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1857 की बहुजन वीरांगनाए

1857 के सैन्य संघर्षों में बहुजन नायिकाओं का योगदान बहुजन पुरुषों से कहीं अधिक रहा है। इन नायिकाओं में शामिल हैं कोरी झलकारी बाई, पासी उदा देवी, लोधी अवन्ती बाई, भंगी जाति की महावीरी देवी और गुर्जर आशा देवी

बहुजन स्त्रियों का विशिष्ट प्रस्तुतीकरण 1857 के बहुजन इतिहास की एक प्रमुख विशेषता है। बहुजन वीरांगनाओं के मिथकों को अस्मिता निर्माण तथा बहुजनों के राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन को दिशा प्रदान करने के लिए पुन: अविष्कृत किया गया है। भारत में बहुजन वीरांगनाओं की एक लंबी सूची है। 1857 के सैन्य संघर्षों में बहुजन नायिकाओं का योगदान बहुजन पुरुषों से कहीं अधिक रहा है। इन नायिकाओं में शामिल हैं कोरी झलकारी बाई, पासी उदा देवी, लोधी अवन्ती बाई, भंगी जाति की महावीरी देवी और गुर्जर आशा देवी। ये सभी बहुजनों की जन- राजनीतिक स्मृतियों में अपने समुदायों और संपूर्ण बहुजन जाति के लिए बहादुरी की अद्भुत मिसालें बन गई हैं।

उच्च जाति व मध्यम वर्ग की महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े कई अध्ययन भारत में हो चुके हैं, विशेषत: औपनिवेशिक काल के संदर्भ में। हालांकि ये अध्ययन और उनके निष्कर्ष अपने आप में महत्वपूर्ण हैं किंतु इनमें बहुजन स्त्रियों को भी संपूर्ण स्त्री जाति में जोड़ लिया गया है और इसलिए उनके प्रतिनिधित्व पर अलग से कोई अध्ययन करने की जरुरत ही नहीं समझी गई। औपनिवेशिक काल की बहुजन स्त्रियों का स्त्रीवादी दृष्टिकोण से अध्ययन नाममात्र का है और वह भी हाशिए पर हुआ है। 1857 पर रचित बहुजन साहित्य इस कमी को पूरा करने की चेष्टा करता है और बहुजन स्त्रियों के प्रतिनिधित्व के परीक्षण का वैकल्पिक स्रोत मुहैया कराता है। साथ ही यह बहुजन दृष्टिकोण से लैंगिक राजनीति को समझने और शब्दों के विविध अर्थों पर बहस का मंच भी हो सकता है, जहां यह साहित्य बहुजन अस्मिता के प्रतीकात्मक संस्थापन में बहुजन वीरांगनाओं की प्रमुख भूमिका पर प्रकाश डालता है, वहीं 1857 पर उपलब्ध मूलग्रंथों, अकादमिक व ऐतिहासिक विवरणों को चुनौती दे कर इसने मानो दुनिया ही उलट-पलट कर दी है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इन बहुजन नायिकाओं पर रचे गए आख्यानों पर उभरते रहे सवर्ण प्रतिरोध को कुछ बहुजन समूहों द्वारा कैसे संकेतबद्ध कि या और जिया गया। इस साहित्य में ये बहुजन वीरांगनाएं न केवल दृष्टिक्षेत्र में स्पष्ट होती जाती है, बल्कि ठोस छवि का आकार ग्रहण करके नायिकाएं बन जाती हैं-सभी के आदर व सम्मान की हकदार।

यदि झलकारी बाई का उदाहरण लें, तो उस पर न केवल कई लोकप्रिय हिंदी गीत रचे गए हैं, बल्कि अन्य कलारुपों, जैसे चित्रकथा, कविता, नाटक, उपन्यास, जीवनियों व नौटंकी में भी वह मुखर उपस्थिति बनाए हुए है, यहां तक कि उसके नाम से पत्रिकाएं और संस्थाएं भी हैं। विभिन्न बहुजन पत्रिकाओं ने भी उस पर आलेख प्रकाशित किए हैं। इसी प्रकार, उदा देवी की गाथा भी कविताओं, नाटकों, कथाओं और पत्रिकाओं में मौजूद है।

विभिन्न कथाओं का सार इस प्रकार है – कोरी जाति की झलकारी बाई को 1857 की अमर शहीद के रुप में चित्रित किया गया है। झलकारी बाई झांसी की रहने वाली थी। उसका पति पूरन कोरी राजा गंगाधर राव की सेना में एक साधारण सैनिक था। झलकारी बाई को एक आदर्श स्त्री के रुप में दर्शाया गया है जो पति के पारम्परिक व्यवसाय, यानी कपड़ा बुनने में उसकी मदद करती थी व कभी-कभी उसके साथ राजमहल भी चली जाया करती थी। उसे बचपन से ही निडर बताया गया है और पति की सहायता से उसने तीरंदाजी, कुश्ती, घुड़सवारी और निशानेबाजी का भी प्रशिक्षण लिया। उसका चेहरा – मोहरा व कद – काठी लक्ष्मीबाई से काफी मिलती थी। धीरे-धीरे झलकारी बाई व लक्ष्मीबाई में मित्रता हो गई। दुर्गा दल के नाम से जानी जाने वाली महिला सैन्य टुकड़ी की कमान झलकारी बाई के हाथों में सौंपी गई। जब 1857 का विद्रोह हुआ तब शासक मात्र अपना सिंहासन बचाने में लगा रहा। उसके लिए यह युद्ध स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। बहुजनों ने ही उसे स्वतंत्रता की लड़ाई में बदल दिया। जब अंग्रेजों ने झांसी के किले पर आधिपत्य किया तब झलकारी बाई अपनी पूरी शक्ति से लड़ी। उसने रानी लक्ष्मीबाई को महल से भागने की सलाह दी और स्वयं रानी के वेश में दंतिया द्वार व भण्डारी द्वार से उन्नाव द्वार तक लड़ाई का नेतृत्व किया। उसका पति इस संघर्ष में शहीद हो गया और जब झलकारी बाई ने यह सुना तो वह घायल शेरनी की तरह अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी। उसने कई अंग्रेजों को मार गिराया और जब तक उन्हें समझ में आता कि यह रानी नहीं कोई और है, तब तक काफी समय निकल चुका था। कुछ वृतांतो के अनुसार अचानक उस पर गोलियों की बौछार हुई और वह शहीद हो गई। कुछ कथाओं में कहा गया है कि उसे रिहा कर दिया गया, वह 1890 तक जीवित रही और एक जीवित किवदंती बन गई।

आधिकारिक इतिहास में महिला योद्धाओं का विवरण
उदा देवी का जन्मस्थान लखनऊ का एक गांव उजलियां बताया जाता है। उसे जगरानी भी कहा जाता था और उसका विवाह मक्का पासी से हुआ था। वह बेगम हजरत महल की सखी थी और उसने अपने नेतृत्व में एक महिला सेना का गठन किया। उसका पति चिन्हट के युद्ध में शहीद हो गया था। उदा ने बदला लेने का निश्चय किया। जब कोलिन केम्पबेल के नेतृत्व में अंग्रेजों ने लखनऊ के सिकंदर बाग पर हमला किया तो उन्हें बहुजन स्त्रियों की सेना से लोहा लेना पड़ा।

‘कोई उनको हब्शी कहता, कोई कहता नीच अछूत ,
अबला कोई उन्हें बतलाए, कोई कहे उन्हें मजबूत।’

यहां महत्वपूर्ण है कि डब्ल्यू गॉर्डोन एलेक्जेण्डर द्वारा ब्रिटिश सेना के सिकंदरबाग पर हमले के विवरण में भी यह उल्लेख है कि वहां मारे गए लोगों में कुछ अमेजन हब्शी स्त्रियां भी थी, जिन्हें चर्बी वाले कारतूस प्रयोग करने पर कोई एतराज नहीं था चाहे वह सुअर की हो या दूसरे पशुओं की। हालांकि वे प्रकट रुप से मुसलमान थीं और राइफलों से लैस थीं। वहीं हिंदू और मुसलमान बागियों के हाथ में तलवारे थीं। वे जंगली बिल्लियों की तरह लडीं और उनकी मौत के बाद ही यह पता चला कि वे स्त्रियां थीं।

उदा देवी इन्हीं में से एक थी। कहा जाता है कि वह एक पीपल के पेड़ पर चढ़ गई और उसने 32 (कुछ के अनुसार 36) ब्रिटिश सैनिकों को अपनी गोलियों से छलनी कर दिया।

आशा देवी गुर्जरी को युवा लड़कियों व स्त्रियों की एक बड़ी संख्या की नेत्री के रुप में चित्रित किया गया है और कहा जाता है कि उसने 8 मई 1857 को ब्रिटिश सेना पर हमला किया और लड़ते हुए मारी गई।

अवंती बाई से जुड़े आख्यान इतिहास और साहित्य दोनों से लिए गए हैं। वह मध्यप्रदेश के मंडला जिले के लोधी समुदाय की थी और रामगढ़ की रानी थी। 1857 में उसे भी अंग्रेजों का उत्पीडऩ झेलना पड़ा। जवाबी हमले में वह अत्यंत वीरता से लड़ी। जब वह चारों ओर से घेर ली गई तब आत्मसमर्पण करने की बजाय उसने स्वयं को गोली मार लेना उचित समझा। उसकी अंतिम इच्छा यही थी कि अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर अपने देश वापस लौट जाएं।

महाबीरी देवी भंगी जाति से थी और मुजफ्फरनगर जिले के मुंदभर गांव में रहती थी। हालांकि वह अशिक्षित थी, किंतु अत्यंत प्रतिभाशाली थी और बचपन से ही अन्याय के खिलाफ लडऩे का संकल्प ले चुकी थी। महावीरी देवी ने स्त्रियों की एक संस्था का गठन किया, जिसका उद्देश्य स्त्रियों और बच्चों को घृणित कार्य करने से रोकना तथा उन्हें आत्म सम्मान की शिक्षा देना था। 1857 में उसने 22 स्त्रियों की एक टुकड़ी बनाई और अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। बहादुरी से लड़ते हुए उसने कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। अंतत: उन सभी स्त्रियों के साथ ही वह भी शहीद हो गई।

रूढि़बद्ध छवि से मुकाबला
इन सब गाथाओं में कुछ विशेष बिंदु हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। इनमें से कई नजरअंदाज की जाती रहीं बहुजन स्त्रियों पर केंद्रित हैं। ये बहुजन महिलाएं अपने लड़कपन से ही साहसी बताई गई हैं और उन सभी के जीवन में 1857 एक ऐसा मोड़ ले कर आता है, जो अतिविषम परिस्थितियों में महान कार्य करने के लिए उन्हें प्रेरित करता है। किंतु उनकी आवाजें हम तक क्षीण रूप में ही पहुंच पाती हैं क्योंकि उनके बहादुरी के किस्से अप्रमाणिक स्रोतो से निकले हैं, जैसे वाचिक लोक परंपरा, अस्पष्ट आधिकारिक विवरण और बहुजन पुरुष लेखक। ये लेखक कथा को गति देते हैं, उसके रिक्त स्थानों को भरते हैं और उसे नाटकीय सज्जा व विस्तार देने के लिए बहुधा उसे वर्तमान काल में उतार लाते हैं। अतीत और वर्तमान के बीच की सीमा रेखा का धुंधला होना आख्यान को आज के बहुजन उत्पीडऩ से जोड़ देता है और विषमताओं के बीच साहस की ये अनोखी गाथाएं आज के बहुजन समुदाय को ऐसे ही संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती हैं।

ये बहुजन वीरांगनाएं अपने-अपने बहुजन समुदायों के लिए गौरव की प्रतीक बन गई हैं। उदा देवी पासी समुदाय की श्रद्धा का पात्र है और पासी आत्म गौरव, अभिमान, गरिमा और अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक। वहीं झलकारी बाई सभी बहुजन समूहों में स्वीकृत वंदनीय व समाहित हैं। इन समूहों में कई मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद झलकारी बाई उन सभी के लिए बहुजनों की एकता की प्रतीक है।

अधिकांश वीरांगनाओं के नाम के साथ देवी या बाई का संबोधन जुड़ा है। उन्हें अत्यंत नीतिवान और गरिमामय अति साहसी तथा गहन राष्ट्रवादी के रुप में महिमामंडित किया गया है। वे शक्ति की अवतार हैं। उनके शब्द चित्र और मुखपृष्ठ पर अंकित उनकी छवियां अक्सर उन्हें सिर से पैर तक ढंकी मरदानी वेशभूषा में चित्रित करती हैं। उन्हें घुड़सवारी, तैराकी, तीरंदाजी और तलवारबाजी में दक्ष बताया गया है।

इस प्रकार के प्रस्तुतीकरण के माध्यम से बहुजन समुदाय इन वीरांगनाओं और साथ ही अपने लिए सम्मान अर्जित करना चाहते हैं। साथ ही ये बहुजन स्त्री की दैहिक अनैतिकताओं की छवियों को भी छिन्न- भिन्न करते नजर आते हैं। अपनी स्त्री देहयष्टि को छुपा कर रखने वाली ये नायिकाएं बहुजन स्त्रियों को एक ऐसी मंजिल पाने की आशा दिलाती है जहां वे अपनी देह की स्वयं अधिकारिणी हैं तथा लोकमानस में स्वयं के लिए आदर और आत्मसम्मान की मांग कर सकती है।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

चारू गुप्ता

चारु गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर हैं । अंग्रेजी और हिन्दी में इनकी कई किताबें प्रकाशित हैं

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