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द्वेष की धूल तले दबे बहुजन नायक

कई मिथक में अपने समय का सामाजिक एवं ऐतिहासिक यथार्थ होते हैं। अनेक ऐतिहासिक पात्र मिथक बन जाते हैं। कुछ लोकोक्तियों या मुहावरों की शोभा बढ़ाते हैं तो कई बदनाम होकर लोकोक्तियों या मुहावरों में जिंदा रहते हैं

किसी व्यक्ति, समाज या देश की महत्वपूर्ण, विशिष्ट व सार्वजनिक घटनाओं, तथ्यों आदि का कालक्रम से विवरण इतिहास है। मिथक, प्रागैतिहासिक मनुष्य के सामूहिक स्वप्न हैं, जो किसी व्यक्ति के स्वप्न की भाँति अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट होते हैं। ऐसा माना जाता है कि मिथक केवल कल्पना पर आधारित होते हैं। किंवदंतियों से भरी परंपरागत किस्से-कहानियों और पुराख्यान से लेकर देवी-देवताओं की अविश्वसनीय कथाओं तक मिथकों का विस्तार है। बावजूद इसके, कई मिथक कोरी कल्पना या गप्पबाजी न होकर कल्पना की खोल में अपने समय का सामाजिक एवं ऐतिहासिक यथार्थ होते हैं। समय की रगड़ से कई ऐतिहासिक पात्र मिथक बन जाया करते हैं। मिसाल के तौर पर सुल्ताना डाकू या फिर गुंडा धुर। कई ऐतिहासिक पात्र लोकोक्तियों या मुहावरों की शोभा बढ़ाते हैं तो कई बदनाम होकर लोकोक्तियों या मुहावरों में जिंदा रहते हैं। मिसाल के तौर पर गंगू तेली या फिर गुरू घंटाल। सुल्ताना डाकू एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है परन्तु उसके सम्बन्ध में अनेक मनगढ़ंत  किस्से लोकमानस में प्रचलित हैं। इसी तरहए गुंडा धुर भी लोकमानस की याददाश्त में जिंदा है।

किस्सा सुल्ताना का

Sultana Dakuसुल्ताना डाकू इतिहास का सच है परन्तु उससे सम्बंधित अनेक मिथक फिल्मों, नौटंकियों और लोकगीतों में हैं। कल्पना की धुंध में सुल्ताना का वास्तविक जीवन लिपट गया है। अंग्रेजों, सेठों और सामंतों ने उसे डाकू कहा। जनता के लिए तो वह गरीबों का प्यारा सुलतान था। सुल्ताना नाम तो उसे हिकारत से देखने वालों ने उसे दिया। सुल्ताना पर शोध करने वाले सीमैप के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. एनसी शाह ने उसे मजबूत इरादे और उच्च चरित्र का इंसान कहा है।

सुल्ताना डाकू का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जनपद के सटे गाँव हरथला में हुआ था। वह जाति का भातू था। भातू एक खानाबदोश जाति है। सुल्ताना का ननिहाल काठ में था। किंतु अंग्रेजों ने भातुओं को काठ से नवादा में बसा दिया था। सुल्ताना के नाना नवादा में आ बसे और उसका का बचपन नवादा में गुजरा। जीते-जी किंवदंती बन गया था सुल्ताना। कहा जाता है कि वह अमीरों को लूटता था और गरीबों में बाँटता था। यह समाजवाद का उसका ब्रांड था। सभी जानते हैं कि वह हत्यारा नहीं था। उसने कहा भी है कि उसने कभी किसी की हत्या नहीं की। बावजूद इसके उसे एक मुखिया की हत्या के जुर्म में फाँसी हुई। 14 दिसंबर, 1923 को नजीबाबाद के जंगल में सुल्ताना को गिरफ्तार किया गया। उसकी गिरफ्तारी के लिए ब्रिटिश सरकार ने फ्रेड्रिक यंग के नेतृत्व में विशेष दल बनाया था। फ्रेड्रिक यंग इंग्लैण्ड के तेज-तर्रार पुलिस अधिकारियों में से एक थे। उस विशेष दल में प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट भी शामिल थे। जिम कार्बेट आयरिश मूल के भारतीय लेखक एवं दार्शनिक थे। वे नैनीताल के पास कालाढूंगी में रहते थे। वे आजीवन अविवाहित रहे और उनकी बहन भी अविवाहित थीं।

जिम कार्बेट ने अपनी पुस्तक ”माई इंडिया’’ में ”सुल्ताना : इंडियन रॉबिनहुड’’ नाम के अध्याय में उसकी जमकर प्रशंसा की है। इससे सुल्ताना के व्यक्तित्व को समझा जा सकता है। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं कि सुल्ताना की गिरफ्तारी में मदद करने वाले जिम कार्बेट ने उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की? इतना ही नहीं, जिस पुलिस पदाधिकारी फ्रेड्रिक यंग ने उसकी गिरफ्तारी की थी, उसी ने सुल्ताना के पुत्र और पत्नी को पुराने भोपाल में बेलवाड़ी के पास बसाया, बेटे को अपना नाम दिया और लंदन में पढ़ाकर आईसीएस अधिकारी बनाया। डॉ. एन. सी. शाह ने लिखा है कि जंगलों में सुल्ताना ने दो बार यंग और जिम कार्बेट की जिंदगी बख्शी थी। इससे डाकू सुल्ताना का उज्ज्वल चरित्र उजागर होता है। 1923 में फ्रेड्रिक यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार तक ताबड़तोड़ 14 छापे मारे थे। आखिरकार 14 दिसंबर, 1923 को सुल्ताना अपने खास साथी पीतांबर, नरसिंह, बलदेवा और भूरे के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। सुल्ताना पर नैनीताल की अदालत में मुकदमा चला। वह मुकदमा ”नैनीताल गन केस’’ के नाम से जाना जाता है। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सुल्ताना को आगरा के जेल में फाँसी दे दी गई।

सुल्ताना डाकू के जीवन और कार्यों को काव्य-नाटक में बांधने का श्रेय नथाराम शर्मा गौड़ और अकील पेंटर को है। नथाराम शर्मा गौड़ हाथरस के रहने वाले थे और उनकी पुस्तक का नाम है ‘सुल्ताना डाकू उर्फ गरीबों का प्यारा।’ अकील पेंटर ग्राम चांदन (लखनऊ) के थे और उनकी पुस्तक का नाम है ‘शेर-ए-बिजनौर: सुल्ताना डाकू।’ उत्तर प्रदेश और बिहार के कस्बों, मुफस्सल और गाँवों में शायद ही कोई ऐसा नाटक हो, जिसे इतनी लोकप्रियता मिली हो जितनी सुल्ताना डाकू के नाटकों को मिली।

गुंडा धुर की तलाश में

02-GundaDhurKiTalashMein backcoverवस्तुत: ”गुंडा’’ एक बहुजन नायक और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का नाम है, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इसीलिए ”गुंडा’’ शब्द का प्रयोग पहली बार अंग्रेजों ने ”बदमाश’’ के अर्थ में किया। एन्कार्टा डिक्शनरी के अनुसार, ”गुंडा’’ शब्द का प्रथम प्रयोग बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ था। इसके पहले इस शब्द का प्रयोग कहीं नहीं मिलता। ”गुंडा’’ आदिवासी मूल का शब्द है, जिसे अंग्रेजी शब्दकोश ने भी स्वीकार किया है।

इस योद्धा का पूरा नाम ”गुंडा धुर’’ था। 1910 में अंग्रेजों के खिलाफ छत्तीसगढ़ के बस्तर में ”भूमकाल’’ विद्रोह में इस ”गुंडा’’ वीर ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेजी शासन के दस्तावेजों में ”गुंडा धुर’’ को विद्रोही और ”गुंडा’’ (बदमाश, उद्दंडतापूर्वक आचरण करनेवाला) बतलाया गया है। अंग्रेजों की नजर में ”गुंडा धुर’’ की छवि उद्दंड और बदमाश की थी पर अपने देशवासियों की नजर में वे स्वतंत्रता सेनानी और वीर थे। कालेन्द्र सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की सुनियोजित रूपरेखा तैयार की गई थी। रानी सुबरन कुँवर ने क्रांतिकारियों की सभा में ”मुरिया राज’’ की स्थापना की घोषणा की। रानी के सुझाव पर वीर गुंडा धुर को ”भूमकाल’’ विद्रोह का नेता निर्वाचित किया गया। 1 फरवरी, 1910 को संपूर्ण बस्तर में अंग्रेजी दासता के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बज उठा।

आदिवासियों के इस वीर नायक पर नंदिनी सुंदर की पेंग्विन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित एक किताब आई है-”गुंडा धुर की तलाश में’’। लेखिका ने लिखा है कि जब वे गुंडा धुर के बारे में पूछते गाँव-गाँव घूम रही थीं तब उन्हें उनके सवालों के बहुत कम जवाब मिले। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य सरकार के आदिवासी कल्याण विभाग के अलावा किसी को भी उनके बारे में सटीक जानकारी नहीं थी। ‘सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनकी जो मूर्ति बनाई थी, मुझे उसमें विडंबना और आत्मसातीकरण तो नजर आया, लेकिन गुंडा धुर कहीं दिखाई नहीं दिया’, वे लिखतीं हैं। भारत के कोशकारों ने अंग्रेजों का अनुगमन करके ”गुंडा’’ का अर्थ ”बदमाश’’ कर दिया है। अब भारतीय कोशकारों की जिम्मेदारी है कि अंग्रेजों द्वारा प्रयुक्त ”बदमाश’’ के अर्थ में ”गुंडा’’ शब्द को डिक्शनरी से बाहर करके, ”वीर स्वतंत्रता सेनानी’’ के अर्थ में उसे प्रचलित करें। ”बदमाश’’ के अर्थ में ”गुंडा’’ शब्द एक बहुजन स्वतंत्रता सेनानी का अपमान है।

लोकोक्ति के गंगू तेली

यदि राजा भोज इतिहास का सच हैं तो गंगू तेली भी मिथक नहीं बल्कि ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। फर्रुखाबाद में नारायणपुर गढिय़ा ग्राम है। वहाँ एक बहुत बड़ा टीला है। आज भी वहाँ की जनता उसे ”गंगू तेली का टीला’’ कहती है। वहीं पर गंगू तेली का महल था। ग्राम गौसपुर में ”गंगुआ टीले’’ के नाम से मशहूर देवी का एक पुराना मंदिर है। सुना है कि ग्वालियर के तेली मंदिर का निर्माण भी इसी गंगू तेली की देखरेख में हुआ था। तेलंगाना के ब्राह्मणों से उस मंदिर का कोई खास संबंध नहीं है। अभिलेख साक्षी हैं कि मंदिर को तेलियों ने बनाया था।

गुरु घंटाल का सच

गुरु घंटाल बौद्ध संत थे। उनके सम्मान में गुरु पद्मसंभव ने 8वीं सदी में गुरु घंटाल मंदिर की स्थापना की थी। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले में है। ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ”गुरु घंटाल’’ शब्द का विरूपीकरण हुआ है। इसीलिए शब्दकोश में ”गुरु घंटाल’’ का अर्थ ”बड़ा धूर्त एवं चालाक’’ मिलता है। आर्य और द्रविड़ संस्कृति के आपसी टकराव के कारण भी कई शब्दों का अर्थ विकृत हुआ है, जिनमें एक शब्द ”पिल्ला’’ है। तमिल में ”पिल्ला’’ मनुष्य के बच्चे को कहा जाता है, जबकि आर्य भाषाओं में यह कुत्ते के बच्चे का बोधक शब्द है। ऐसे ही जैन और ब्राह्मण संस्कृति के आपसी टकराव के कारण ”जिन’’ का अर्थ ”भूत-प्रेत’’ हो गया है।

फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित

 

लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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