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जब स्वप्न बन जाते हैं वैध वीजा

मेरे लिए यह एक ईश्वरीय प्रेरणा ही थी कि मैं भारत लौटूं और मूक बहुजन बहुसंख्यकों को मंच उपलब्ध कराने के लिए एक द्विभाषी (अंग्रेजी व हिन्दी) पत्रिका शुरू करूं, जिसका विशेष फोकस उन किसानों और शिल्पकारों पर हो, जो ओबीसी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं और जिनकी कोई आवाज ही नहीं है

BAMCEF_2009 035
एक कार्यक्रम को संबोधित करते आयवन कोस्का

मैं नागरिक हूं,

भविष्य नाम के एक देश का,

जहां स्वप्न होते हैं वैध वीजा,

और पुराने दिनों की याद होती है

अतीत नामक दूसरे देश की

भारत में पांच साल पत्रकारिता करने के बाद, जनसंचार में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए एक फेलोशिप पर मैं अमेरिका चला गया। तब मैंने एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘एट होम एब्राड’ (विदेश के घर में)। उस कविता की मूल आत्मा, उन पंक्तियों में है, जिन्हें मैंने ऊपर उद्धृत किया है। यह कविता बाद में ‘पीईएन इंडिया’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। जब मैं अमेरिका के लिए रवाना हुआ, तब मेरी आयु 25 वर्ष थी और भारत में तब आपातकाल समाप्त ही हुआ था। मेरा और मेरे फोटो पत्रकार साथी महेन्द्र सिंह राठौर का स्वप्न था कि हम भारत लौटकर, देश की पहली फोटो-पत्रकारीय पत्रिका शुरू करें, कुछ-कुछ ‘लाईफ’ और ‘लुक’ की तरह। परंतु फिर मेरी जिंदगी एक अलग दिशा में चली गई और कुछ सालों बाद यह स्वप्न दफ न हो गया। और मैं एक दर्जन से अधिक सालों तक उत्तरी अमेरिका में जनसंचार व प्रबंधन सलाहकार के रूप में काम करता रहा।

सन् 1992-93 में, जब मैं लघु कथाओं की एक किताब का लेखन शुरू करने के इरादे से भारत लौटा, तो मुझे दो पत्रिकाओं का संपादन करने के प्रस्ताव मिले। इनमें से एक उसी तरह की फोटो पत्रकारीय पत्रिका थी, जिसकी मैंने कल्पना की थी। दोनों ही प्रस्ताव मुझे जमे नहीं। सन् 1990 के दशक में मैंने बंबई में एक संचार एजेंसी स्थापित की और चलाई। इसी बीच मेरी मुलाकात ब्राजील में कई वर्ष बिताकर भारत लौटीं प्लास्टिक सर्जन डॉ. सिल्विया फर्नाडिस से हुई, जिनके साथ मैं विवाह के बंधन में बंध गया। तबसे हम दोनों हर उस स्वप्न के साझी रहे हैं, जो हमें ईश्वर ने दिया और हम उसी रास्ते पर आगे बढ़े हैं, जिसे ईश्वर ने हमें दिखाया।

स्वप्न

बात यह है कि फारवर्ड प्रेस के जन्म की कहानी, ‘नई दृष्टि’ की पृष्ठभूमि के बगैर समझी ही नहीं जा सकती। अपनी किशोरावस्था से ही मैं सत्यशोधक था और सत्य की तलाश में अपने परिवार की रोमन कैथोलिक जड़ों से बहुत दूर निकल गया था। अपने जीवन के एक बड़े हिस्से में, अपने नाम के सिवाय, मैं पूर्णत: हिंदू-बौद्ध था। इसी दौर में, 1985 में, जब मैं 33 साल का था, सत्य से मेरा साक्षात्कार हुआ और युवा जोतिबा फुले की तरह मैंने पाया कि वह सत्य एक व्यक्ति था-प्रभु ईसा मसीह-जो यह घोषणा करते हैं कि ”मैं ही सत्य हूं’’।

बतौर पत्रकार अपने शुरूआती दिनों (जिनमें मैंने कालेज और विश्वविद्यालय के विद्यार्थी समाचारपत्रों का संपादन किया और 18 वर्ष की आयु में मेरी पहली खोजी रपट ‘द टाईम्स ऑफ  इंडिया’ में प्रकाशित हुई) से ही मैं पूरे तथ्यों, संबंधित व्यक्तियों के नामों के साथ अपने नाम से समाचार प्रकाशित करने का हामी रहा हूं-दूसरे शब्दों में लिखो और आलोचना के लिए तैयार रहो। मैं बीस साल का भी नहीं था, जब मेरी रपटों के लिए शिवसेना से मुझे दो बार धमकियां मिलीं। अब मुझे और ऊपर जाना था-पत्रकारीय तथ्यों से ऊपर। मुझे सत्य बोलना था और उससे भी चुनौतीपूर्ण यह था कि मुझे ‘प्रेम में सत्य बोलना था।’ सन् 2007 में मेरी पत्नि और मैंने गोवा में लेखकों की एक ‘कामकाजी छुट्टी’ में भाग लिया। उसी दौरान हमारी मुलाकात उत्तर भारत के दलित-बहुजन कार्यकर्ताओं के एक समूह से हुई। उन्होंने जाति व्यवस्था से उपजे अपने संताप को हमारे साथ साझा किया और शिक्षा, और विशेषकर अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के रास्ते इस व्यवस्था से मुक्ति पाने की आकांक्षा को भी। मीडिया की दुनिया से मेरी वाकफियत के आधार पर मैंने उन्हें कुछ सुझाव दिए, शुभकामनाएं दीं और कनेडा वापिस जाने की तैयारियां शुरू कर दीं। परंतु गोवा से मुंबई की रात्रिकालीन ट्रेन में सफर करते हुए मुझे ‘ईश्वरीय प्रेरणा’  मिली, जो फारवर्ड प्रेस के रूप में साकार हुई। आप इसे ‘विचार श्रृंखला’ कह सकते हैं परंतु मेरे लिए यह एक ईश्वरीय प्रेरणा ही थी कि मैं भारत लौटूं और मूक बहुजन बहुसंख्यकों को मंच उपलब्ध कराने के लिए एक द्विभाषी (अंग्रेजी व हिन्दी) पत्रिका शुरू करूं, जिसका विशेष फोकस उन किसानों और शिल्पकारों पर हो, जो ओबीसी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं और जिनकी कोई आवाज ही नहीं है। पत्रिका सभी बहुजनों – ओबीसी दलित व आदिवासी – से संबंधित मुद्दों व उनके हितों की बात फुले-आंबेडकरवादी परिप्रेक्ष्य से करेगी। मैं बहुत साफ था कि यह मेरा या किसी अन्य का स्वप्न नहीं था। यह ईश्वर का स्वप्न था, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी उसने मुझे सौंपी थी। मैंने इसे खुदा के हुक्म के रूप में लिया और इसलिए मेरे सामने उसका पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, चाहे फिर उसकी मुझे कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। और हमने इसकी बड़ी कीमत चुकाई भी (विस्तार से जानकारी के लिए इस अंक के अंत में प्रकाशित मेरी पत्नी का विवरण पढि़ए)।

दलितों के प्रति करूणा

Panther Power 1 jpgआप यह पूछ सकते हैं कि इस तरह की प्रेरणा ईश्वर भला किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों देगा जो भारत में अपने परिवार की जाति के बारे में कुछ भी नहीं जानता था और ना ही उसे इस बात की परवाह थी कि वह किस जाति का है। ईश्वर यह स्वप्न ऐसे किसी व्यक्ति को क्यों देगा जो जातिवाद को भारतीय समाज का अभिशाप मानता था? केवल ईश्वर वह जानता था, जिससे उसका परिवार भी अनजान था, कि किशोरावस्था से ही पत्रकार और उपन्यासकार बनने का स्वप्न संजोए इस व्यक्ति का मन, तब करूणा भाव से भर जाता था, जब वह हरिजनों (जिस नाम से 70 के दशक के पूर्वार्ध तक दलितों को पुकारा जाता था) पर किसी अत्याचार की खबर अखबारों में पढ़ता था। उसने इस तरह की खबरों को काटकर एक फाईल में सिलसिलेवार जमाया हुआ था और इनका इस्तेमाल वह दलितों पर केन्द्रित लघुकथाएं और एक उपन्यास लिखने के लिए करना चाहता था।

फिर, सन् 70 के दशक के उत्तरार्ध में, विश्वविद्यालय में मुझे दलित मराठी कवियों और लेखकों के एक ऐसे समूह के बारे में पता चला, जो अपने लोगों को गांधी द्वारा दिए गए नाम को खारिज कर उसकी जगह फुले-आंबेडकरवादी मराठी शब्द ‘दलित’ का इस्तेमाल करना चाहते थे। उग्रवादी अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर्स की तर्ज पर वे अपने समूह को ‘दलित पैंथर्स’ कहते थे।

बतौर पत्रकार अपना व्यावसायिक जीवन मैंने 21 वर्ष की आयु में ‘द स्टेट्समेन’ समूह से शुरू किया। मैंने अपने मुख्य संपादक डेसमंड डोइग को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे मुझे तत्समय उभर रही शिवसेना और ‘दलित पैंथर्स’ को कवर करने का अवसर दें। सेना के ‘शेर’ बंबई के कंक्रीट के जंगल में दलित पैंथरों का शिकार करने निकल पड़े थे। मराठा पुलिस, शिकारियों के साथ थी। मैं कुछ ऐसे फोटोग्राफ जुगाडऩे में सफल हो गया, जिनमें वर्दीधारी पुलिसवाले श्रमजीवी वर्ग की बीडीडी चॉल इलाके में पैंथर्स के एक मोर्चे पर पत्थर फेंकते हुए दिखाई दे रहे थे। जिस फोटो पत्रकार ने ये फोटो खींची थी, उसका अखबार उन्हें छापने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैंने किसी तरह डोइग-जो भारत के आखिरी ब्रिटिश संपादक थे-को इस बात के लिए राजी कर लिया कि हम वे फोटों खरीदें और उन्हें छापें और इसके लिए भी कि इन चित्रों के कैप्शन में एक बार भी ‘कथित’ शब्द का प्रयोग न हो। ये फोटो पैंथर्स के महासचिव जेवी पवार से मेरे ‘स्कूप’ साक्षात्कार के साथ प्रकाशित हुए। जब मैंने आधी रात को पवार का साक्षात्कार, बंबई के रेड लाईट इलाके के नजदीक स्थित एक दलित मोहल्ले में बुद्ध की मूर्ति के नीचे बैठकर लिया, तब वे भूमिगत थे।

कल्पना कीजिए कि दोनों पक्षों को कितना सुखद आश्चर्य हुआ होगा, जब हम दोनों के एक मित्र ने इसके चालीस साल बाद पवार और मेरी टेलीफोन पर बातचीत करवाई। तब पवार मुंबई में थे और मैं दिल्ली में। उनका पहला प्रश्न यह था कि क्या मेरे पास 1974 में लिए गए उस साक्षात्कार और उसके साथ प्रकाशित लेख की कटिंग है। उसके बाद से पवार ने एफपी में कई लेख लिखे और कोरेगांव के युद्ध पर केंद्रित एक आवरण कथा भी।

दलितों पर डाक्यूमेंट्री

राम (अब उदित) राज 4 नवंबर 2001 को दस लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म अपनाने वाले थे। मैंने इस अवसर के लिए एक पुस्तक ‘द क्वेस्ट फार फ्रीडम एंड डिग्निटी : कॉस्ट, कनर्वजन एंड कल्चरल रेवेल्यूशन’ (मुक्ति और गरिमा की तलाश : जाति, धर्म परिवर्तन व सांस्कृतिक क्रांति) Panther Power 2का संपादन किया और एक घंटे अवधि की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘अनटचेबिल्स वर्सेज आर्यनस : द बेटिल फार द सोल ऑफ  इंडिया’ (अछूत बनाम आर्य : भारत की आत्मा का संघर्ष) डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन किया। यद्यपि वाजपेयी की एनडीए सरकार आसपास के राज्यों से लाखों दलितों को दिल्ली में आने से रोकने में सफल हो गई, परंतु तब भी उस दिन आंबेडकर भवन में लगभग एक लाख लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने बौद्ध धर्म अंगीकार किया। अन्यों ने दूसरे राज्यों और जिला मुख्यालयों में यही किया। इस किताब के छह भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए और यह डॉक्यूमेंट्री एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई अन्य संस्थाओं द्वारा आयोजित मानवाधिकार उत्सवों में प्रदर्शित की जाती है।

इस डॉक्यूमेंट्री के निर्माण के दौरान मैं उत्तर प्रदेश और हरियाणा के कई गांवों और कस्बों में गया और स्थानीय दलित कार्यकर्ताओं और साधारण श्रमिकों से मिला। मैंने शीर्ष दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों और कलाकारों से मुलाकात की और दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में दलित साहित्य सम्मेलन में भाग लिया। इसी दौरान मेरी कांचा आयलैया, सुखदेव थोराट और गेल ऑम्बेट आदि से पहली बार मुलाकात हुई।

बहुजनों तक विस्तार

दिल्ली में 2001 व 2002 के बीच डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए जब मैं दिल्ली में था तब मैंने सुनील सरदार से मुलाकात की, जिन्हें मैं 1990 के दशक से जानता था, जब मैं पूना में रहा करता था। वे महाराष्ट्र के एक दलित थे और अपने राज्य में कृषक आंदोलनों से जुड़े हुए थे। उन्होंने उस समय ही मुझसे कहा था कि हमें केवल दलितों की न सोचकर उनसे आगे की भी सोचना चाहिए। उन्होंने मुझे ‘एलीफेंट इन द इंडियन रूम’ (वह तथ्य जो सबको स्पष्ट दिख रहा हो परंतु जिसे नजरअंदाज किया जा रहा हो) दिखाया और जोर देकर यह कहा कि ओबीसी के संख्यात्मक बल के बगैर दलितों का ब्राह्मणवाद के विरूद्ध संघर्ष कभी सफल नहीं हो सकता। फुले ने अपने मुक्तिदायक सूत्र ‘स्त्री-शूद्र-अतिशूद्र’ के जरिए 150 साल पहले इसी ओर इशारा किया था। आंबेडकर ने भी इसी मत को प्रतिध्वनित किया। आंबेडकर और उनका लेखन मुझे अंग्रेजी में उपलब्ध था। परंतु फुले की अधिकांश रचनाएं केवल मराठी में थीं और इसलिए मैं उनसे परिचित नहीं था। सुनील ने मुझे फुले के क्रांतिकारी जीवन और विचारों से परिचित करवाया। अंग्रेजी में फुले पर जो कुछ भी सामग्री उपलब्ध थी, मैं उसे इकट्ठा कर अपने साथ ले गया। बाद में फुले मेरे सबसे बड़े नायकों में से एक बने। मैं अपने साथ कांचा आयलैया की पुस्तक ‘वाय आय एम नाट ए हिन्दू’ (1996) भी ले गया और इसने मुझे उत्पादक जातियों और दलितबहुजन की अवधारणाओं से परिचित करवाया।

इस तरह 2002 में हुई शुरूआत, जनवरी 2007 की विचार श्रृंखला ईश्वरीय प्रेरणा में अपने चरम पर पहुंची। गोवा में उस समय मैंने दिल्ली से आए दलित-बहुजन समूह से ब्रजरंजन मणि की पुस्तक ‘डी ब्राहमनाईजिंग हिस्ट्री’ का पहला संस्करण (2005) भी खरीदा। फुले और आंबेडकर के लेखन के अलावा, इस अभिनव पुस्तक ने बहुजन (श्रमण) इतिहास, विचारों और संस्कृति के संबंध में मेरे विचारों को आकार दिया। यह सामाजिक पदक्रम के सबसे निचले पायदान पर खड़े होकर भारतीय इतिहास को देखने का प्रयास था।

बहुजन जुनून

जब मैं सन् 2008 की शुरूआत में दिल्ली पहुंचा और मैंने यह घोषणा की कि मेरी योजना एक ऐसी पत्रिका शुरू करने की है जो बहुजनों के लिए होगी, परंतु जिसका विशेष फोकस ओबीसी पर होगा, तब अधिकांश लोगों ने सोचा कि मैं शायद पागल हो गया हूं। मैं लोगों से यह भी

कहता था कि मुझे एक ऐसा बहुजन संपादक चाहिए, जिसका फुले-अंबेडकरवादी दलित-बहुजन परिप्रेक्ष्य हो। मुझे बताया गया कि उत्तर भारत में बहुजन पत्रकारों की संख्या बहुत कम है और उनमें से इस तरह के दर्शन में विश्वास रखने वाले तो केवल एक हाथ की उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। डायवर्सिटी मिशन के एचएल दुसाध, जिनसे मैं उस दौर में मिला था, ने भी एफ पी के एक स्थापना दिवस कार्यक्रम में मंच से यह स्वीकार किया कि उन्हें तब लगा था कि मैं घोर भ्रांतियों का शिकार हूं।

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ब्राह्मण और दलित समुदायों के योग्य उम्मीदवार ढूंढना आसान था। हमारे पहले संपादक, जो बहुत कम समय में हमसे जुदा हो गए, ने मेरी मुलाकात संजय कुमार से करवाई, जो उस समय सीएसडीएस के लोकनीति विभाग के मुखिया थे। यह विभाग भारत के लोगों के चुनावी व्यवहार का अध्ययन करता था। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हमारी पत्रिका के लिए (तब) जल्द ही होने जा रहे 2009 के आमचुनाव में ‘ओबीसी कारक’ की भूमिका पर आंकड़ों पर आधारित विश्लेषणात्मक लेख लिख सकते हैं। उन्होंने मुझसे पूछा ‘आपको ओबीसी कारक के बारे में किसने बताया?’ मानो कोई अति गोपनीय राजनीतिक रहस्य मेरे हाथ लग गया हो। अगर मैं उनसे यह कहता कि यह रहस्य मुझसे ईश्वर ने साझा किया है तो वे मुझे पूरा ही पागल मान लेते। इसलिए मैंने कहा कि, ‘क्या यह सभी को नही पता-विशेषकर आपको।’ फारवर्ड प्रेस के मई 2009 के उद्घाटन अंक की आवरणकथा से शुरू करकर इस विनम्र राजनीति विज्ञानी-जो अब सीएसडीएस के निर्देशक हैं-ने एफ पी में सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और राज्य चुनावों के नतीजों के विश्लेषण पर आलेख लिखे हैं और आज उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के संबंध में अधिकांश मीडिया रपटों में ओबसी कारक की चर्चा होती है।

परंतु सच्चाई यह है कि चुनाव की दृष्टि से कोई ओबीसी वोट बैंक नहीं है। चुनावी गणित, जातियों पर आधारित होता है। बिहार में नीतीश कुमार फि र से इसलिए चुने गए क्योंकि उन्हें मुस्लिम-यादव-कुर्मी गठबंधन का समर्थन प्राप्त था। ओबीसी जाति से ऊपर उठकर अपने को एक मान सकें-जैसा कि दलित मानते हैं-उसके लिए एक नई पहचान का निर्माण करना होगा, जो केवल साहित्य ही कर सकता है। नासिक में फरवरी 2008 में आयोजित दूसरे अखिल भारतीय (मुख्यत: महाराष्ट्र) ओबीसी साहित्य सम्मेलन में शिरकत करने के बाद मैंने एक कविता लिखी जिसका शीर्षक था ‘शूद्र सोल’ (शूद्र की आत्मा)। मैं केवल उसकी अंतिम पंक्तियों को उद्धृत करूंगा :

तो कवि, शब्दों के शिल्पकार

लो हमारा नाम

अपनी कला की निहाई पर

पीटो हमारी शरम

चलाओ हथौड़े तब तक

जब तक रह न जाए केवल

प्रखर, चमकता फ़ौलाद –

दोधारी तलवार – शू-द्र!

चलाओ, चलाओ तब तक

हमारा नाम न उभर आते जब तक

हमारी अपनी आत्माओं पर।

तब बोलेंगे हम

– हाँ, गाएँगे और चिल्लाएँगे

अपने नाम, अपनी कथाएँ, अपना इतिहास –

क्योंकि जान चुके होंगे कि

निस्संदेह

कौन हैं हम

बहुजन साहित्य

अप्रैल 2011 में एफ पी की दूसरी वर्षगांठ के आयोजन के अंत में मेरा परिचय प्रमोद रंजन से एक ऐसे व्यक्ति के रूप में करवाया गया, जो संभवत: वह संपादक था, जिसकी तलाश मैं कर रहा था। अगले दिन मेरे नेहरू प्लेस स्थित कार्यालय में उनसे मुलाकात के दौरान मुझे पता चला कि उनकी न केवल हिन्दी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि थी, वरन् वे मीडिया में विविधता (या उसके अभाव) के अध्येता थे और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे साहित्यिक तबियत के व्यक्ति थे। जब मैंने उनसे बहुजन साहित्य की बात की तब हम दोनों के तार तुरंत जुड़ गए। हम दोनों ने मिलकर एफ पी की पहली बहुजन साहित्य वार्षिकी तैयार की, जो अप्रैल 2012 में प्रकाशित हुई। जैसा कि मैंने मई 2016 की फारवर्ड सोच में लिखा ”प्रमोद रंजन…और मैं शुरू से ही सहमत हैं कि पत्रकारीय लेखन की तुलना मे साहित्यिक कृतियों का असर अधिक गहरा और दीर्घकालिक होता है।’’

हमने ‘ओबीसी’ साहित्य की अवधारणा पर बहस की शुरूआत की। राजेन्द्र प्रसाद सिंह की विमर्श की इस धारा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस धारा ने पिछले कुछ वर्षों में यह स्थापित किया कि बहुजन साहित्य में जहां दलितों और आदिवासियों का साहित्य होना चाहिए वहीं ओबीसी साहित्य के बिना यह अधूरा है। यद्यपि यह बहस एफ पी में और उसके बाहर चल रही है परंतु यह स्पष्ट है कि जिस तरह दलित साहित्य की अवधारणा स्थापित हुई उसी तरह बहुजन साहित्य की अवधारणा भी स्थापित हो चुकी है।

बदलते हुए लेखक, पाठक

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जब एफ पी की 2009 में शुरूआत हुई तब हमने पहले अंक की एक लाख प्रतियां उत्तर भारत के दस हिन्दीभाषी राज्यों (जिन्हें में हिंदीस्तान कहता हूं) में बांटीं। कांशीराम के पदचिन्हों पर चलते हुए हमने मुख्यत: ओबीसी व दलित समूहों को लक्षित किया। परंतु पत्रिका के साथ शुरूआत में जुडऩे वालों में से अधिकांश दलित और बामसेफ  जैसे दलित वर्चस्व वाले बहुजन संगठन थे। अगले छह महीनो में मुझे बामसेफ  के चंडीगढ़ में आयोजित वार्षिक अधिवेशन में हजारों लोगों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। मेरी पत्नि और मैं नियमित रूप से दिल्ली और आसपास के राज्यों में आंबेडकर (और अपेक्षाकृत कम अवसरों पर) फुले जयंतियों के कार्यक्रमों में शिरकत करते थे। मैं भाषण देता था और मेरी पत्नि पत्रिका का स्टाल लगातीं थीं। उस समय हमसे हमेशा यह पूछा जाता था कि अगर हम दलित नहीं हैं तो हम यह क्यों कर रहे हैं।

जैसे-जैसे एफपी ने ओबीसी पर फोकस करना शुरू किया, बामसेफ-फुले-आंबेडकर छतरी के बाहर के दलित मुझसे शिकायत करने लगे कि आप ओबीसी पर अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? वे तो दलितों के शत्रु हैं! मेरा उत्तर यही होता था कि क्या आप यह चाहते हैं कि ओबसी को यह अहसास हो कि आप और वे भाई-भाई हैं और आप दोनों का दमनकर्ता एक ही है, जिसने आप पर शासन करते रहने के लिए आप दोनों को विभाजित किया है। एक भी दलित ने इस प्रश्न का उत्तर ‘न’ में नहीं दिया, चाहे वे यह सोचते रहे हों कि ऐसा होना असंभव है।

शनै:-शनै: ऐसे ओबीसी लोगों की संख्या बढ़ती गई जो एफपी पढ़ते थे और उस पर चर्चा करते थे। इन लोगों में से बहुत से दूरदराज के कस्बों और गांवों में रहते थे। एक के बाद एक ओबीसी बुद्धिजीवी और लेखक, जो अब तक स्वयं के दलित के रूप में वर्गीकरण से संतुष्ट थे, दलितों और आदिवासियों के प्रति अपनी एकजुटता बनाए रखते हुए भी अपनी ओबीसी पहचान पर जोर देने लगे। आज एफपी को एक ऐसी दलितबहुजन पत्रिका के रूप में पहचाना जाता है जिसका फोकस ओबीसी पर है, विशेषकर हाशिए पर पड़ी अति पिछड़ी जातियों पर।

शुरूआती सालों में पत्रिका में प्रकाशित लेखों में से 80 प्रतिशत मूल अंग्रेजी में हुआ करते थे। अब स्थिति ठीक इसके उलट है। यद्यपि अधिकांश योगदानकर्ता आदिवासियों सहित बहुजन हैं तथापि समानधर्मी सवर्ण बुद्धिजीवी व लेखक भी पत्रिका के लिए लिख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपने किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में पूर्व प्रकाशित लेख में थोड़ी-बहुत फेरबदल कर एफपी में भेजने की बजाए इसके लिए मौलिक लेख लिखना शुरू कर दिया था। एफपी हिंदी की शीर्ष पत्रिकाओं में शामिल है। आप कह सकते हैं कि सात साल की छोटी अवधि में ही एफपी ने अपना स्थान बना लिया।

जब इल्ली कोषस्थ कीट में बदलती है, तब कई अज्ञानी यह कह सकते हैं कि इल्ली मर गई है क्योंकि कोषस्थ कीट कहीं से जीवित नहीं जान पड़ता। परंतु जब कोषस्थ कीट में से तितली निकलती है, अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाकर उड़ान भरती है तब ऐसा लगता है कि जिंदगी अभी शुरू ही हुई है। इसलिए सात वर्ष पुराने एफपी के मुद्रित संस्करण के अंत का शोक मत मनाइए। हमारा एक पंख पूरी पृथ्वी पर इंटरनेट के जरिए फैल चुका है और हर तीन महीने में प्रकाशित होने वाली हमारी मुद्रित व इलेक्ट्रानिक किताबों के जरिए दूसरा पंख भी फैलने को उद्यत है। खुशियां मनाइए क्योंकि फारवर्ड प्रेस अपने नए अवतार में प्रकट हुई है।

मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार और अंबेडकर के सपने पूरे होंगे और भारत स्वतंत्र लोगों की ऐसी भूमि बनेगी जहां जाति का उन्मूलन हो चुका होगा। सच्ची स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का राज होगा। इन सपनों को पूरा करने में दलित-बहुजन चिंतकों और कार्यकर्ताओं की लंबी श्रृंखला में सबसे आखिर में एफपी के लिए भी जगह होगी।

वेन इट इज आल बीन सेड एंड डन

Ivan at OBC Lit Meet_Feb08_1
आयवन कोस्का

यह मेरे पसंदीदा गीत का शीर्षक है। मैंने यह अनुरोध किया है कि इसे मेरी अंत्येष्टि में बजाया जाए। एफपी के इन सात सालों की पूरी कहानी कहने के लिए एक छोटी पुस्तक या कम से कम लेखों की एक श्रृंखला की जरूरत होगी। काम के बोझ और उसके व्युत्पन्न तनाव ने मेरे स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। लगभग आठ साल पहले मैंने अपनी पीएचडी पर जो काम शुरू किया था, उसे मुझे अनिश्चितकाल के लिए बंद कर देना पड़ा, परंतु इस दौरान विभिन्न बहुजन मंचों पर मुझे ‘डॉक्टर आईवन कोस्का’ कहकर मानद ‘डाक्टरेट’ की उपाधि प्रदान की गई! मुझे असंख्य लोगों से जो प्रेम और सम्मान मिला है उसकी तुलना धन या किसी डिग्री से नहीं की जा सकती। पिछले साल मैंने फोरम फॉर एससी एंड एसटी लेजिस्लेटर्स एंड पार्लियामेंटेरियंस की राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद का सदस्य बनने का निमंत्रण स्वीकार किया।

मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यही होगा कि मैं यह कह सकूं कि ईश्वर ने मुझे जो काम सौंपा था, उसे मैंने पूरा किया और मेरी अंत्येष्टि पर बजने वाले गीत की पंक्तियाँ सच सिद्ध हों –

जब सब कुछ कहा जा चुका होगा,

जब सब कुछ किया जा चुका होगा,

तब केवल एक चीज़ का महत्व होगा,

क्या मैंने सत्य के लिए जीने का भरसक प्रयास किया?

क्या मैंने अपना जीवन तुम्हारे लिए जिया?

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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