h n

मोदी के हिन्दू आदर्श ग्राम योजना

संघ यह बखूबी जानता है कि अगर उसे गांवों को पूरी तरह से भाजपा के साथ लाना है तो सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली पिछड़ी और दलित राजनीति को समाप्त करना ही होगा। यह तभी संभव है जब विभिन्न जातियों को एक साथ जोड़ा जाए

समाचार वेबसाइट ‘स्क्राल डाट इन’ में उत्तरप्रदेश, जहां से भाजपा के 71 सांसद हैं, में 20 आदर्श ग्रामों के सर्वे में 16 गांव ऐसे पाए गए हैं, जहां एक भी मुसलमान नहीं रहता। यद्यपि 71 में से 20 गांवों के सर्वे से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित होगा तथापि इसे एक प्रवृत्ति बतौर तो देखा ही जा सकता है, खासकर तब, जबकि मोदी द्वारा अपने निर्वाचन क्षेत्र बनारस में जिस जयापुर गांव को गोद लिया गया है, वहां भी एक भी मुसलमान रहवासी नहीं है। जाहिर है कि इस नतीजे पर पहुंचना अनुचित न होगा कि हिन्दू गांवों का चयन योजनाबद्ध है। कैराना, जहां पिछले साल भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, के अभियुक्त और सांसद हुकुम सिंह द्वारा गोद लिए गए गांव सुखेड़ी के प्रधान बलबीर सिंह सैनी इसमें कुछ भी गलत नहीं देखते। ‘सिर्फ हिन्दुओं के गांव के चयन में क्या गलत है?’, वे पूछते हैं। कुछ स्वतंत्र जांच संगठनों के मुताबिक मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के अहम साजिशकर्ता और सांसद संजीव बालियान द्वारा चुने गए गांव ‘रसूलपुर जाटन’ के मुखिया के पति नरेश कुमार अपने गांव के चयन का आधार उसका ‘शुद्ध हिन्दू गांव’ होना मानते ही नहीं, इस पर गर्व भी करते हैं। यानी, एक सुनियोजित रणनीति के तहत सरकारी धन से विकास के लिए ऐसे गांवों को चिन्हित किया जा रहा है, जहां या तो सिर्फ हिन्दू रहते हों या जो हिंदू बहुल हों।

सबको साथ लेकर चलने का दावा करने वाली मोदी सरकार वही कर रही है जो उसे करना है- धर्म के आधार पर भेदभाव। लेकिन सवाल यह है कि इससे भाजपा को क्या लाभ मिलने की उम्मीद है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा का रिमोट कन्ट्रोल माना जाने वाला ‘संघ परिवार’ कोई भी काम बहुत सोच समझ कर और दूरगामी लक्ष्यों को ध्यान में रख करता है।

दरअसल, सांसद आदर्श ग्राम योजना का मकसद दो स्तरों पर भाजपा और संघ को लाभ पहुंचाना है। पहला, गांव आज भी जाति-आधारित ढांचे के मुख्य केन्द्र हैं, जहां सिर्फ जातीय आधार पर भेदभाव ही नहीं होता बल्कि अलग-अलग जातियों की अलग-अलग बस्तियां और टोले भी होते हैं – खासकर, दलितों, पिछड़ों और अति-पिछड़ों के। इसका असर ग्रामीणों के राजनैतिक रुझानों में भी स्पष्ट रूप से झलकता है। मसलन, गांव में अलग-अलग जातियां अलग-अलग पार्टियों को वोट देती हैं। संघ यह बखूबी जानता है कि अगर उसे गांवों को पूरी तरह से भाजपा के साथ लाना है तो सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली पिछड़ी और दलित राजनीति को समाप्त करना ही होगा। यह तभी संभव है जब विभिन्न जातियों को एक साथ जोड़ा जाए।

विभिन्न जातियों के अंतर्विरोधों वाले गांवों में यह आदर्श’ हिन्दुत्ववादी एकता कायम कर पाना मुश्किल है-खासकर तब जब गांव में मुसलमान भी हों। इसलिए इस प्रयोग की शुरूआत के लिए सबसे बेहतर हिन्दू गांव ही होंगे।

सांस्कृतिक तौर पर इससे वर्णवाद भी कायम रहेगा। पिछड़ों और दलितों तक ‘विकास’ जाति उन्मूलन के नारे के उलट, उनकी जातिगत पहचान के आधार पर ही पहुंचेगा। यानी वर्णभेद भी बना रहेगा और पिछड़े और दलित हिन्दुत्व के दायरे में भी आ जाएंगे।

अहमदाबाद स्थित ‘नव सर्जन ट्रस्ट’ और अमरीका के ‘दक्रोक इस्टिट्यूट फॉर इंटरनेशनल पीस स्टडीज्’, ‘नोट्रेडम विश्वविद्यालय’, ‘मिशिगन विश्वविद्यालय’ और ‘राबर्ट एफ कैनेडी सेंटर फॉर सोशल जस्टिस् एण्ड ह्यूमन राइट्स, द्वारा 98 हजार दलितों के साथ साक्षात्कार के आधार पर तैयार रिपोर्ट में बताया गया है कि गुजरात में 98 प्रतिशत दलितों को दुकानदार अलग बर्तनों में चाय पिलाते हैं, जिन्हें वे ‘राम पात्र’ कहते हैं।
यहां गौरतलब है कि गुजरात में दलितों का एक बड़ा हिस्सा हिन्दुत्व के नाम पर भाजपा को वोट देता है। संघ परिवार, सांसद आदर्श ग्राम योजना के नाम पर इस गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करना चाहता है।

इस योजना का दूसरा उद्देश्य शहरों और कस्बों, जो भाजपा का मुख्य आधार हैं, की वैचारिकी को गांवों में पहुँचाना है। यह आसानी से किया जा सकता है क्योंकि अभी भी शहरी मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग का जीवंत संबंध अपने पुश्तैनी गांवों से बना हुआ है। संघ यह जानता है कि इस योजना के तहत वह कस्बों और गांवों को एक वैचारिकी से जोड़ सकता है। इससे दोनों जगहों पर रहने वाले लोग एक ही राजनीति का हिस्सा बन जाएंगे। यह गुजरात से आयातित फार्मूला है। संघ परिवार की कार्यशैली के अध्येता और मशहूर समाजशस्त्री अच्युत याज्ञनिक के मुताबिक, गांवों और शहरों में भिन्न राजनीतिक संस्कृति, जिसके तहत ग्रामीण मतदाता कांग्रेस को और शहरी भाजपा को वोट करता था, को खत्म करने के लिए गांव में संघ परिवार ने मुसलमानों का डर दिखा कर अलग-अलग जातियों के हिन्दुओं को एकजुट किया। इससे गांव और शहर दोनों में भाजपा को वोट देने की राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई। इसे आज भी ऐसे गांवों के बाहर लगे ‘हिंदू ग्राम’ के साइनबोर्ड से समझा जा सकता है। सन 2002 में हुए गुजरात नरसंहार में साम्प्रदायिक हिंसा गांवों तक में फैल गई जो कि उससे पहले तक, अधिकांशत: सिर्फ शहरों तक ही सीमित हुआ करती थी। पिछले दो सालों में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, कोसी कलां (मथुरा), अस्थान गांव (प्रतापगढ़) और मुजफ्फरनगर में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के केंद्र में गांव रहे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि साम्प्रदायिक राजनीति का केंद्र बनते इस राज्य में ‘सांसद आदर्श ग्राम’ योजना के बाद स्थिति कितनी बदतर हो सकती है।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

शाहनवाज आलम

संबंधित आलेख

जंतर-मंतर पर गूंजी अर्जक संघ की आवाज – राष्ट्रपति हो या चपरासी की संतान, सबकी शिक्षा हो एक समान
राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव कुमार भारती ने मांगों पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि इसके पूर्व भी संघ के संस्थापक महामना राम स्वरूप...
दलित विमर्श की सहज कहानियां
इस कहानी संग्रह की कहानियों में जाति के नाम पर कथित उच्‍च जातियों का दंभ है। साथ ही, निम्‍न जातियों पर दबंग जातियों द्वारा...
चौबीस साल का हुआ झारखंड : जश्न के साथ-साथ ज़मीनी सच्चाई की पड़ताल भी ज़रूरी
झारखंड आज एक चौराहे पर खड़ा है। उसे अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने और आधुनिकीकरण व समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए...
घुमंतू लोगों के आंदोलनों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वेब सम्मलेन
एशिया महाद्वीप में बंजारा/घुमंतू समुदायों की खासी विविधता है। एशिया के कई देशों में पशुपालक, खानाबदोश, वन्य एवं समुद्री घुमंतू समुदाय रहते हैं। इसके...
कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान-2023 से नवाजे गए उर्मिलेश ने उठाया मीडिया में दलित-बहुजनाें की भागीदारी नहीं होने का सवाल
उर्मिलेश ने कहा कि देश में पहले दलित राष्ट्रपति जब के.आर. नारायणन थे, उस समय एक दलित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण देश का राष्ट्रपति...