फारवर्ड प्रेस के आठ वर्षों के छोटे परंतु घटनापूर्ण जीवन में कई ऐसे मौके आए जब मुझे लगा कि या तो अर्थाभाव या मेरे स्वस्थ्य या अन्य किसी कारण से यह बंद हो जाएगी। परंतु हर बार हमने स्वयं अपने आप को, हमारे अनेक शुभचिंतकों को और हमारे चंद दुश्मनों को चकित किया – विशेषकर, सन 2013 में, जब मेरा स्वास्थ्य बहुत खऱाब हो गया था और जब मुझे बार-बार ऐसा लगता था कि मेरा और पत्रिका का अंत निकट है। जब भी एफपी को अंतिम बार प्रेस में भेजने या एफपी की छठवीं वर्षगाँठ के ‘उत्सव’ में उसे श्रद्धांजलि देने के बारे में सोचता था, मेरा कलेजा मुंह को आ जाता था। यह सचमुच अजीब हैं कि जिस समय हम एफपी की सातवीं वर्षगाँठ मना रहे होते, तब हम उसे अंतिम बार प्रेस में भेज रहें हैं। परंतु हम उसे मृत्यु की गोद में सुला नहीं रहे हैं। उसकी आत्मा, मुद्रित संस्करण का शरीर छोडऩे से पहले ही, इंटरनेट की दुनिया में पुनर्जन्म ले चुकी है। एक जून को, जब यह अंतिम अंक बाज़ार में पहुंचेगा, एफपी वेब पत्रिका के रूप में आ चुकी होगी.
अब, जब कि यह मौका आ ही पहुंचा है, मैं बहुत शांति का अनुभव कर रहा हूँ। मेरे मन में मृत्यु के प्रति आक्रोश नहीं है, जो कवि डेलेन थॉमस की अपने मरणासन्न पिता को समर्पित प्रसिद्ध कविता में अभिव्यक्त होता है: ‘डू नॉट गो जेंटल इनटू डेट गुड नाईट; रेज, रेज अगेंस्ट द डाईंग ऑफ़ द लाइट’ (उस रात में शांति से न जाओ, मरते हुए प्रकाश के विरुद्ध आक्रोशित रहो)। नहीं, हमारे निष्ठावान पाठक, एफपी नर्म तेवरों की रात में नहीं जा रही, जहाँ ब्राह्मणवादी अधिपति उसे निर्वासित कर देना चाहते हैं। बल्कि जिसका सर काट कर उसे मारने की कोशिश की गई है, उसके (यूनानी मिथकीय हायड्रा की तरह) अनेक सर उग आएंगे और संघर्ष जारी रहेगा।
एफपी के प्रति लोगों ने जो भाव व्यक्त किए हैं, उन्हें पढ़कर मेरा गला भर आया। एफपी ने व्यक्तियों, समूहों और बहुजन समुदायों पर कितना गहरा असर डाला, यह जानकर मेरे मन में भावनाओं का ज्वार उमडऩा स्वाभाविक था। मेरा मन हमारे असंय शुभचिंतकों के प्रति कृतज्ञता भाव से भर गया। उनमें से केवल कुछ के विचार आप इस अंक में पढ़ेगें। वेब पर हम लेखकों, पाठकों और अन्यों के संस्मरणों और पत्रिका के बारे में उनकी राय का प्रकाशन जारी रखेंगे।
प्रमोद रंजन, मेरी पत्नी डॉ. सिल्विया फर्नांडिस कोस्का और मैंने इस अंक में अपने-अपने संस्मरण लिखे हैं। हम में से हरेक केवल कुछ ही नामों का उल्लेख कर सका है। परंतु उन सबमें से यदि मैं एक नाम चुनना चाहूं तो वह होगा बिहार के सासाराम के डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का। वे ही सबसे ज्यादा दुखी भी नजऱ आ रहे हैं। एक बार फारवर्ड प्रेस परिवार का सदस्य बनने के बाद, वे उसके प्रति जबरदस्त वफादार रहे। बहुजन साहित्य व भाषाविज्ञान पर केंद्रित कई आलेखों के अतिरिक्त, उन्होंने सासाराम में फारवर्ड प्रेस पाठक क्लब की स्थापना की और एफपी में सर्वश्रेठ लेखन करने वाले ओबीसी समुदाय के सदस्य के लिए अपने धन से एक पुरस्कार की स्थापना भी की। हमारे पास उनका धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं हैं। हम उन्हें कितना भी बड़ा समान दें, वह प्रतीकात्मक ही होगा।
प्रो सिंह और अन्य लोगों, जो फारवर्ड प्रेस के मुद्रित संस्करण के अवसान पर शोकग्रस्त हैं, से मैं केवल यही कहना चाहूँगा कि वे माध्यम का शोक मना रहे हैं, संदेश का नहीं- वे फारवर्ड प्रेस के शरीर का शोक मना रहे हैं, उसकी आत्मा का नहीं। क्या कोई एक हाथ से ताली बजा सकता है? क्या कोई एक पंख से उड़ सकता है? एफपी अब केवल मुद्रित न रहकर, मुद्रित और डिजिटल दोनों बनने जा रही है; यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक प्रजातंत्र का आगाज मुद्रित शब्द से ही हुआ। डिजिटल माध्यम विचारों तक प्रजातांत्रिक पहुँच को बढ़ाएगा और विचार-विनिमय को भी। अब हम उन पहलुओं की भी पड़ताल कर सकेगें जो मुद्रित स्वरुप में नहीं कर सकते थे। अगर आप के मन में भी मिश्रित भाव हैं तो मैं इसे समझ सकता हूँ।
परंतु जैसा कि एक अमरीकी हास्य लेखक व उपन्यासकार ने उस पत्रकार से कहा था, जो इन अफ वाहों का सत्य पता लगाने के लिए गया था कि वे मृत्युशैया पर है, ‘मेरी मृत्यु की रपट अतिशयोक्तिपूर्ण थी’।
(फारवर्ड प्रेस के जून, 2016 अंक में प्रकाशित )