दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मुट्ठी भर अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित छात्रों ने जब 25 अक्टूबर, 2011 को पहली बार ‘महिषासुर शहादत दिवस’ मनाया था, तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि यह दावनल की आग सिद्ध होगा। महज चार सालों में ही ये इन आयोजनों न सिर्फ देशव्यापी सामाजिक आलोडऩ पैदा कर दिया है, बल्कि ये आदिवासियों, अन्य पिछडा वर्ग व दलितों के बीच सांस्कृतिक एकता का एक साझा आधार भी प्रदान कर रहे हैं। इस साल देश भर में 300 से ज्यादा स्थानों पर महिषासुर शहादत अथवा महिषासुर स्मरण दिवस मनाया गया। यह आयोजन देश की सीमा पार कर नेपाल भी पहुंच गया। इसे कहीं 10-15 उत्साही युवक सांकेतिक रूप से हाथ में तख्तियां लेकर कर रहे हैं, तो कहीं एक से 20 हजार लोगों की भीड़ वाली सभाएं हो रही हैं। इन आयोजनों को देखते हुए यह आसानी से महसूस किया जा सकता है कि भारत की दमित अस्मिताएं इस बहाने अपना अभिनव सांस्कृतिक इतिहास लिख रही हैं।
भारत में जिस दुर्गा पूजा को देवताओं और राक्षसों की लड़ाई बताकर उसे निर्विवाद माना जाता था, वह आज इन आयोजनों के कारण संकट में है। महिषासुर दिवस मनाने वालों का कहना कि वह तो आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी और महिषासुर हम अनार्यों के पुरखा और नायक हैं। आदिवासियों के मिथकीय नायक और देवता रहे महिषासुर को शहीद बताने वाले लोगों में आज ज्यादा संख्या यादव, कुशवाहा, कुम्हार, कुर्मी, निषाद, मांझी, रजक, रविदास आदि वंचित बहुजनों की है।
इन आयोजनों के एक अध्येता के रूप में देश के विभिन्न हिस्सों में महिषासुर दिवस के आयोजकों से बात करना हमारे लिए एक अनूठा अनुभव रहा। इनके पास कहने के लिए ढेर सारी बातें हैं। लेकिन कुछ साझा बातें अनायास ध्यान खींचती हैं। ये सभी आयोजक बताते हैं कि हम ”बचपन से इस विषय में सोचते थे कि दुर्गा की मूर्तियों में जो असुर है, उसका रंग-रूप क्यों हम लोगों जैसा है और क्यों उसे मारने वालों की कद-काठी पहनावा आदि सब उनके जैसा है, जो आज के द्विज हैं!’’ बाद में जब उन्होंने अपने स्तर पर विचार किया और खोजबीन की तो आश्चर्यचकित रह गये। उनके आसपास, यहां तक कि कई मामलों में तो अपने घरों में ही मनुज देवा, दैत्येरा, मैकासुर, कारसदेव आदि से संबंधित असुर परंपराएं पहले से ही मौजूद थीं। कुछ आयोजक मानते हैं कि महिषासुर व उनकेगण कोई मिथकीय पात्र नहीं हैं, बल्कि एतिहासिक पात्र हैं, जो उनके कुनबे के रक्षक, प्रतापी राजा अथवा जननायक थे।
सभी आयोजक महिषासुर की ‘पूजा’ का विरोध करते हैं तथा सभी प्रकार के कर्मकांडों का निषेध करते हैं। शायद यही इन आयोजनों की असली ताकत भी है।
इन चार सालों में यह एक प्रकार की सांस्कृतिक राजनीति का आयोजन भी बन चुका है। यह न सिर्फ नामी-गिरामी
विश्वविद्यालयों में हो रहा है बल्कि दूर-दराज के गांव-कस्बों में भी इसकी जबरदस्त चर्चा है। बात सरकारी अमले तक पहुंची है और कई जगहों पर इस उत्सव के दिन सुरक्षा के दृष्टिकोण से अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती की जाने लगी है।
महिषासुर का एक संबंध भारत की आदिम जनजाति ‘असुर’ की प्राचीन संस्कृति से जुड़ता है, जिनकी कुल संख्या अब देश भर में बमुश्किल 9 हजार बची है। असुरों में कम ही लोग पढ़े-लिखे हैं। गुमला के विशुनपुर प्रखंड के सामाजिक कार्यकर्ता अनिल असुर कहते हैं कि ”मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया था। वह हमारे प्रतापी पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं थीं।’’ रांची से प्रकाशित ‘जोहार दिशुम खबर’ के संपादक अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं कि, ”महिषासुर को खलनायक बताने वाले लोगों को आदिवासी, पिछडा वर्ग व अन्य वंचित तबकों के बीच उनके नायकत्व को समझना चाहिए।’’ पंकज बताते हैं कि ”इस साल (वर्ष 2015 में) देश भर में लगभग 350 जगहों पर महिषासुर दिवस मनाया गया।’’
महिषासुर दिवस मनाने वाले लोग बताते हैं कि दुर्गा व उनके सहयोगी देवताओं द्वारा महिषासुर की हत्या कर दिये जाने के बाद आश्विन पूर्णिमा को उनके अनुयायियों ने विशाल जनसभा का आयोजन किया था, जिसमें उन्होंने अपनी समतामूलक संस्कृति को जीवित रखने तथा अपनी खोई संपदा को वापस हासिल करने का संकल्प लिया था। यही कारण है कि विभिन्न स्थानों पर जो आयोजन हो रहे हैं, उनमें से अधिकांश आश्विन पूर्णिमा वाले दिन ही होते हैं। यह पूर्णिमा दशहरा की दसवीं के ठीक पांच दिन बाद आती है। हालांकि कई जगहों पर यह आयोजन ठीक दुर्गा पूजा के दिन भी होता है तथा कहीं-कहीं आयोजक अपनी सुविधानुसार अन्य तारीखें भी तय कर लेते हैं। कहीं इसे ‘महिषासुर शहादत दिवस’ कहा जाता है तो कहीं ‘महिषासुर स्मरण दिवस।’
आइए, बानगी के तौर पर कुछ चुनिंदा जगहों पर नजर डालते हुए हम इन आयोजनों की तासीर समझने की कोशिश करें। हलांकि रिपोर्ट पूरी करने की समय सीमा के कारण हम इस सूची में क्षेत्रीय विविधता की जरूरत को पूरा नहीं कर पाए हैं। लेकिन यह एक बानगी तो है ही।
- पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिला केकाशीपुर प्रखंड के झालागौडा में महिषासुर शहादत दिवस पर विशाल आयोजन होता है। इस वर्ष यहां इस आयोजन के लिए लगभग 20 हजार लोग जुटे, जिनमें मुख्य रूप से संताल, बावरी, राजहड, महाली आदि आदिवासी जातियों व पिछड़े-दलित तबकों के लोग थे। यहां यह आयोजन चरियन महतो के नेतृत्व में होता है। कुर्मी जाति से आने वाले महतो यह आयोजन न सिर्फ यहां करते हैं, बल्कि उन्होंने कई अन्य स्थानों पर भी इस आयोजन के लिए आदिवासियों को प्रेरित किया है। वे बताते हैं कि कुर्मी व इस तरह की अन्य अन्न व पशुपालक जातियों की जडें आदिवासी समाज में ही रही हैं, यह कारण है कि हम महिषासुर से गहरा अपनत्व महसूस करते हैं। चरियन बताते हैं कि ”हम लोगों ने पहली बार यह आयोजन वर्ष 2011 में दिल्ली के जेएनयू में महिषासुर दिवस मानये जाने की खबर सुनने के बाद किया, लेकिन मेरे मन में यह बात बहुत पहले से थी। वर्ष 1997 में ही मैंने अपने बांग्ला साप्ताहिक नया सूरज में इस संबंध में एक संपादकीय लेख लिखा था।’’ वे बताते हैं कि उसका शीर्षक था, ‘मानवता और राष्ट्रीयता विरोधी है दुर्गोत्सव।’ इसमें उन्होंने लिखा था कि महिषासुर इस देश के मूल निवासी थे। दुर्गापूजा विदेशी आर्र्योÞ द्वारा उनकी हत्या के उपलक्ष्य में मनायी जाती है। इस प्रकार यह विदेशी आक्रांताओं का गुणगाणन करने का उत्सव है, जो अपने मूल रूप में हमारी राष्ट्रीयता के विरूद्ध है। वर्ष 2010 में उन्होंने अपने इसी विचार को और विस्तार से लिखा, जो पुरूलिया से प्रकाशित जाति संगठन ‘कुर्मी मिलन संगम’ के बांग्ला मुखपत्र ‘अखड़ा’ में प्रकाशित हुआ, जिसकी काफी चर्चा हुई। इसे पढ़कर उनके पास स्थानीय सामाजिक कार्र्यकर्ताअजित प्रसाद हेम्ब्रम और शत्रुध्न मुर्मू आए। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि दुर्गापूजा का विरोध किया जाए। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में यह संभव नहीं था। इन लोगों ने तय किया कि वे अपने पूर्र्वज महिषासुर की याद में कार्यक्रम आयोजित करेंगे। इस प्रकार उन्होंने अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए दुर्गापूजा के दिन ही महिषासुर शहादत दिवस मनाना शुरू कर दिया। आयोजन के पहले साल भारत सरकार के ज्वाईंट रजिस्ट्रार जनरल स्वप्न विश्वास कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बने थे, उसके बाद से बहुजन समाज से आने वाले अनेक बड़े अधिकारी, टेक्नोक्रेट व अन्य प्रभावशाली लोग इस आयोजन में मौजूद रहते हैं।
राज्य में विभिन्न जगहों पर हुए इन आयोजनों की सारी जानकारियां चरियन की जुबान पर रहती हैं। वे बताते हैं ”वर्ष 2011 में हमारे आयोजन के बाद 2012 में मालदह में भी यह आयोजन शुरू हुआ। 2013 में पश्चिम बंगाल के 24 जगहों पर महिषासुर दिवस मनाया गया। 2014 में इन आयोजनों की संख्या 74 हो गयी। यह बहुत तेजी से फैल रहा है। इस साल राज्य के 182 स्थानों पर महिषासुर दिवस मनाया गया है।’’
- पश्चिम बंगाल के 24 परगना (नार्थ) जिला के अशोक नगर थाना क्षेत्र के बीराबांदोपल्ली में इस साल पहली बार महिषासुर दिवस का आयोजन किया गया। यहां आयोजन 20 अक्टूबर को हुआ। आयोजन में लगभग 400 लोग शामिल हुए। इसके आयोजकों में से एक सुरसेनजीत वैरागी बताते हैं कि इस क्षेत्र में दलित अबादी बहुसंख्यक है, जिन्होंने इस आयोजन से काफी उत्साह दिखाया। आयोजन में क्षेत्र के अन्य पिछड़ा वर्ग लोग और मुसलमान भी शामिल हुए। उन्होंने बताया कि स्थानीय पुलिस ने उन्हें आयोजन नहीं करने के लिए एक नोटिस थमा दिया था, लेकिन वे झुके नहीं। उन्होंने पुलिस अधिकारियों के समक्ष सवाल उठाया कि ”किसी को जन्मदिन की पार्टी करने या प्रियजन की मृत्यु पर शोक सभा आयोजित करने के लिए आपसे अनुमति लेने पड़ती है क्या? हार कर पुलिस ने कार्यक्रम में विध्न उत्पन्न नहीं किया। वैरागी कहते हैं कि यह न सिर्फ हमारे पूर्वजों की हत्या का उत्सव है बल्कि दुर्गापूजा के दौरान जो मूर्तियां बनायी जाती हैं, उनमें मनुष्य की हत्या को दर्शाया जाता है, जिसका बहुत बुरा प्रभाव समाज पर पड़ता है। कोलकाता के सरदिंद बिस्वास के नेतृत्व में भी इस साल महिषासुर दिवस का आयोजन किया गया। वे बताते हैं कि इस साल चैबीस परगना नार्थ तथा साउथ, मिदनापुर ईस्ट तथा वेस्ट, बर्धमान, बाकुरा, बीरभूम, मुर्शिदाबाद, जलपाईगुडी, कोच्छ विहार, मालदह समेत राज्य के 15 जिलों में दर्जनों जगहों पर शहदत दिवस का आयोजन किया गया है।
- कोलकाता के शहरी क्षेत्र व कई उपनगरों में भी कई जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन पिछले दो सालों से हो रहा है। इन क्षेत्रों में इसका वाहक बना है समुद्र बिस्वास के संपादन में निकलने वाला बांग्ला पाक्षिक ‘निर्भीक संवाद’। समुद्र बताते हैं कि वे अपने अखबार में इन आयोजनों की तैयारी, इस दौरान होने वाले संभाषण आदि की रिपोर्ट को निरंतर प्रकाशित करते हैं। आयोजन की अवधारणा के पक्ष में कई लेख भी इसमें छपे हैं, जिससे वंचित तबकों में इसके प्रति तेजी से जागरूकता आयी है। समुद्र बिस्वास एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘जनमन’ भी निकालते हैं तथा उन्होंने ‘दुर्गा पूजा आंतरू’ (दुर्गा पूजा की अंदरूनी कथा) शीर्षक से बांग्ला में एक किताब भी लिखी है, जिसमें दुर्गा और महिषासुर की कथा की बहुजन व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। इस किताब का विमोचन वर्ष 2014 में कोलकता पुस्तक मेला में किया गया था। बिस्वास बताते हैं कि बंगाल के जलपाईगुड़ी जिला के कालचीनी में 1985 से ही असुर दिवस मनाया जाता रहा है। वर्ष 2011 में दिल्ली में हुए आंदोलन के बाद से इसने ऐसा राज्य व्यापी स्वरूप ग्रहण कर लिया है कि इस बार आनंद बाजार जैसे दुर्गा पूजा के घनघोर समर्थक अखबार को भी इसके सामने झुकना पड़ा। उसने इस साल इस आयोजन के संबंध में सकरात्मक रिपोर्ट प्रकाशित की।
- उत्तर प्रदेश के देवरिया के निकट डुमरी में ‘यादव शक्ति’ पत्रिका के प्रधान संपादक चंद्रभूषण सिंह यादव व लखनऊ में इसी पत्रिका के संपादक राजवीर सिंह के निर्देशन में महिषासुर शहादत दिवस का अयोजन किया जाता है। ‘यादव शक्ति’ ने इस साल 26 अक्टूबर को यह दिवस मनाया, जिसमें वंचित समुदायों के बुद्धिजीवियों ने सांस्कृतिक आजादी की जरूरत पर बल देते हुए अपनी बातें रखीं। इन आयोजनों में शामिल होने वाले लोग बताते हैं कि प्रदेश में कई अन्य जगहों पर भी पिछले दो सालों से यह आयोजन निरंतर हो रहा है।
- झारखंड के धनबाद जिले के निरसा प्रखंड के मुगमा में भी 2012 के बाद से हर साल महिषासुर को स्मरण किया जा रहा है। इस साल यहां एक नवंबर को महिषासुर दिवस मनाया गया। इस अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से आए बहुजन समाज पार्टी के नेता डा रामाशीष राम ने कहा कि ”महिषासुर बहुजनों के महानायक थे। बहुजनों की एकजुटता जरूरी है ताकि हम अपने इतिहास का पुनर्पाठ कर सकें । मनुवादियों द्वारा लिखे गए इतिहास पर हमारा भरोसा नहीं है।’’ संगोष्ठी में करीब 100 लोग शामिल हुए। इनमें ज्यादातर संख्या अन्य पिछड़ी जातियों के लोगों की थी।
- झारखंड के गिरिडीह जिला में भी अनेक जगहों पर महिषासुर दिवस मनाया जाने लगा है। जिला में इन आयोजनों को वरिष्ठ अधिवक्ता दामोदर गोप का नेतृत्व प्राप्त है। गोप बताते हैं कि वे वर्षों तक सीपीआई (एमएल) के सदस्य रहे, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि ”उच्च जातियों के दवाब में कम्युनिस्ट पार्टियां बहुजनों को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से गुलाम बनाए रखना चाहती हैं।’’ वे सवाल उठाते हैं कि ”क्या एक मनुष्य के रूप में सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान हमारे लिए काफी है? सांस्कृतिक गौरव के सारे सुख क्यों सिर्फ उच्च जातियों के लिए हैं?’’ गोप का मानना है कि ”सांस्कृतिक और सामाजिक आजादी के बिना सिर्फ आर्थिक लड़ाईयों की बात करना एक छलावा मात्र है। आर्थिक रूप से भी वही समाज समृद्ध हो पाता है, तथा अपनी समृद्धि को लंबे समय तक बरकार रख सकता है, जिसकी गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक जडें हों।’’ इसी जिला के धनवार प्रखंड महिषासुर दिवस का आयोजन अरविंद पासवान करते हैं। धनवार में इस साल 24 अक्टूबर को इसका आयोजन किया गया। वे बताते हैं कि अगले साल से आश्विन पूर्णिमा को गिरीडीह और आसपास के जिलों में और बडे पैमाने पर महिषासुर स्मरण दिवस मनाया जाएगा। झारखंड प्रदेश असुर संघ बनाकर राज्य स्तरीय असुर सम्मेलन करने की भी तैयारी चल रही है।
- बिहार के मुजफ्फरपुर के सिंकंदरपुर कुंडल में इस साल 26 अक्टूबर (आश्विन पूर्णिमा) को महिषासुर दिवस मनाया गया। इस अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न कॉलेजों के लगभग 100 छात्र मौजूद थे। यहां एकलव्य सेना के कार्यकर्ताओं ने इस आयोजन का संचालन किया, जिसके कर्ताधर्ता नरेश कुमार सहनी हैं। इस आयोजन से पहले एकलव्य सेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने दशहरा के दिन जिलाधिकारी के आवास के सामने खुदीराम स्मारक पर ‘काला दिवस’ मनाकर दलित-पिछड़े लोगों से अपील की कि वे अपने पूर्वज की हत्या के जश्न में शामिल न हों। नरेश कुमार सहनी बताते हैं कि ”मैं बचपन से ही सोचता था कि अगर कथित देवताओं की वंशावलियां हैं तो जरूर असुरों की भी तो वंशावली होगी। आखिर उनके वंशज आज कौन हैं? बाद में फारवर्ड प्रेस में छपे लेख की जानकारी मुझे हुई तो लगा कि और भी लोग मेरी तरह ही सोच रहे हैं। उस लेख ने मुझे अपनी बात कहने की ताकत दी।’’ वे बताते हैं कि ”हम निषादों (मल्लाहों) की एक उपजाति है – महिषी। यह निषादों की वह उपजाति है जो पशुपालन करती है। महिषासुर हम मल्लाहों के पूर्वज थे। ‘साथ ही, वे स्वयं ही जोड़ते हैं कि ”महिषासुर जिस काल में रहे होंगे, उस समय जाति व्यवस्था इस रूप में नहीं रही होगी, इसलिए उनकी जाति नहीं निर्धारित की जा सकती। यादव व अन्य जातियां भी उन्हें अपना पूर्वज मानती हैं। सभी अपने जगह सही हैं।’’
- मुजफ्फपुर के भगवानपुर में भी महिषासुर महोत्सव मनाया। इसके संचालन का जिम्मा उठाया हीरा यादव ने। यह पूछने पर कि क्या विरोध का सामना नहीं करना पड़ता, वे बताते हैं कि ”पहले विरोध होता था। 2011 में जब यह आयोजन शुरू हुआ तो घर के लोगों ने ही विरोध किया। उनका मानना था कि दुर्गा हिंदुओं की देवी हैं। उनके खिलाफ आयोजन क्यों? लेकिन अब लोग समझ चुके हैं कि वह कोई धर्मयुद्ध नहीं था। वह आर्यों-अनार्यों की लड़ाई थी। इसलिए, यह एक ऐतिहासिक घटना है। इसका हिन्दू धर्म से कोई वास्ता या सरोकार नहीं। ब्राह्मण जाति सभी हिंदुओं का पर्याय नहीं है।’’
- मुजफ्फपुर जिला के ही मीनापुर प्रखंड के छितरा गांव में वर्ष 2014 में महिषासुर की मूर्ति बनायी गयी थी। लेकिन इस वर्ष बिना मूर्ति के ही महिषासुर स्मरण दिवस मनाया गया। दरअसल, जैसे-जैसे इस संबंध में मूर्ति पूजा की विरोधी रही आदिवासी मूल की परंपराओं की जानकारी सामने आ रही है, लोग महिषासुर की मूर्ति बनाने को गलत मानने लगे हैं। इसकी जगह इन कार्यक्रमों में प्राय: अपने पूर्वज के रूप में महिषासुर का सिर्फ चित्र लगाया जाता है तथा संभाषण व सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। छितरा गांव में हुए आयोजन में आसपास के गांवों के लगभग 1500 लोगों ने भाग लिया। आयोजन में बहुजन जातियों द्वारा पारंपरिक तौर पर गाये जाने वाले गीतों का गायन किया गया तथा जनपक्षधर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये गये।
- बिहार के मधेपुरा निवासी, पेशे से शिक्षक हरेराम मूलत: एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी टीम के निर्देशन में एक स्कूल के मैदान में 26 अक्टूबर, 2015 को महिषासुर महोत्सव मनाया। इस आयोजन में करीब 150 लोग शामिल हुए। विचार गोष्ठी हुई लेकिन किसी अखबार ने इस खबर को छापना मुनासिब नहीं समझा। हरेराम बताते हैं कि उन्होंने आयोजन की प्रेस विज्ञप्ति और तस्वीरें सभी अखबारों को दी थीं। लेकिन, न तो कोइ पत्रकार इसे कवर करने आया और न कहीं यह खबर छप सकी। बकौल हरेराम भगत, बिहार विधानसभा के चुनाव की गहमागहमी कारण उनके यहां ज्यादा भीड़ नहीं हो सकी। उन्हें करीब 1000 लोगों के आने की उम्मीद थी। वे कहते हैं कि ”इस क्षेत्र में पहले बामसेफ के संस्थापक कांशीराम जी का आंदोलन चलता था। इस कारण महिषासुर महोत्सव के लिए लोगों को कनविंश करने में हमें कोई दिक्कत नहीं हुई।’’
- बिहार के नवादा में भी 2012 से महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है। वर्ष 2014 यहां भी महिषासुर की मूर्ति बनायी गयी थी, तथा भारी जन जुटान हुआ था। कार्यक्रम के आयोजक रामफल पंडित, एडवोकेट जयराम प्रसाद, उमेश सिंह, सुमन सौरभ और रामस्वरूप मांझी बताते हैं कि इस क्षेत्र में इस आयोजन ने व्यापक समाजिक आलोडऩ पैदा किया है। लोग महसूस करने लगे हैं कि हमें आर्थिक और सामाजिक आजादी तभी मिल सकती है, जब हम अपने ऊपर लादी गयी ब्राह्मणवादी संस्कृति के जुए को उतार फेंके। उनका मानना है कि ”इन आयोजनों के कारण राजनीतिक जागृति भी आयी है।’’
- बिहार के गंगा पार शहर हाजीपुर से लगभग 16 किलोमीटर दूर भगवानपुर अट्टा में एक नवंबर को महिषासुर के स्मरण के लिए एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया, जिसमें लगभग 1000 लोगों ने शिरकत की, जिसमें बडी संख्या महिलाओं की थी। आयोजक थे – राष्ट्रीय मूल निवासी संघ तथा सत्यशोधक विचार मंच। दो सत्रों में विभाजित यह आयोजन दिन के 12 बजे से रात के 2 बजे तक चला। पहले सत्र का विषय था, ”महिषासुर कौन, हत्या क्यों, हत्या की जानकारी वंशजों को है या नहीं, और हत्या की जानकारी नहीं होने का परिणाम’’, दूसरे सत्र का विषय था, ”हमारे देश के शास्त्ऱों में में आर्य-अनार्य, देव-दानव, सुर-असुर, सवर्ण-अवर्ण, आदि संघर्षों का विवरण है, तत्कालीन अनार्य, दानव, असुर, अवर्ण कौन थे, तथा उनका संघर्ष तथा छल-कपट से उनकी पराजय के बाद उनके वंशजों की किस रूप में पहचान।’’ इन लंबे-चौड़े विषयों पर देश भर से आये सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने अपनी राय खूब विस्तार से रखी, जिसका स्वागत वहां मौजूद लोग तालियों की गडग़ड़ाहट से करते रहे। इस अवसर पर प्रमुख वक्ताओं के रूप में, यादव जाति से आने वाले राष्ट्रीय सत्यशोधक मंच के संयोजक शिवाजी राय, भील आदिवासी समुदाय से आने वाले राष्ट्रीय मूल निवासी संघ के अध्यक्ष ताराराम मेहना तथा दलित समुदाय से आने वाले बामसेफ के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष डॉ. देशराज ने विस्तार से अपनी बातें रखीं। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कुशवाहा जाति से आने वाली सामाजिक कार्यकर्ता नीलम कुशवाहा ने कहा कि मनुवादी व्यवस्था ने देवियों के रूप महिलाओं का दुरूपयोग किया है, इसलिए इन देवियों को अपना आदर्श बनाया जाना गलत है। महिलाओं के सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं है कि उसे पुरूषों के तेज से उत्पन्न बताया जाए। उन्होंने कहा कि आज की महिलाओं को सच्चे सशक्तिकरण और अपमानजनक प्रलोभनों के बीच फर्क करना चाहिए तथा उन सामाजिक शक्तियों के साथ खड़ा होना चाहिए, जो न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं। उदयन राय ने इस अवसर पर कहा कि संसद और अदालत के माध्यम से हमें अपने पूर्वजों हत्याओं के विभिन्न जश्नों पर रोक लगाने के लिए कदम उठाने चाहिए। आयोजन को दिलीप पाल, महावीर दास सिसोदिया, राजनारायण गुप्ता, विनोद कुमार, कुमारी बेबी, कुमारी प्रार्थना, तनीषा, महेंद्र राय, हास्य कवि गया प्रसाद, सत्येंद्र पासवान, पारसनाथ रजक आदि ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता स्थानीय नेता सुबोध राय ने की तथा संचालन जिवलेश्वर प्रसाद ने किया।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, बिहार के पटना में अधिवक्ता मनीष रंजन, पत्रकार नवल किशोर कुमार, राकेश यादव, सुपौल में अभिनंदन कुमार, सीवान में रामनरेश राम, प्रदीप यादव, पूर्वी चंपारण में बिरेंद्र गुप्ता, पश्चिमी चंपारण में रघुनाथ महतो, शिवहर में चंद्रिका साहू, सीतमाढ़ी में रामश्रेष्ठ राय और गोपाल गंज के थावे मंदिर के महंथ राधाकृष्ण दास महिषासुर की गाथा को शहादत/स्मरण दिवस के माध्यम से जन-जन तक पहुंचा रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के कोशांबी के जुगवा में एनबी सिंह पटेल और अशोक वद्र्धन हर साल एक बडा आयोजन करते हैं। पिछले वर्ष इन लोगों ने अपने गांव का नाम बदलकर ‘जुगवा महिषासुर’ करने व वहां इस आशय का बोर्ड लगाने की घोषणा की थी। मिर्जापुर में कमल पटेल और सुरेंद्र यादव, इलाहाबाद में लड्डू सिंह व राममनोहर प्रजापति, बांदा में मोहित वर्मा, बनारस में कृष्ण पाल, अरविंद गौड और रिपुसूदन साहू इस आयोजन के कर्ताधर्ता हैं। कर्नाटक के मैसूर, तेलांगना के हैदराबाद, मध्यप्रदेश के बालाघाट के मोरारी मोहल्ला और उड़ीसा के कई शहरों में भी महिषासुर दिवस मनाया जाने लगा है। बंगाल के पुरूलिया में स्वप्न कुमार घोष तथा उड़ीसा के कालाहांडी में नारायण बागार्थी के नेतृत्व में इस आयोजन पिछले साल मीडिया में खासी सुर्खियां बटोरीं थीं। भारत के अतिरिक्त नेपाल में भी कुछ जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस मनाये जाने की सूचनाएं हैं, लेकिन वहां के आयोजकों से हम समयाभाव के कारण संपर्क नहीं कर सके।
( इस लेख के सह -लेखक रवि प्रकाश हैं . रवि प्रकाश मल्टीमीडिया पत्रकार हैं और बी बी सी तथा दूरदर्शन के लिए नियमित रिपोर्टिंग करते हैं . वे प्रभात खबर के देवघर संस्करण के स्थानीय संपादक, दैनिक जागरण , कोलकाता के संपादकीय प्रमुख, दैनिक भास्कर, रांची के डिप्टी संपादक और आई नेक्स्ट , रांची ,पटना , आगरा और जमशेदपुर संस्करण के संपादक रहे हैं .)