महिष, मैसूर (या उसके पुराने नाम महिष मंडल) के महान शासक थे। बौद्ध संस्कृति और विरासत के उत्तराधिकारी, महिष का शासन प्रजातान्त्रिक सिद्धांतों और मानवता पर आधारित था। दुर्भाग्यवश, मैसूर, जो अब कर्नाटक की बौद्धिक और सांस्कृतिक राजधानी है, के इतिहास को ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा तोड़मरोड़ कर उसकी असली विरासत को पौराणिक आख्यानों के तले दबा दिया गया है।
बेंगलुरु के दक्षिण-पश्चिम में, 130 किलोमीटर दूर स्थित मैसूर, आज कर्नाटक का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इतिहास में मैसूर या महिषासुर का सबसे पहले ज़िक्र सम्राट अशोक के काल में 245 ईसा पूर्व में मिलता है। पाटलीपुत्र में तृतीय बौद्ध धर्मसंसद के बाद, अशोक ने महादेव नामक बौद्ध भिक्षु को बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार करने और उनके आदर्शों पर आधारित कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के लिए इस क्षेत्र में भेजा। महादेव ही आगे चलकर महिष के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्होंने महिष मंडल राज्य की स्थापना की। वर्तमान कर्नाटक राज्य के उत्तरी भाग में अशोक के कुछ शिलालेख पाए गए हैं। इस क्षेत्र में महिष का शासन था, यह साबित करने के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक इमारतें और पुरालेख उपलब्ध हैं।
मैसूर में यदु वंश का शासन 1399 ईस्वी में स्थापित हुआ। वे विजयनगर के शासकों के अधीन थे। इस वंश के राजाओं ने मैसूर राज्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मैसूर के रजा बेताडा चामराज वाडियार ने 1584 ईस्वी में एक छोटे-से किले का निर्माण किया। उसने मैसूर को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम ‘महिषासुर नगर’रखा। सत्रहवीं सदी और उसके बाद के कई शिलालेख मैसूर को ‘महिषुरु’नाम से संबोधित करते हैं। सन 1610 में राजा वाडियार अपनी राजधानी मैसूर से श्रीरंगपटना ले गए।
हैदर अली और टीपू सुल्तान मैसूर के दो अन्य महान शासक थे। हैदर अली ने मैसूर राज्य की सीमाओं को विस्तार दिया। उनके पुत्र टीपू सुलतान ने राज्य में कई नए इलाकों को शामिल किया और अंतररार्ष्ट्रीय संबधों व सहयोग पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने भारत पर तत्समय शासन कर रहे अंग्रेजों से कभी समझौता नहीं किया। वे ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने साम्राज्यवादियों के खिलाफ युद्ध किया और 1799 में एक देशभक्त की मौत पाई। भारत के आधुनिक इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा। टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद, मैसूर एक बार फिर वाडियारों की राजधानी बन गया। अंग्रेजों ने एक संधि (सब्सिडियरी अलायन्स) के तहत वाडियारों को गद्दी सौंपी और मैसूर ब्रिटिश शासन के अधीन एक रियासत बन गया।
एक किले की सीमाओं के भीतर एक छोटे से कस्बे से एक विशाल नगर बनने की मैसूर की यात्रा कृष्णराजा वाडीयार तृतीय के शासनकाल में शुरू हुई। कृष्णराजा वाडीयार चतुर्थ ने मैसूर में अधोसंरचना का निर्माण कर और उसकी अर्थव्यवस्था को विस्तार देकर उसे एक आदर्श राज्य बनाया। वे एक प्रजातान्त्रिक, मानवतावादी और विकासोन्मुख प्रशासक थे। सन 1947 में भारत के स्वतंत्र होने तक वाडियार मैसूर के शासक बने रहे। स्वतंत्रता के बाद मैसूर भारतीय संघ का हिस्सा बन गया।
मानवतावादी और प्रजातान्त्रिक
आंबेडकर ने बिलकुल ठीक कहा है कि भारत का इतिहास, ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के संघर्ष का इतिहास है। ब्राह्मणवाद जातिप्रथा और जाति-आधारित भेदभाव का प्रतिनिधि था और बौद्ध धर्म मानवतावाद और मूल्य-आधारित प्रजातंत्र का। आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और गैर-प्रजातान्त्रिक तरीकों से मूलनिवासियों को कुचल दिया। उन्होंने बौद्ध धर्म को जड़ से उखाड़ फेंका और ब्राह्मणवाद को देश पर लाद दिया। मूलनिवासियों को उनके मूलाधिकारों से वंचित कर दिया गया और वर्ण व्यवस्था के अधीन वे गुलाम बन गए। आर्यों ने येन-केन महिष सहित कई मूलनिवासी शासकों को अपदस्थ कर दिया।
मैसूर को अलग-अलग स्थानों में महिष मंडल, महिषुरानाडू, महिषानाडू व महिषापुरा भी कहा गया है। महिष मंडल मुख्यतः कृषि-आधारित राज्य था, जहाँ बड़ी संख्या में भैंसे थीं, जिनका इस्तेमाल खेती, दुग्ध उत्पादन व अन्य उद्देश्यों के लिया किया जाता था। इसलिए मैसूर को एरुमैयुरम अर्थात भैंसों की भूमि भी कहा जाता है। बौद्ध और होयसला साहित्य में महिष मंडल के बारे में बहुत जानकारियां हैं। इस राज्य में कई छोटे-बड़े राज्य थे।
नाग राजा, जो जन्म से द्रविड़ थे, दक्षिण भारत के शासक थे। प्रोफेसर मल्लेपुरम जी वेंकटेश ने नाग और महिष लोगों के परस्पर संबंधों पर प्रकाश डाला है। नागों ने आर्य आक्रान्ताओं के खिलाफ युद्ध किया। नाग राजा अपनी संस्कृति से बहुत प्रेम करते थे। मानवशास्त्री एमएम हिरेमट (कर्नाटकस दलित कल्चरल लीगेसी) के अनुसार, राज्य में दो महान नस्लें थीं – नाग और महिष।
आर्यों ने बौद्ध राजाओं को नीचा दिखाने के लिए कई पौराणिक और मिथकीय कथाओं का इस्तेमाल किया। उन्होंने एक कहानी गढ़ी, जिसके अनुसार महिष का जन्म एक पुरुष के भैंस के साथ संभोग से हुआ था। इसी तरह, इतिहासविद मंजप्पा शेट्टी (द पैलेस ऑफ़ मैसूर) के अनुसार, पुजारियों ने इस झूठ को फैलाया कि चामुंडी देवी ने अपने लोगों की रक्षा करने के लिए महिष को मारा व इस प्रकार न्याय की स्थापना की।
निहित स्वार्थी तत्त्व महिष को दानव बताते हैं। चामुंडेश्वरी ने महिष को मारा था, इस पौराणिक कथा को सही साबित करने के लिए कोई सबूत उपलब्ध नहीं है। महिष, निसंदेह, एक बौद्ध-बहुजन राजा थे और समानता व न्याय के प्रतीक थे। महिष की मूर्तियों में उन्हें एक हाथ में तलवार और दूसरे में सांप पकड़े हुए दिखाया जाता है। तलवार वीरता का प्रतीक है और सांप प्रकृति-प्रेम का। यह प्रकृति-प्रेम बौद्धों को नाग संस्कृति से विरासत में मिला था।
लोककथाओं के अध्येता प्रोफेसर कालेगौडा कहते हैं: “महिष मंडल मैसूरु (मैसूर) राज्य का पुराना नाम था और इस पर महिष का शासन था। वह एक बौद्ध राजा था, जिसने क्षेत्र को प्रगतिशील प्रशासन दिया और समाज के सभी वर्गों का सशक्तिकरण किया। तथ्यों को तोडामरोड़ा गया है। लोगों को सच जानने की ज़रुरत है। हिन्दू पौराणिकता में महिष का नकारात्मक चित्रण किया गया है। इस क्षेत्र के लोगों को महिष मंडल के बैनर तले अलग ढंग से दशहरा मनाना चाहिए”।
जानेमाने लेखक बन्नूर राजू के अनुसार, “चामुंडी हिल्स पहले महाबलेश्वर के नाम से जानी जातीं थीं। आज भी इस पहाड़ी, जिसका नामकरण यदुवंश के शासन के दौरान चामुंडी के नाम पर कर दिया गया, पर महाबलेश्वर का एक मंदिर है। यदुवंशियों ने पुरोहितों के साथ मिलकर यह कहानी गढ़ी कि चामुंडेश्वरी ने महिषासुर को मारा था। यह कथा आधारहीन और निंदनीय है।
प्रगतिशील चिन्तक व ‘महिष मंडल’पुस्तक के लेखक सिद्धास्वामी लिखते हैं, “मैसूरु शब्द की उत्पत्ति दरअसल महिष शब्द से हुई है। महिष सम्प्रदायवादी लेखकों के शिकार बन गए, जिन्होंने उन्हें राक्षस के रूप में प्रस्तुत किया। महिष एक महान शासक थे और अशोक व बुद्ध के विचारों में आस्था रखते थे।
इतिहास का पुनरुद्धार
मैसूर क्षेत्र के मूलनिवासी शहर के इतिहास का पुनर्लेखन करने के लिए महिषाना हब्बा के झंडे तले एकजुट हुए हैं। मैसूर के तर्किक्तावादियों ने 11 अक्तूबर, 2015 को महिषाना हब्बा (महिष का उत्सव) मनाया। यह उत्सव चामुंडी हिल्स पर दशहरा के आयोजन से पहला मनाया गया। कार्यक्रम का आयोजन कर्नाटक दलित वेलफेयर ट्रस्ट व अन्य प्रगतीशील संस्थाओं ने किया और इसमें सैकड़ों चिंतकों व कार्यकर्ताओं ने हिस्सेदारी की। ट्रस्ट के अध्यक्ष शांताराजू ने कहा कि मैसूर के लोगों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने शहर के उत्पत्ति के इतिहास को जाने और ऐतिहासिक महिष मंडल के संस्थापकों का सम्मान करें। महिष की मूर्ति पर फूल की पंखुड़िययों की वर्षा की गयी। यहाँ के मूलनिवासी महिष के सम्मान में दशहरा मनाना जारी रखेगें।
(शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक “महिषासुर : एक मिथक का अब्राहमणीकरण” में संकलित)