अधिकांश चुनाव पूर्व व एक्जिट सर्वेक्षणों ने आम आदमी पार्टी की विजय की भविष्यवाणी की थी और कुछ ने यह भी कहा था कि आप एक बड़ी विजय की ओर बढ़ रही है। परंतु किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि आप का दिल्ली विधानसभा पर एकछत्र राज कायम हो जाएगा। पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं और भाजपा को केवल बची हुई तीन (रोहिणी, मुस्तफाबाद व विश्वास नगर) से संतुष्ट होना पड़ा। यह केवल एक पार्टी की जीत नहीं है। यह एक व्यक्ति अरविंद केजरीवाल में जबरदस्त आस्था की प्रतीक है। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप ने संसाधनों और जनसमर्थन दोनों की दृष्टि से आज की सबसे बड़ी पार्टी के विरूद्ध चुनाव लड़ा। आप के नेताओं की संख्या बहुत कम थी और तुलनात्मक रूप से धन भी बहुत अधिक नहीं था। इसके बावजूद आप ने शानदार जीत दर्ज की।
भारतीय राजनीति में किसी एक पार्टी की इतनी बड़ी जीत के बहुत कम उदाहरण हैं। इस सिलसिले में केवल सिक्किम का नाम दिमाग में आता है, जहां सत्ताधारी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) ने दो बार सन् 1989 और 2009 के विधानसभा चुनावों में सभी 32 सीटें जीत लीं थीं। सन् 2004 के चुनाव में भी एसडीएफ को केवल एक सीट पर हार का सामना करना पड़ा था। अलग-अलग राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने भी समय-समय पर बड़ी जीतें दर्ज की हैं, परंतु दिल्ली में आप की जीत के मुकाबले वे कहीं नहीं ठहरतीं। आप ने न सिर्फ तीन को छोड़कर सभी सीटें जीत लीं वरन् उसे 54.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। त्रिकोणीय संघर्ष में किसी एक पार्टी के 50 प्रतिशत से अधिक मत पाने के उदाहरण हमारे देश में बहुत कम ही हैं। देश ने कई चुनावी लहरें देखी हैं। सन् 1977 की जनता लहर, सन् 1984 की राजीव गांधी लहर और सन् 1989 की वी पी सिंह लहर। इस चुनाव ने इस सूची में एक और लहर जोड़ दी है। ‘केजरीवाल लहर’ या फिर आप चाहें तो इसे लहर से कोई बड़ा नाम भी दे सकते हैं।
सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में विजय हासिल करने के बाद से भाजपा, राज्य विधानसभा चुनावों में लगातर जीतती आ रही थी। यहां तक कि कुछ लोगों को लगने लगा था कि भाजपा अपराजेय है। लेकिन भाजपा के विजय रथ को केजरीवाल ने न केवल रोक दिया है वरन् उसे आगे बढऩे लायक भी नहीं छोड़ा है। भाजपा के लिए यह केवल हार नहीं बल्कि शर्मनाक हार है। उसे केवल तीन सीटें और 32.7 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं। किसी के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि जिस पार्टी ने केवल आठ महीने पहले 70 में से 60 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे ज्यादा मत प्राप्त किए थे, उसकी इतनी बुरी गत हुई है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि पिछले आठ महीनों में ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली का चुनावी परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया। एक ऐसी पार्टी, जिसे अपने निकटतम प्रतिद्वंदी दल से 13 प्रतिशत अधिक मत मिले थे, इतनी पीछे कैसे चली गई।
तालिका 1 : दिल्ली में विभिन्न पार्टियों का प्रदर्शन : 2013-15
पार्टी | 2013 | 2014 | 2015 | |||
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सीटें | वोट % | सीटें* | वोट % | सीटें | वोट % | |
आप | 28 | 29.5 | 10 | 32.9 | 67 | 54.3 |
भाजपा+ | 33 | 34.0 | 60 | 46.4 | 3 | 32.7 |
कांग्रेस | 8 | 24.6 | 0 | 15.2 | 0 | 9.7 |
*विधानसभा क्षेत्रवार लीड
आप के लिए सकारात्मक मत, भाजपा के लिए नकारात्मक नहीं
यह साफ है कि दिल्ली के मतदाताओं ने आप के पक्ष में मत दिया है, भाजपा या मोदी के खिलाफ नहीं। अगर यह केवल भाजपा के खिलाफ नकारात्मक मत होता तो आप को इतनी बड़ी विजय हासिल नहीं होती। यद्यपि लगभग सभी पार्टियों ने कम कीमत पर बिजली-पानी उपलब्ध करवाने, महिलाओं को सुरक्षा देने आदि का वायदा किया था, परंतु यह चुनाव आप के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल पर जनमत संग्रह में बदल गया और आप का इससे बहुत लाभ हुआ। केजरीवाल किसी भी अन्य नेता की तुलना में कहीं अधिक लोकप्रिय थे और आप को मिले मतों से यह साफ है कि कई मतदाताओं ने इस पार्टी का वरण सिर्फ इसलिए किया क्योंकि अरविंद केजरीवाल उसके नेता थे। शुरूआत में ऐसा लग रहा था कि मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा अलग-अलग पार्टियों के पक्ष में ध्रुवीकृत है, परंतु आखिरी क्षणों में इनमें से बहुत से मतदाताओं ने पाला बदल लिया और आप के पक्ष में हो गए।
अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने किरण बेदी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया, परंतु यह पांसा उलटा पड़ गया। पार्टी के लिए समर्थन जुटाना तो दूर रहा वे स्वयं भी ‘सुरक्षित’ कृष्णानगर चुनाव क्षेत्र से हार गईं। भाजपा को यह अहसास हो गया था कि किरण बेदी कार्ड काम नहीं करेगा और इसलिए उसने बड़ी संख्या में अपने सांसदों, केबिनेट मंत्रियों और यहां तक कि पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी चुनाव प्रचार में झोंक दिया। जब पार्टी को यह लगा कि इससे भी काम नहीं चलने वाला तो उसने केजरीवाल के विरूद्ध अखबारों में विज्ञापन के जरिए अत्यंत आक्रामक नकारात्मक अभियान चलाया। दिल्ली के मतदाताओं के बड़े तबके को यह पसंद नहीं आया और इससे भाजपा को नुकसान ही हुआ। दूसरी ओर, अपने नेता के खिलाफ चलाए जा रहे नकारात्मक अभियान को नजरअंदाज करते हुए, ‘आप’ अत्यंत सकारात्मक अभियान चलाती रही। उसका फोकस केवल इस पर रहा कि अगर मतदाताओं ने उसे सत्ता सौंपी तो वह दिल्ली के नागरिकों को क्या देगी। यह सुनिश्चित है कि अपने कुछ चुनावी वायदों को पूरा करना आप के लिए बहुत मुश्किल होगा, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों को यह भरोसा था कि आप जनता से किए गए वायदों को पूरा करेगी और इसलिए उसे इतना जनसमर्थन मिला।
दिल्ली की राजनीति का हमेशा से क्षेत्रवार विश्लेषण किया जाता रहा है। ऐसा कहा जाता है कि पुरानी दिल्ली, यमुनापार, दक्षिण दिल्ली और मध्य दिल्ली की सामाजिक संरचना अलग-अलग है और इसलिए इन इलाकों के मतदाताओं का रूझान भी अलग-अलग होता है। परंतु इस जीत ने इन सभी अंतरों को पाट दिया है। आप को सभी क्षेत्रों में जबरदस्त सफलता मिली और पूरी दिल्ली, आप के हरे रंग में रंग गई। इसी तरह, दिल्ली के संदर्भ में जाट या पंजाबी मत, मुस्लिम मत या दलित मत की चर्चा भी की जाती है। परंतु इस चुनाव में ब्राह्मणों, वैश्य-बनिया व जाट समुदायों को छोड़कर, अन्य सभी समुदायों ने एकजुट होकर आप को समर्थन दिया। यहां तक कि पंजाबी खत्री, जो अब तक भाजपा का साथ देते आए थे, ने भी बड़ी संख्या में आप को वोट दिया (देखें तालिका-2)।
तालिका 2 : जाति व समुदायवार मत
जाति/समुदाय | कांग्रेस | भाजपा | आप |
---|---|---|---|
ब्राह्मण | 8 | 49 | 41 |
पंजाबी खत्री | 13 | 33 | 52 |
राजपूत | 9 | 44 | 44 |
वैश्य/जैन | 7 | 60 | 31 |
अन्य उच्च जातियां | 7 | 39 | 48 |
जाट | 5 | 59 | 31 |
गुज्जर/यादव | 7 | 35 | 53 |
अन्य ओबीसी | 9 | 29 | 60 |
दलित | 6 | 20 | 68 |
मुस्लिम | 20 | 2 | 77 |
सिख | 8 | 34 | 57 |
केजरीवाल द्वारा 49 दिन सत्ता में रहने के बाद इस्तीफा दे देने से मध्यम वर्ग काफी नाखुश था। मध्यम वर्ग के मतदाता उन्हें भगोड़ा बताने लगे थे। परंतु परिणामों से जाहिर है कि मध्यम वर्ग के बहुसंख्यक मतदाताओं ने आप को समर्थन दिया। जैसा कि अपेक्षित था, आप को सबसे अधिक समर्थन गरीब मतदाताओं से मिला। इस वर्ग के मतों में उसकी हिस्सेदारी, भाजपा से 40 प्रतिशत अधिक थी। निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग के मतदाताओं ने भी बड़ी संख्या में आप का साथ दिया। केवल उच्च वर्ग के मतदाताओं के मामले में भाजपा, आप को चुनौती दे सकी। इस वर्ग के कुल मतों में आप की हिस्सेदारी, भाजपा से केवल चार प्रतिशत अधिक थी। कांग्रेस, जिसका मत प्रतिशत 10 के भी नीचे (9.7 प्रतिशत) चला गया, की सभी वर्गों के मतदाताओं ने दुर्गति की।
तालिका 3: आर्थिक वर्गवार मत
आर्थिक वर्ग | कांग्रेस | भाजपा+ | आप |
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निर्धन | 9 | 22 | 66 |
निम्न माध्यम | 10 | 29 | 57 |
माध्यम | 13 | 35 | 51 |
उच्च माध्यम/उच्च | 6 | 43 | 47 |
हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से सन 2013 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘चैंजिग इलेक्टोरल पालिटिक्स इन डेल्ही: फ्रॉम कास्ट टू क्लास’ (सेज प्रकाशन) के निष्कर्षों की पुष्टि हुई है। विभिन्न वर्गों के मतदाताओं के सर्वेक्षणों और पिछले चार विधानसभा चुनावों के नतीजों के विश्लेषण से यह साफ़ है कि जातिगत व क्षेत्रीय पहचान को उभारना, चुनाव जीतने के लिए आवश्यक भले ही हो परन्तु पर्याप्त नहीं है।
ध्रुवीकरण से लाभान्वित हुई आप
आप की विजय का एक बड़ा कारण था, अल्पसंख्यकों, मुख्यत: मुसलमानों, जो दिल्ली के मतदाताओं का 11 प्रतिशत हैं, का उसके पक्ष में जबरदस्त ध्रुवीकरण। दिल्ली के लगभग आठ-नौ विधानसभा क्षेत्रों, जहां बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाता हैं, में आप को मिले समर्थन ने उसकी विजय में निर्णायक भूमिका अदा की। सन् 2013 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मत, आप व कांग्रेस के बीच बंट गए थे। परंतु इस बार मुसलमान पूरी तरह आप के समर्थन में आ खड़े हुए और तीन-चौथाई से भी अधिक (77 प्रतिशत) मुसलमानों ने आप को वोट दिया। इससे आप को निर्णायक बढ़त मिली। अगर पिछले चुनावों में ही ऐसा हो गया होता तो इन चुनावों की जरूरत ही नहीं पड़ती। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी मुसलमानों ने आप को अपना पूरा समर्थन दिया था परंतु उस समय अन्य वर्गों, जिनमें पंजाबी खत्री, जाट और ओबीसी शामिल हैं, में भाजपा की अपार लोकप्रियता के चलते, मुसलमानों के समर्थन से आप को कोई खास फायदा नहीं मिल सका था। अन्य कई राज्यों की तरह, कांग्रेस ने दिल्ली में भी अपना मुस्लिम आधार खो दिया है। यद्यपि सिक्ख मतदाताओं के बड़े हिस्से ने आप को मत दिया तथापि भाजपा को मत देने वाले सिक्खों की संख्या भी कम नहीं थी।
जहां तक दलितों का सवाल है, हर दस में से सात (68 प्रतिशत) दलित मतदाताओं ने आप का समर्थन किया। इसी के चलते आप, दलितों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर विजय प्राप्त कर सकी। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में अन्य कई राज्यों की तरह, दलित मतदाता भाजपा के खेमे में चले गये थे। इस बार पंजाबियों ने भी आप का साथ दिया। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी करने की भाजपा को भारी कीमत अदा करनी पड़ी। बाहरी दिल्ली के कई विधानसभा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में जाट और गुज्जर मतदाता हैं, जिनकी उत्तरप्रदेश व हरियाणा में जमीनें हैं। वे भी आप के साथ खड़े दिखे व इस कारण आप को जाट और गुज्जर बहुल विधानसभा क्षेत्रो में भाजपा से ज्यादा जन समर्थन मिला।
आप की जीत में जिस एक अन्य कारक ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की वह था शहर के युवा वर्ग का उसे मिला समर्थन। पार्टी को युवा मतदाताओं (18.22 वर्ष) व 26.35 आयु वर्ग के मतदाताओं से मिला समर्थन, अन्य आयु वर्गों के मतदाताओं के मुकाबले कहीं अधिक था। युवा (18.22 वर्ष) मतदाताओं के मतों में आप की हिस्सेदारी भाजपा से 37 प्रतिशत अधिक थी, जो कि अधिक आयु वर्ग के मतदाताओं के मामले में घटकर दस प्रतिशत रह गई (देखिए तालिका 4)।
तालिका 4 : आयु वर्गवार मत
आयु वर्ग | कांग्रेस | भाजपा | आप |
---|---|---|---|
18-22 वर्ष | 10 | 26 | 63 |
23-25 वर्ष | 11 | 36 | 50 |
26-35 वर्ष | 6 | 31 | 60 |
36- 45 वर्ष | 7 | 34 | 54 |
46- 55 वर्ष | 11 | 34 | 50 |
56 व अधिक | 16 | 36 | 45 |
क्या हम इस चुनाव को भाजपा या नरेंद्र मोदी की व्यतिगत हार के रूप में देख सकते हैं। मैं दिल्ली के चुनाव को मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज पर जनमत संग्रह नहीं मानता क्योंकि जिन मतदाताओं ने आप को वोट दिया, वे भी केंद्र सरकार के ट्रेक रिकार्ड से संतुष्ट थे। दिल्ली के परिणाम न तो केंद्र सरकार और ना ही नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कमी की ओर संकेत करते हैं और ना ही केंद्र सरकार के काम के प्रति जनता के गुस्से की ओर। परंतु चूंकि भाजपा ने इस चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था, प्रधानमंत्री ने चुनाव अभियान में अपना पूरा जोर लगा दिया था और पार्टी के लगभग 200 सांसदों, कई मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों ने दिल्ली में प्रचार किया था, इसलिए भाजपा के लिए यह एक सामान्य हार नहीं है। मतदाताओं ने उस तरह की राजनीति को सिरे से नकार दिया है, जिसे भाजपा पिछले कुछ महीनों से, और विशेषकर चुनाव अभियान के दौरान कर रही थी। वह राजनीति जिसके प्रमुख तत्व थे अहंकार और नकारात्मकता।
देश की राजधानी में भाजपा की हार से निश्चित तौर पर विपक्षी पार्टियों के नेताओं का मनोबल बढ़ा है। तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने कोलकाता की सड़कों पर भाजपा की हार और आप की जीत का जश्न मनाया। परंतु मुझे इसमें संदेह है कि आप की जीत से अगले एक वर्ष में होने वाले अलग-अलग राज्यों के चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियों का जनाधार बढ़ेगा। कोई कारण नहीं कि दिल्ली के चुनाव के कारण बिहार में जेडीयू या आरजेडी या उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी या बसपा को ज्यादा वोट मिलें। इन पार्टियों को अपने राज्यों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीति बनानी चाहिए। अगर वो ऐसा सोचते हैं कि इस जीत का पूरे देश पर असर पड़ेगा या अगर उनका मानना है कि मोदी और भाजपा के देशव्यापी लहर चल रही है, तो वे भूल कर रहे हैं। अगर उन्हें भाजपा से मुकाबला करना है तो आप और केजरीवाल की तरह उन्हें जनता से जुडऩा होगा।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
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