बिहार के मधेपुरा से राजद के टिकट पर लड़कर शरद यादव जैसे दिग्गज को शिकस्त देकर लोकसभा पहुंचे राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव अपनी अलग तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं। पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव से पहले राजद छोड़कर इन्होंने जन अधिकार (लोकतांत्रिक) पार्टी का गठन किया। युवाओं को अपनी राजनीति का केंद्र मानने वाले पप्पू यादव विवादास्पद भी रहे हैं। खासकर वामपंथी नेता अजीत सरकार की हत्या के आरोप में इन्हें लंबे समय तक तिहाड़ जेल में भी रहना पड़ा। लेकिन अंततः न्यायालय ने इन्हें निर्दोष माना और वे एक बार फ़िर से सक्रिय हुए।
ब्राह्मणवाद और बिहार में उच्च वर्गों के खिलाफ़ खुलकर बोलने वाले पप्पू यादव ने फ़ारवर्ड प्रेस के लिए नवल किशोर कुमार के साथ खुलकर बातचीत की :
पप्पू जी क्या आपको नहीं लगता है कि आज देश में राजनीति के मायने बदल गये हैं। बुनियादी सवालों के बदले धर्म आदि मुद्दों को लेकर राजनीति की जा रही है। संस्कृति को भी राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा है। आप क्या कहेंगे?
देखिए, आपने सही कहा कि राजनीति के मायने बदल गये हैं। लेकिन आप जिस संस्कृति की बात कर रहे हैं, पहले उसी पर चर्चा हो जाय। जहां तक मेरा मानना है कि भारत की संस्कृति ही सभी धर्मों और वर्गों को साथ लेकर चलने की रही है। यहां तक कि वैदिक ग्रंथों में वर्णित संस्कृति की परिभाषा भी यही है। लेकिन कुछ लोग, जो समाज में मुट्ठी भर हैं, वे समाज को बांटकर राज करते आ रहे हैं। रहा सवाल धर्म का तो मेरा तो स्पष्ट मानना है कि धर्म असल में कुछ और नहीं बल्कि मनुष्य के शोषण का एक साधन मात्र है। हमारा देश तो ॠषियों-मुनियों, सूफ़ी संतों और बाबाओं का देश है। जिन्हें मैं बाबा कह रहा हूं वे आजकल टेलीविजन चैनलों पर नजर आने वाले सेल्समैन टाइप के बाबा नहीं हैं।
आजकल खाने-पीने से लेकर भाषा आदि को भी धर्म से जोड़ा जा रहा है?
देखिए, मेरा तो स्पष्ट मानना है कि खानपान व्यक्तिगत अभिरुचि और प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों के आधार पर तय होता है। इसमें धर्म कहीं है ही नहीं। मांस-मछली पहले राजा लोग नहीं खाते थे। वे इसे तामसी भोजन मानते थे। यह तो उनका आहार था, जो गरीब थे। एक ऊंट को काट पूरा गांव खा जाता था। इसी प्रकार कुत्ते, बिल्ली, गाय, खरगोश, हिरण जिसे जो उपलब्ध हुआ, उसने वह खाया। किसी भी धर्म में नहीं लिखा है कि क्या खाना है और क्या नहीं खाना है। यह सब समाज को तोड़ने की साजिश है। मैं जो कह रहा हूं, वह सब इतिहास में लिखा है। जाने वे लोग कैसे हैं बेवकूफ़ जो इतिहास पढते ही नहीं और समाज को बांटने के लिए तरह-तरह के पाखंड करते हैं।
कुछ लोग कह रहे हैं कि वंचित वर्गों के युवाओं द्वारा जो लड़ाई लड़ी जा रही है, उसके दूरगामी परिणाम सामने आयेंगे।
वंचित तबके का कौन युवा लड़ रहा है। भाई साहब, हम लोग जिस समाज से आते हैं, वह संघर्ष कर ही नहीं सकता है। इस तबके लोगों के पास इतना अभाव है कि वे लड़ने की सोच भी नहीं सकते हैं। कभी इलाज के नाम पर तो कभी घर की छत बनाने, बाढ में घर को बचाने, तो कभी बेटी की शादी करने के लिए पूरा अस्तित्व दांव पर लगाना पड़ता है। आप जो कह रहे हैं, वह महज आईवाश है और कुछ भी नहीं?
रोहित बेमुला द्वारा खुदकुशी को लेकर भी कहा जा रहा है कि मरकर भी उसने वंचितों के संघर्ष की दशा और दिशा दोनों बदल दी। आप क्या कहेंगे?
देखिए रोहित बेमुला ने क्या किया। मेरे हिसाब से उसने वंचित समाज को जागरुक बनाने के लिए कुछ भी नहीं किया। असल सवाल किसी एक रोहित बेमुला का नहीं है। बड़ी संख्या में नौजवान हैं जो रोहित बेमुला से अधिक दुख-तकलीफ़ झेल रहे हैं। मैंने पहले ही कहा कि अभावग्रस्त आदमी कोई क्रांति नहीं कर सकता है।