हमारी लड़ाई व्यक्तियों (चाहे वे कितने ही बुरे क्यों न प्रतीत होते हों) के विरूद्ध नहीं है, क्योंकि व्यक्ति हमेशा बदल सकते हैं। अंतत: हमारी सबसे बड़ी जीत यही होगी कि हमारे सबसे कटु शत्रुओं को उनकी गलती का एहसास हो और वे सत्य और न्याय की राह पर लौट आएं।
सप्रेम
दादू
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित )
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in