भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और इनसे जुड़े लगभग तीन दर्जन संगठनों ने देश में हिन्दुत्व की लहर तेज कर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का अपना अंतिम लक्ष्य हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी है। इसका विरोध राजनैतिक स्तर पर ही नहीं वरन नागरिक समाज द्वारा भी किया जा रहा है।
आगरा की बहु-प्रचारित ‘घर वापसी’ के बाद, देश के कई इलाकों में दलितों और आदिवासियों ने अपना मूल धर्म त्याग कर इस्लाम, ईसाई या फिर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। 11 जनवरी को हरियाणा के हिसार जिले के नारनौद इलाके के लुहारी राघो गांव में लगभग 150 हिन्दू परिवारों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। पांच जनवरी को बिहार के गया व सारण जिलों में करीब 2,000 दलित परिवारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। गया जिले के ही अतिया में 27 दिसम्बर को 40 दलित (मुसहर) परिवारों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। सामूहिक धर्म परिवर्तन का ऐसा ही मामला तामिलनाडु के त्रिनुलवेली जिले के मीनाक्षीपूरम में भी प्रकाश में आया है, जहां जाति-आधारित घृणा, तिरस्कार और अत्याचार से आहत, थावर जाति के 600 लोग मुसलमान बन गए।
उत्तरप्रदेश के मेरठ जिले के जमालपुर में लगभग 60 दलित परिवारों ने स्थानीय वीएचपी नेताओं को बता दिया है कि अगर उन्हें बागपत के वाल्मीकि आश्रम में पूजा करने से रोका गया तो वे इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। दलितों को यह चेतावनी इसलिए देनी पडी क्योंकि वाल्मीकि जयंती पर जब वे आश्रम में पूजा करने गए तो उन्हें रोक दिया गया। इस मंदिर का प्रबंधन वर्षों से दलितों के हाथों में था। कुछ माह पहले, ऊंची जातियों ने इस पर कब्जा कर लिया है।
इस बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गढ़ नागपुर में ही संघ को बड़ी चुनौती मिली है। सत्याशोधक ओबीसी परिषद् के अध्यक्ष हनुमंत उपरे की मानें तो आने वाले समय में ओबीसी समुदाय के लगभग पांच लाख लोग सामूहिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। गौरतलब है कि उपरोक्त मामलों में जिन लोगों ने धर्मांतरण किया है या भविष्य में ऐसी योजना बना रहे हैं, वे हिन्दू समाज की निम्नतर जातियों से संबंध रखते हैं। उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति दयनीय है तथा वे उंची जातियों के घृणा, तिरस्कार, शोषण और अत्याचार के शिकार हैं।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )
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