दक्षिणी दिल्ली के नानकपुरा में एक सभा को संबोधित करते हुए 30 नवम्बर, 2013 को मायावती ने सर्व समाज कल्याण की बात की थी। दिसम्बर 2015 में उन्होंने एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग की अपनी योजना के अंतर्गत गरीबी के आधार पर आरक्षण की वकालत कर दी। उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह बाबा साहब का सपना सच्चे अर्थों में पूरा होगा।
इसी ‘समीक्षा’पर आधारित रही है, चाहे वह कर्पूरी ठाकुर के समय का ‘नीतीश फार्मूला’हो या फिर ऊंची जाति आयोग (बोलचाल की भाषा में सवर्ण आयोग)!
क्या लोग यह भूल गये हैं कि नीतीश ने अपनी पहली पारी में बीजेपी के साथ मिलकर आरक्षण की समीक्षा करके ही लालू प्रसाद के वोट बैंक में सेंध लगाई थी। महादलित जैसे शब्द इसी समीक्षा की उपज थे।
महादलित आयोग को दलितों के बीच पिछड़े रह गए समाज के सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना था और उनके जीवन में बेहतरी कैसे आए, इसके लिए सुझाव देना था। उसी के साथ यह नया शब्द आया महादलित। महादलित समाज को नीतीश की तरफ से सुविधाएं भी मिली। अब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद साथ आ गए हैं।
लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछड़ों के बीच अपनी साख मजबूत करने के बाद अब नीतीश कुमार सवर्णों को लुभाने की योजना पर काम कर रहे हैं।
नीतीश का सवर्ण वोट बैंक
बंदोपाध्याय आयोग द्वारा भूमि सुधार पर दिए गए सुझाव के बाद सवर्णों के बीच नीतीश को लेकर काफी गुस्सा था। इसे कम करने के लिए सवर्ण आयोग के गठन का वादा नीतीश ने पिछले विधानसभा चुनाव में किया था। नीतीश ने कहा था कि पिछड़े सवर्ण परिवारों की बेहतरी के लिए उनकी सरकार कुछ योजना लेकर आएगी। परन्तु यह भी सच है कि 2015 के चुनाव में भाजपा गठबंधन से लेकर महागठबंधन तक कोई सवर्ण आयोग की रिपोर्ट की चर्चा करने का साहस नहीं कर पाया।
लेकिन यदि नीतीश कुमार द्वारा चला जाने वाला सवर्ण आयोग का कार्ड चल गया तो भारतीय जनता पार्टी के पारंपरिक वोटर बड़ी संख्या में नीतीश कुमार के साथ मिल सकते हैं, जिसका लाभ 2019 और 2020 के चुनाव में नीतीश को मिलेगा। पारंपरिक वोट छीनने से बिहार में भारतीय जनता पार्टी को नुकसान भी होगा।
तीन प्रमुख आयोग
सवर्ण आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा से पहले तीन पुराने आयोगों और उनके सुझावों के संबंध में हमें जानना चाहिए। इस क्रम में सबसे पहला नाम है काका कालेलकर आयोग का। इसका गठन 1953 में हुआ था। आयोग ने पिछड़ेपन की पहचान के लिए चार श्रेणियां बनाई। पहली भारत की जातीय व्यवस्था में निचले पायदान पर खड़े जातियों की सामाजिक स्थिति। दूसरी शिक्षा में पिछड़ापन। तीसरी सरकारी सेवा में किसकी कितनी भागीदारी और चौथी व्यापार-वाणिज्य और उद्योग में किस जाति का कितना हिस्सा।
आयोग ने जाति को पिछड़ेपन को मापने का एक मानक माना। आयोग के अनुसार जाति को मानक मानने से समाज के सबसे पिछड़े वर्ग तक मदद पहुंचने की संभावना सबसे अधिक रहती। इसलिए आरक्षण में उन जातियों को प्राथमिकता देने की वकालत की गई, जो पारम्परिक तौर पर पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखते थे।
एक आयोग बिहार सरकार ने 1971 में बनाया। जिसके अध्यक्ष मुंगेरीलाल थे। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1979 में पेश की। उसने अपनी रिपोर्ट में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई धर्म में विश्वास रखने वाले 128 पिछड़ी जातियों की पहचान की। पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए जो मापदंड तय किए गए, वे जातियों की सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति, सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व, व्यापार और उद्योग में भागीदारी थे। आयोग ने नौकरियों में 26 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थाओं में 24 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री कपूर्री ठाकुर ने आयोग की सिफारिश को मानते हुए ओबीसी के लिए 8 प्रतिशत, बीसी के लिए 12 प्रतिशत, एससी के लिए 14 प्रतिशत, एसटी के लिए 10 प्रतिशत, महिलाओं के लिए 03 प्रतिशत और आर्थिक आधार पर पिछड़ों के लिए 03 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी।
वैसे इस देश में सबसे अधिक चर्चा हुई मंडल आयोग की। 1979 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बना। 1980 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी। आरक्षण के लिए आयोग ने तीन मापदंड तय किए। सामाजिक (पिछड़ी जातियों की स्थिति, जीवन जीने के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भरता, कम उम्र में बेटियों की शादी और महिलाओं की कामकाज में अधिक भागीदारी), शिक्षा (बच्चों का स्कूल में नामांकन न कराना, बीच में स्कूल छोडऩा और मेट्रिक पास करने वालों की दर) और आर्थिक (कम संपत्ति, कम आमदनी, पीने के स्वच्छ पानी का अभाव व ऋणग्रस्तता)।
सवर्ण आयोग की अनुशंसाएं
उपरोक्त आयोगों की ही कडी में बिहार सरकार द्वारा वर्ष 2011 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश डीके त्रिवेदी की अध्यक्षता में बनाए गए सवर्ण आयोग को भी देखना चाहिए। इसके पहले बिहार सरकार ने एशियन डेवलपमेन्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट (आद्रि) द्वारा एक सर्वेक्षण करवाया।
इस अध्ययन में निकल कर आए कई तथ्य रोचक हैं। अध्ययन के अनुसार पिछड़ी जातियों में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की ऐतिहासिक वजह थी लेकिन पिछड़ापन सिर्फ पिछड़ी जातियों तक सीमित नहीं है। सवर्णों में भी एक वर्ग इस पिछड़ेपन का शिकार रहा है। इसी बात को ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग बनाने का फैसला लिया जो अपने तरह का पहला आयोग था।
अध्ययन के लिए हिन्दुओं में ब्राहमण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ को चुना गया। मुसलमानों में से शेख, सैयद और पठान को शामिल किया गया।
सवर्ण आयोग का उद्देश्य था, सवर्णों के बीच शैक्षणिक और आर्थिक स्तर पर पिछड़े वर्ग की पहचान करना, सवर्णों के बीच वर्ग विभेद को समझना और उनके पिछड़ेपन की वजह की पहचान करना।
इस अध्ययन से यह सामने आया कि कायस्थ, भूमिहार और सैयद अपने अपने समूह की जातियों की तुलना में अधिक पैसे वाले हैं और अपने बच्चों की पढ़ाई पर अधिक पैसे खर्च करते हैं।
आयोग ने बताया कि शहर हो या गांव, सवर्णो को चिकित्सा के लिए यूनानी और आयुर्वेद से अधिक एलोपैथिक पद्धति पर भरोसा है। अध्ययन में यह दिलचस्प जानकारी सामने आयी कि गांवों में जहां सवर्णों की सरकारी अस्पताल पर निर्भरता न के बराबर है, वहीं शहरों में यह निर्भरता अधिक पाई गई।
गांवों में सवर्ण हिन्दुओंं के बीच 20.20 प्रतिशत परिवारों ने झाड़-फूंक करवाना स्वीकार किया, वहीं गांव में 35 प्रतिशत मुसलमान झाड़-फूंक में यकीन रखते हैं। शहरों में स्थिति गांव से थोड़ी बेहतर है। सवर्ण हिन्दूओं के 12.7 प्रतिशत और सवर्ण मुसलमान परिवारों में से 24.2 प्रतिशत झाड़-फूंक में यकीन रखते हैं।
गांव में 35.3 प्रतिशत सवर्ण हिन्दू कर्ज में डूबे हुए पाए गए। अशराफ (सवर्ण) मुसलमानों में यह प्रतिशत 26.5 प्रतिशत है। सबसे अधिक कर्ज भूमिहारों पर पाया गया, जिनके संबंध में ऊपर बताया गया कि वे सबसे अधिक सम्पन्न हैं। यदि भूमिहार परिवारों पर कर्ज का औसत निकाला जाए तो प्रति परिवार पर 1.03 लाख रुपए का कर्ज बैठता है। इस रिपोर्ट में बारीकी के साथ हिन्दू-मुस्लिम सवर्णों की खराब होती स्थिति का अध्ययन किया गया है। बिकती हुई जमीन और पिछड़ते हुए समाज का चित्रण इस अध्ययन में किया गया है।
इस अध्ययन में सरकार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी है। मसलन राज्य सरकार को सवर्णो की मदद के लिए कुछ विशेष कदम उठाने चाहिए। उनके लिए कुछ कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की आवश्यकता है।
कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति तक पहुंचे इसलिए सरकार को सवर्णों के लिए एक आय वर्ग की सीमा तय करनी चाहिए, जिसके अन्तर्गत आने वाले सवर्ण परिवारों को ही योजनाओं का लाभ दिया जाना चाहिए। प्रथम श्रेणी से मैट्रिक पास करने वाले बच्चों को प्रोत्साहन योजना के अन्तर्गत जो स्कॉलरशिप दी जाती है, उसे सवर्ण बच्चों के लिए भी लागू कर दिया जाना चाहिए। इसके अलावा यह अध्ययन सरकार से अनुशंसा करता है कि सवर्णो के बीच आर्थिक पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले परिवारों के संबंध में गम्भीरता से विचार करना चाहिए, जिससे उन तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंच सके।
सवर्ण आयोग द्वारा की गयी अनुशंसाओं को नीतीश सरकार अमल लाएगी या नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मोहन भागवत को लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह घेर लिया क्या उसी सवाल पर वे अपने सहयोगी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को घेरने की हिम्मत जुटा पाएंगे?
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )