इन दिनों मैं एक किताब संपादित कर रहा हूं – ‘महिषासुर मूवमेंट -डीब्राह्मणायजिंग अ मिथ’। कुछ इतिहासकारों ने अपनी किताबों में संकेत दिये हैं कि महिषासुर भारत के बहुजन समुदायों के मिथकीय जननायक थे। डी.डी कोसांबी ने उनका क्षेत्र बुंदेलखंड का महोबा बताया है। मैं अपनी उपरोक्त किताब के लिए शोध के सिलसिले में महिषासुर की तलाश में गत 2 अक्टूबर, 2015 को महोबा पहुंचा। महोबा में महिषासुर की स्मृतियां, लोकपरंपराओं में अब भी जीवंत हैं। महिषासुर को वहां मैकासुर, कारस देव, ग्वाल बाबा आदि नामों से जाना जाता है। महोबा क्षेत्र के लगभग हर गांव में उनका है। उनकी मूर्तियां नहीं होतीं, मिट्टी के टीले होते हैं। ब्राह्मण-पंरपरा केविपरीत, महिषासुर मंदिर में नहीं निवास करते, बल्कि खुले आसमान के नीचे उनका चबूतरा होता है।
देश के लगभग सभी हिस्सों में महिषासुर से जुडी पंरपराएं मिलती हैं। इधर के वर्षों में बहुजन समुदाय ने अपने मिथकों और अपनी परंपराओं को पुनजीर्वित करने की कोशिशें शुरू की हैं। मैसूर में इस वर्ष लेखकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक आयोजन कर महिषासुर को उनका खोया हुआ गौरव वापस करने की शुरूआत की है। उत्तर भारत में भी अनेक जगह महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन हुए हैं। फारवर्ड प्रेस के आगामी अंकों में इन आयोजनों से संबंधित समाचार तो हम प्रकाशित करेंगे। अभी देखिए महोबा में मौजूद महिषासुर को!
बुंदेलखंड के महोबा से 70 किमीदूर चौका-सोरा गांव स्थित भारतीय पुरात्तव विभाग द्वारा संरक्षित है महिषासुर स्मारक मंदिर। पुरात्तव विभाग ने इसका निर्माण काल निर्धारित नहीं किया है। लेकिन इसकी प्राचीनता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये साइनबोर्ड के अनुसार इसी क्षेत्र में स्थित खजुराहो के मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 5 हजार रूपये अथवा तीन माह का कारावास (अथवा दोनों), जबकि महिषासुर स्मारक मंदिर को क्षति पहुंचाने पर जुर्माना है – 1 लाख रूपये अथवा दो वर्ष की जेल (अथवा दोनों)। ध्यातव्य है कि खजुराहो के मंदिर लगभग 1000 वर्ष पुराने हैं।
महोबा के कीरत सागर के निकट स्थित ‘मैकासुर’ (महिषासुर) का एक स्थान है। लोकमान्यता है कि महिषासुर बीमार पशुओं को चंगा कर देते हैं। पशु का पहला दूध भी उन्हें ही अर्पित किया जाता है। महोबा की पशुपालक व कृषक जातियां महिषासुर को अपना पूर्वज मानती हैं।
महोबा से लगभग 30 किलोमीटर दूर कुलपहाड क्षेत्र के मोहारी गांव में है मैकासुर मिट्टी का स्थल। इसके ठीक बगल में ग्रामीणों ने उनका एक पक्का चबूतरा भी बना दिया है। परंपरागत रूप से महिषासुर की मूर्तियां नहीं होतीं हैं। मोहारी गांव में नवनिर्मित चबूतरा पर भी उनकी मूर्ति नहीं है। चबूतरा पर उनकेसंगी भैंस और उनके दूसरे रूप ‘कारस देव’ का संगी मोर मौजूद हैं।
मैकासुर मंदिर के पुजारी रामकिशोर पाल
गोखार पहाड (नाथपंथ के प्रसिद्ध कवि गोरखनाथ व उनके शिष्यों की साधना स्थली), महोबा के पास स्थित मैकासुर चबूतरा के पास स्थानीय शंकर मंदिर के पुजारी घनश्याम दास त्यागी से बातचीत करते प्रमोद रंजन। त्यागी बताते हैं कि इस क्षेत्र के बहुजन समुदायों में महिषासुर की व्यापक जन मान्यता है। इस क्षेत्र में महज 25-30 वर्ष पहले तक दुर्गोत्सव नहीं मनाया जाता था। यहां भाद्रपद की षष्ठी (छठवें दिन) को महिषासुर की विशेष पूजा हाती है। जिसमें ‘भाव खेला’ जाता है तथा उन्हें दूध से बने पकवान, नारियल आदि अर्पित किये जाते हैं।
गोखार पहाड पर स्थित महिषासुर का मिट्टी का स्थान
महोबा के निकट रामनगर, चरखारी में आबादी से दूर मैकासुर एक स्थल
फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2015 अंक में प्रकाशित