मराठी साहित्य की एक प्रमुख विधा है पोवाडा जिसे गोंधल (गोंधिया), दलित जाति, के लोग गाते थे पर आगे चलकर, शिवाजी के बाद, सभी जातियों के लोगों ने इसे अपना लिया। युद्धों का वर्णन पोवाडा गायकों का प्रमुख विषय होता था जिसका वे बेहद सजीव और ओजपूर्ण वर्णन करते थे। वह भीतरी कलहों और बाहरी आक्रमणों का काल था। अत: अपने आश्रयदाताओं को उनकी पूरी ताकत से युद्ध लडऩे के लिए प्रेरित करना उस काल के कवि का प्रमुख कर्तव्य-सा बन गया था। लेकिन महात्मा फुले ने पोवाडा का जनजागृति के लिए इस्तेमाल किया। आजादी की लड़ाई के दिनों में और आजादी के बाद पोवाडा क्रमश: राष्ट्रीय आन्दोलन और जनान्दोलनों का गीत बन गया।
पोवाडा का प्राचीन मराठी भाषा में अर्थ होता है गुणगान करना। मराठी में पोवाड़ा गाने वालों को शाहिर कहा जाता है। शाहिर शब्द उतना ही पुराना है जितनी कि मराठी संस्कृति। शाहिर साहित्य को मराठी कविताओं का उदयकाल कहा जाता है।
पोवाड़ा को समकालीन मराठा इतिहास का विश्वसनीय साक्षी माना गया है। यूं तो पोवाड़ा का इतिहास 17वीं शताब्दी से शुरू होता है पर शिवाजी के राज्याभिषेक के पहले, यादव काल में ज्ञानेश्वरी में जो भक्ति गीत गाए जाते थे, वे पोवाड़ा का ही एक रूप थे। शिवाजी महाराज के काल में क्लासिक पोवाड़ा के बीज बोए गए। शाहिर साहित्य की परम्परा की शुरूआत छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल (1630-1680) में हुई। शिवाजी के काल में प्रथम पोवाड़ा ‘अफजल खानाचा वध’(अफजल खान का वध) 1659 में अग्निदास द्वारा गाया गया, जिसमें शिवाजी द्वारा अफजल खान के वध का वर्णन किया गया था। यह महाराष्ट्र के गजट में दर्ज है। दूसरा महत्वपूर्ण पोवाडा था तानाजी मालसुरे द्वारा सिंहगढ़ पर कब्जा करने के बारे में, जिसे तुलसीदास ने गया। उतना ही महत्वपूर्ण है बाजी पासालकर के बारे में यमजी भास्कर द्वारा गाया गया पोवाड़ा। शिवाजी के अनेक पोवाड़ा गाए गए , जैसे शिवाजी अवतारी पुरूष, शिव प्रतिज्ञा, प्रतापगढचा रणसंग्राम, शाहिस्ताखान चा पराभव, शिवाजी महाराज पोवाड़ा, छत्रपति राजमाता जीजाबाई, शिवरांयाचे पुण्य स्मरण, सिंहगढ़, शिवराज्याभिषेक, समाजवादी शिव छत्रपति, शिव-गौरव, शिवदर्शन, पुरोगामी शिवाजी, शिवसंभव, शिवकाव्य इत्यादि।
इसके बाद पेशवाकाल (1762-1812) के गायक रामजोशी थे। अनंतफादी (1744-1819), होनाजी बाला (1754-1844) व प्रभाकर (1769-1843) ने भी कई पोवाड़ा गाए। आगे चलकर यह कला पिछड़ गई पर लोककला बतौर, मराठी साहित्य के विकास में पोवाड़ा की भूमिका बनी रही।
महात्मा जोतिबा फुले ने छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि ढूंढ निकाली और 1869 में उन्होंने पूना में पहली बार शिवाजी महाराज की जयंती मनाई। उन्होंने ही शिवाजी की समाधि की मरम्मत करवाई तथा अपनी पहली पुस्तक लिखी ‘बैलेड ऑन शिवाजी’ (शिवाजी की महागाथा के गीत), जिसे अंग्रेजों ने रिकार्ड किया। फुले को यह अहसास था कि इतिहास के साक्षी के रूप में पोवाड़ा का बहुत महत्व है। गीत और गद्य दोनो होने के कारण पोवाड़ा के माध्यम से मनोरंजन और प्रचार दोनों संभव हैं। फुले ने अशिक्षित जनता को पोवाड़ा के माध्यम से शिवाजी के कार्यों के बारे में बताया। उन्होंने मात्र व्यक्ति-आधारित पोवाड़ा नहीं लिखे बल्कि उपमा देकर लिखा। शिवाजी के कार्यों से प्रेरणा लेने के लिए उनके बारे में सरल पोवाड़ा के माध्यम से अशिक्षित जनता को जानकारी देते थे।
बाद में ब्रिटिश राज के खिलाफ भी कई पोवाड़ा लिखे गए। यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि ब्रिटिशों ने ही पोवाड़ा को संग्रहित करने का काम भी किया। सबसे बड़ा उदाहरण हैरी अर्बुथनोट अक्वर्थ का है। उन्होंने शंकर तुकाराम शालीग्राम के साथ मिलकर करीब 60 पोवाडा इकठ्ठा किए. जिन्हें 1891 में ‘इतिहास प्रसिद्ध पुरूषांची वा स्त्रियांचे पोवाड़ा’ नाम से प्रकाशित किया गया। उसके बाद अक्वर्थ ने 1894 में ‘बैलेड ऑफ़ मराठा’ नाम से पुस्तक लिखी। अंग्रेजों ने शाहू महाराज के समय के 5-6 पोवाड़ा खोजे, 150 पोवाड़ा पेशवा के समय के तथा ब्रिटिश काल के 150 पोवाड़ा मिले। 1947 तक अंग्रेज़ एक हजार से ज्यादा पोवाड़ा इकठ्ठा कर चुके थे।
कई शाहिरों के नाम पता नहीं चले। डाक्टर एसपी गोस्वामी ने शुरूआती पोवाड़ा प्रकाशित किए, जिनमें राव बर्वे ज्ञानप्रकाश के पोवाड़ा शामिल थे। इन पोवाड़ा में ब्रिटिश राज के खिलाफ आक्रोश प्रकट हुआ था। यशवंत नरसिंहा केलकर ने तीन भागों में पोवाड़ा प्रकाशित किये, जिससे पोवाड़ा विधा को आगे बढ़ाने में मदद मिली। गोंधळ जाति ने महाराष्ट्र के इतिहास को बचाया तो पोवाड़ा को संकलित व प्रकाशित कर इस मौखिक परंपरा को विलुप्त होने से बचाया गया।
शाहिर साहित्य ने कई महान लेखकों को पैदा किया, जिनमें श्रीपाद महादेव वर्दे, एमवी धोंध तथा अन्य शामिल थे। वर्दे ने कई पोवाडा एकत्रित कर उन्हें ‘विविधवार्ता’नाम से प्रकाशित किया। उन्होंने ‘मराठी कविताचा उषाकाल किंवा मराठीं साहित्य’ नाम से पुस्तक भी लिखी। एम एन सहस्त्रबुद्धे का ‘मराठी शाहिरी- वागंमय’1950 के दशक में मुंबई मराठी साहित्य संघ ने प्रकाशित किया। इन सभी लेखकों ने पोवाड़ा को संग्रहित कर प्रकाशित करवाकर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1956 में संयुक्त महाराष्ट आंदोलन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने शाहिर अमर शेख अन्ना भाऊ साठे तथा गव्हाणकर को जन्म दिया। सरकार की गलत नीतियों व निर्णयों को उजागर करने के लिए इन सभी शाहिरों ने पोवाड़ा का उपयोग किया। यह नए प्रकार के क्रांतिकारी पोवाड़ा थे, जो जनजागृति पैदा कर रहे थे। ये पोवाड़ा न तो धार्मिक थे और ना ही राजाश्रित बल्कि ये जनता की मांगों को सामने ला रहे थे। ये मजदूरों की समस्यायों व अकाल का चित्रण थे। वे गरीबों की जुबान थे। वे आधुनिक जमाने की सामाजिक समस्याओं का चित्रण कर रहे थे। शाहिर समाज में व्याप्त शोषण, अन्याय व अत्याचार के बारे में पोवाड़ा गा रहे थे। अब पोवाड़ा मात्र इतिहास का वर्णन नहीं रह गया था बल्कि सामान्य जन की समस्याओं से जुड़ गया था। आज विषयों की विविधता पोवाड़ा में दिखाई देती है।
1980 के दशक में विलास घोगरे और जी संभाजी भगत ने महाराष्ट्र के अन्नाभाऊ साठे तथा अमर शेख की परंपरा को आगे बढ़ाया। वामपंथी आंदोलनों की ये लोग हुंकार बने। मजदूरों-किसानों की समस्याओं को पोवाड़ा का विषय बनाया। आज संभाजी भगत साम्रज्यवादी ताकतों, धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्मादों व जाति व्यवस्था के विरूद्ध तथा नवजनवादी सांस्कृतिक एकता के लिए व आंबेडकरवादी, माक्र्सवादी विचारधारा को फैलाने के लिए पोवाड़ा गाते हैं। महाराष्ट्र के वे सबसे बड़े लोक शाहिर है। ‘शिवाजी अण्डरग्राउण्ड इन भीमनगर मोहल्ला’ नाटक पोवाड़ा पर आधारित हैए जिसके तीन सौ से ज्यादा शो हो चुके हैं।
फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित
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