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तीन बौद्धिक परम्पराओं के वाहक

आत्मकथा 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' जैसी कई रचनाओं के बहुचर्चित व बहुपठित दलित लेखक प्रो. तुलसीराम का चले जाना न सिर्फ हिन्दी और दलित साहित्य बल्कि हमारे समय और समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति है

प्रोफेसर तुलसीराम : 1 जुलाई 1948 – 13 फऱवरी 2015

आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ जैसी कई रचनाओं के बहुचर्चित व बहुपठित दलित लेखक प्रो. तुलसीराम का चले जाना न सिर्फ हिन्दी और दलित साहित्य बल्कि हमारे समय और समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति है। ऐसी क्षति, जिसकी भरपाई फिलहाल तो संभव नहीं दिखती। एक जुलाई, 1949 को उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले में चिरैयाकोट के पास स्थित धरमपुर गांव में जन्म लेकर वहां से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेन्टर फार रशियन एंड सेंट्रल एशियन स्टडीज तक की संघर्ष व सृजन से भरपूर यात्रा में नाना प्रकार के मान-अपमान से गुजरने वाले तुलसीराम बहुत याद आयेंगे।

प्रो. तुलसीराम

फरीदाबाद स्थित एशियन इंन्स्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज़ में गत 13 फरवरी को उनका अंतिम सांस लेना, गौतम बुद्ध और डॉ़. भीमराव अम्बेडकर की विचारधाराओं में समन्वय की चाह से भरे, विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन व रूसी मामलों के अपनी तरह के अनूठे विशेषज्ञ का अवसान तो था ही, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध आन्दोलन व भारत के दलित आन्दोलन में गहरी पैठ रखने वाले एक ऐसे मनीषी का अंतिम सांस लेना भी था, जिसने कदम दर कदम मिले अपमानों से कुंठित होने की बजाय चलते चले जाने का जज्बा प्रदर्शित किया।

अरसा पहले अपनी अयोध्या यात्रा के दौरान, इन पंक्तियों के लेखक के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि भारत में दलित साहित्य, बौद्ध साहित्य से उपजा और इसकी शुरुआत अयोध्या मेंं अश्वघोष ने कोई दो हजार साल पहले की थी। अश्वघोष के ग्रंथों को वे दलित साहित्य के आरंभिक नमूने के तौर पर देखते थे और वैदिक साहित्य के विरोधियों में से एक, मौदगल्यायन की हत्या को उसकी प्रस्तावना बतौर। अपनी असहमतियों को न छिपाने और हर मसले पर असमंजस रहित, दो टूक नजरिया अपनाने के लिए जाने-जाने वाले तुलसीराम को मार्क्सवादियों से शिकायत थी कि वे ब्राह्मण साहित्य तो खूब पढ़ते हैं, लेकिन बौद्ध साहित्य से इतना परहेज बरतते हैं कि उसके संदर्भ तक नहीं देते। वे साहित्य में विचारधारा को अत्यंत आवश्यक मानते और कहते थे कि विचारधारा, बौद्धिक स्वरूप अपनाकर साहित्य में और व्यावहारिक स्वरूप अपनाकर राजनीति में परिवर्तित हो जाती है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ‘लेकिन दलित साहित्य, राजनीति से जुड़ता है तो उस पर सवाल उठाये जाते हैं।’

वे चाहते थे कि मार्क्सवाद और डॉ. आम्बेडकर की विचारधारा के अंतर्विरोधों को केवल और केवल उनके ऐतिहासिक संदर्भों में देखा जाये। उनकी मान्यता थी कि डॉ. आम्बेडकर मार्क्सवाद से नहीं बल्कि उनसे जुड़ी कुछ घटनाओं व संदर्भों से असहमत थे। ‘अच्छा होता कि भारत के मार्क्सवाद थोड़े दलित आन्दोलनोन्मुख हो जाते और केवल मजदूरों के पक्ष या सत्ताविरोध के क्षेत्र में ही सक्रिय न रहते। तब शायद दलित आन्दोलन के साथ उनके समन्वय व सामंजस्य की कोई राह निकलती।’ तुलसीराम यह राह निकालने के प्रयत्नों को सारे मुक्तिकामियों की जिम्मेदारी मानते थे क्योंकि उनकी समझ थी कि मार्क्सवाद और दलित आन्दोलन के बीच दूरियां बढऩे का सबसे ज्यादा लाभ उन शक्तियों को मिल रहा है जो किसी भी तरह दलितों व वंचितों की मुक्तिकामना को सफल होती नहीं देखना चाहतीं।

दलित-वाम समन्वय के आड़े आने वाली दलित शक्तियों को खरी-खरी सुनाने में तो वे अपने समय के कबीर ही बन जाते थे। कई साल पहले, एक दलित संगठन ने मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में प्रयुक्त कुछ शब्दों पर आपत्ति दर्ज कराने के लिए उसे जलाने की घोषणा की, तो तुलसीराम ने कहा था- ‘मात्र चमार शब्द के इस्तेमाल के कारण जो लोग आज रंगभूमि जला रहे हैं वे अतिवादी हैं और उन्हें एक दिन पूरा बौद्ध साहित्य जलाना पड़ सकता है, क्योंकि उसमें भी चमार व चांडाल जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। क्या वे इसके लिए तैयार हैं?’

जाति व्यवस्था को वे परमाणु बम से भी कहीं ज्यादा घातक मानते थे। उनके शब्दों में ‘आप किसी शहर पर परमाणु बम गिरा दीजिए तो वह उसकी एक-दो पीढिय़ों को ही नष्ट कर पायेगा। लेकिन हमारे समाज पर थोपी गई जाति व्यवस्था पीढी दर पीढ़़ी संभावनाओं का संहार करती आ रही है।’ वे कई लोगों की इस राय से कतई इत्तेफाक नहीं रखते थे कि विज्ञान व तकनीक प्रदत्त नये-नये आविष्कारों के उपयोग से जीवनशैली में आया बदलाव, सामाजिक बदलाव का वाहक बनेगा या कि एकमात्र विकास ही दलितों व वंचितों के सौ मर्जों की दवा सिद्ध होगा। उनकी मानें तो वैज्ञानिक आविष्कारों या भौतिक उपलब्धियों का काम सामाजिक परिवर्तन करना नहीं है। इस परिवर्तन के लिए सामूहिक चेतना जरूरी है और हमे केवल उसी पर निर्भर करना पड़ेगा। दिक्कत की बात है यह कि इधर इस चेतना को जगाने की जगह दूषित करने का काम ज्यादा हो रहा है।

अब जब तुलसीराम हमसे बहुत दूर जा चुके हैं, हम यही कह सकते हैं कि वे हमारे सामने न सही, हमारी स्मृतियों में रहेंगे।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार कृष्णप्रताप सिंह विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सामायिक विषयों पर लेखन करते हैं। उनकी चार पुस्तिकाएं 'पूजिए तो इस अयोध्या को पूजिए', 'आयोध्या और 1857', 'फैजाबाद ने जाये और पाये' और 'सरयू से गोमती' शीर्षक से प्रकाशित हैं

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