पिताजी ने सवेरे ही मांस खरीद कर रखा था। हम लोग ज्यादातर गाय का मांस खाते थे। बस्ती के भी ज्यादातर लोग गाय का ही मांस खाते। यह मांस सस्ता होता था। हमारी बस्ती से थोड़ी ही दूर पर एक साईखाना था, गड्डीगोदाम नाम की जगह पर। मुसलमान कसाई यह मांस बेचते थे। कसाईखाने की जालीदार खिड़कियां और दरवाजे थे। डाक्टर आकर गायों की जाँच करके काटने की अनुमति देता था। अंग्रेज व एंग्लो-इंडियन ईसाईयों के नौकर यहीं से मांस खरीदते थे। छोटी बहन ने मसाला पीसने के पत्थर पर खूब बारीक़ मसाला पीसा। हम मांस में खूब सारी मिर्च डालकर पकाते थे। माँ ने मसाला भूनकर मांस को चूल्हे पर चढ़ाया। आज छुट्टी का दिन था। इसलिए भात, रोटियां और मांस बना था। रोज सिर्फ भात और मिर्च-मसाले वाली दाल बनती। कभी-कभार बेसन की कढ़ी या आलू-बैंगन या बडिय़ों की रसे वाली सब्जी बनती। क्योंकि भात के साथ रसा तो चाहिए ही।
मेरी माँ कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ से ये पंक्तियाँ ली गयी हैं। हालाँकि जब तक वे जीवित रहीं, मैंने उन्हें कभी बीफ खाते नहीं देखा, फिर भी, उनके साथ मेरे अनुभव, इस मुद्दे की जटिलता को समझने में मुझे सहायक साबित हुए हैं। जो जानकारियां उनसे मुझे मिलीं, उनसे मुझे भारतीय सामाजिक व्यवस्था में हिन्दू धर्म समेत सभी धर्मों के दलितबहुजन वर्ग के खानपान की संस्कृति और उससे जुडी तमाम सच्चाइयों का पता चला। इस दर्दनाक सच्चाई को आज मुख्यधारा के बुद्धिजीवी वर्ग के दायरे में शामिल किया जाना जरूरी है। अंतत: इसी से भारतीय सांस्कृतिक विरासत का असली चेहरा सामने आएगा और धर्म की भूमिका को निर्धारित किया जा सकेगा।
वेदों में अश्वमेध यज्ञ के दौरान गाय की बलि और ब्राह्मणों को उसके मांस मे से दिए जाने वाले हिस्से का वर्णन है, लेकिन दलितों के खाने के अधिकार की बात न धर्म में और ना ही समाज में कहीं सुनी-समझी जाती है। जी तोड़ मेहनत के बावजूद, दो जून की रोटी जुटा पाना आज भी दलितों के लिए सम्भव नहीं है। यह उनका इतिहास भी है और वर्तमान भी, जिसका ईमानदार चित्रण दलित साहित्य में प्रमुखता से मौजूद है।
दलित सिर्फ सम्मान, समता और न्याय की ही नहीं बल्कि खाने के अधिकार की भी लड़ाई लड़ते रहे हैं। इस सन्दर्भ में बीफ से जुड़े कुछ तथ्यों को जानना जरूरी है। मटन, मुर्गा, मछली, दालें, अन्य अनाज, फल, मेवे और बहुत सारी सब्जियां इतनी महंगी हैं कि इस वर्ग की पहुँच से पूरी तरह बाहर हैं। सिर्फ बीफ ही ऐसा खाद्य है जो वे खरीद सकते हैं। मरे हुए जानवरों को ठिकाने लगाने का काम आज भी गांवों में दलित ही करते हैं और उसका मांस दलित परिवारों में ही बंटता हैं। मेरी माँ ने एक बार मुझे बताया था कि जब भी उनके हिस्से में ज्यादा बीफ आ जाता था, सारा परिवार मिलकर उसे साफ कर उसके पतले-लम्बे टुकड़े कर, छत पर सूखने के लिए रख देता। सूख जाने पर उसे संभाल कर रख दिया जाता। बरसात में या जब भी घर में खाने की किल्लत होती थी, इन्हीं टुकड़ों को भूनकर खाया जाता था। यह दूध-दही और घी खाने वालों के लिए घृणा की बात हो सकती है, लेकिन जो वर्ग इस दर्द के साथ सदियों से जी रहा है, उस पर धर्म की आड़ में एक ब्राह्मणवादी संस्कृति को थोपना, उसकी संस्कृति, इतिहास, अस्मिता और संघर्षों पर हमला है.
दलित वर्ग के बीफ खाने से सम्बंधित जो कुछ भी मैंने अपनी माँ से जाना, उसमें मुझे दलित स्त्रीवादी चिंतन की भी एक बुलंद मिसाल दिखाई दी। दलित स्त्री अपने परिवार का भरण-पोषण अकेले ही करती है। बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारी में उसकी भागीदारी पुरुष से कहीं ज्यादा है। वह पुरुष के बराबर मेहनत करती है, पैसे कमाती है, बाजार में सबसे सस्ते सामान में भी मोल-भाव कर किसी तरह घर का गुजारा करती है। घर लौटकर दूर से पानी लाना, घर की साफ-सफाई करना और खाना बनाकर सभी घरवालों को खिलाना, यह अकेले उसी की जिम्मेदारी है। कभी-कभार बीफ बनाकर, बच्चों को उसे चाव से खाता देखकर जो तृप्ति एक दलित माँ के चेहरे पर दिखाई देती है, उसका चित्रण दलित साहित्य में जगह-जगह मौजूद है। उस एहसास को महसूस करने की क्षमता हर किसी के में नहीं है। जो उसे जीता है, वही समझ सकता है।यह दर्द दलित विमर्श का प्रमुख हिस्सा है।
पूरी दुनिया में, विशेषकर पश्चिमी और अफ्रीकी देशों में, बीफ रोज के खानपान का हिस्सा है। इस पर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। भारत में इसे आस्था का सवाल बनाकर विवाद खड़ा कर दिया गया है, जो दलितों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा का कारण बन सकता है।
मेरी माँ जब तक अपनी बस्ती में रही गरीबी के कारण उनके परिवार के पास बीफ का कोई विकल्प नहीं था। शादी के बाद (मेरे पिता सरकारी अफसर थे), बीफ के अलावा अन्य विकल्प होने के कारण उन्होंने न दुबारा कभी बीफ बनाया और न खाया। बीफ खाने का कारण भारत में सिर्फ और सिर्फ गरीबी है। खानपान, पहनावा, भाषा, बोली, साहित्य, तमाम कलाएं और कारीगरी का संबंध संस्कृति से है न कि धर्म से। इसे किसी भी धर्म की आस्था या भावना से जोडऩा, भारत जैसे देश में, जहां दुनिया के सभी धर्मों को मानने वाले और लगभग 6,500 जातियों और उपजातियों में विभाजित सवा सौ करोड़ लोग रहते हैं, विस्फोटक होगा।