आधुनिक महाराष्ट्र के एक गाँव में सवर्ण जाति की एक लड़की के लिए एक कैयकड़ी जाति के किशोर के मन में उमड़ते प्रेम को निर्देशक-निर्माता नागराज मंजुले ने 2013 में निर्मित मराठी फिल्म ‘फैंड्री’ में दर्शाया था। कैयकड़ी एक मांग जैसी अन्त्यज मजदूर जाति है, जिसके लोग सूअर और गधे पालने का काम करते हैं। सूअर को मराठी में ‘डुक्कर’ और कैयकड़ी ज़बान में ‘फैंड्री’ कहते हैं। यह शब्द महाराष्ट्र में प्रायः गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। 2013 की ‘फैंड्री में’ किशोर जब्या के अरमान उसके मन में, और उन खतों में, जो कभी नायिका शालू तक नहीं पहुँच पाते, सिमट के रह जाते हैं। फिल्म के अंत में जब्या के पास अपनी ज़ात में लौट जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता– उसके सपने एक नपुंसक आक्रोश का रूप लिए कैमरा, यानि दर्शकों की आँखों, को एक पत्थर से फोड़ देते हैं। इस साल रिलीज़ हुई ‘सैराट’ इस कहानी को आगे बढाती है। जहाँ ‘फैंड्री’ वैश्वीकरण के किनारे खड़े नज़र आती है, ‘सैराट’ वैश्वीकरण के आगोश में समाये भारत के किसी भी गाँव की कहानी प्रतीत होती है। दलित नायक और सवर्ण नायिका का प्रेम महाराष्ट्र के सिंचाई युक्त गन्ने और केले के लहलहाते खेतों और आधुनिक होते हुए गाँव के कॉलेज की पृष्ठभूमि में परवान चढ़ता हुआ दिखाया गया है। 1970 के दशक के बाद महाराष्ट्र की ‘हरित क्रांति’ ने राज्य के पश्चिमी क्षेत्रों में अनेक ‘उसाचे गाँव’ [यानि गन्ने से समृद्ध हुए गाँव] पैदा किये। आज इन गांव-कस्बों में आधुनिकता के सभी चिन्ह मौजूद हैं– पक्की सड़कें, मोटरसाइकिल, बड़ी गाड़ियाँ, सेलफ़ोन, स्कूल-कॉलेज, मोटरबोट और सवर्ण जातियों की लड़कियों को कोएजुकेशनल कॉलेज में पढने के अवसर। ऐसे में एक मेधावी दलित लड़के और दबंग पाटिल लड़की में प्यार हो सकता है और इस फिल्म में हो भी जाता है। लेकिन आधुनिकता के सतही प्रमाणों के बीच तस्सवुर और हकीकत की बुलंदियों को छूती हुई यह मुहब्बत जाति व्यवस्था और पितृसत्ता से टकराती है।
आधुनिक भारत के गाँव संघर्षों के सिवा और हैं क्या? एक तरफ वर्ग और जाति संघर्ष है तो दूसरी ओर अंतरजातीय प्रेम की संभावनाओं, आधुनिकता के सपनो और जातिगत पितृसत्ता की कशमकश। दबंग जमींदार जातियां अमीर और साधन संपन्न हैं। उनके हाथ में सत्ता है। उनके मर्द हथियारों और गुंडों से लैस हैं। पुलिस और प्रशासन उनके इशारों पे नाचता है। वे पितृसत्ताक हैं। उनके लड़के कॉलेज की क्लास में प्रोफेसर को सरे आम थप्पड़ रसीद कर सकते हैं और दलित लड़कों को पीट सकते हैं। किसी भी कीमत पर उनके मर्द अपनी जाति की औरतों के मन और जिस्म पर अपने मौजूदा हक को छोड़ नहीं सकते – सवर्ण जातियों की औरतों को अगर दलित लड़कों से प्रेम और विवाह करने का हक मिल गया तो जाति व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी। इस सन्दर्भ में मुहब्बत और शादी जाति की कसौटी पर उतरती है। अंतरजातीय प्रेम और शादी भारत में हिंसा से दूर नहीं होते। अगर ऐसे रिश्तों में लड़का दलित हो, तो उसकी खैर नहीं।
भारतीय आधुनिकता की सतही उपलब्धियों को जहाँ बॉलीवुड की औसत फिल्म सच्चाई की तरह पेश करती है वही ‘सैराट’ इस हकीक़त की पोल जाति के नज़रिए से दर्शक के सामने खोल देती है। देश की शिक्षण संस्थाओं और उसके राष्ट्रवादी विमर्श ने हमे जो बदलते भारत की तस्वीर दिखाई है उस तस्वीर पर मानो ‘सैराट’ दलित खून के छींटे बिखेरती है। फिल्म देखने के कई दिनों बाद तक यह खून और ज़मीन पर पड़ीं नायक और नायिका की रेती गयीं लाशें आपका पीछा नहीं छोड़ते। उनका दो साल का अनाथ बच्चा जब बिलखता हुआ घर से बाहर जाता है तो ज़मीन पर उसके मासूम पाँव अपने ताज़ा क़त्ल हुए माँ-बाप के खून की छाप छोड़ते चले जातें हैं। ये जाति का इतिहास है।
पिछले तीस वर्षों में भारत के कई राज्यों में अंतरजातीय प्रेम और विवाह हुए हैं लेकिन जातिगत समाज ने क्या ऐसे रिश्तों को सहजता से स्वीकार किया है? आम तौर पर स्वीकृति वही मिलती है जहाँ सवर्ण अंतरजातीय विवाह होते हैं। बड़े शहरों की बात शायद कुछ और है– कई किस्म के अंतर जातीय विवाह सिर्फ वही हो सकते हैं। वहां प्रेमी, आसानी से नहीं लेकिन फिर भी, अपने रिश्तेदारों से छुप सकतें हैं। जाति के मामले में गाँव-कसबे हिंसा से सराबोर हैं और राजनीति ने इस हिंसा को नए रूप दिए हैं। इन गाँव-कस्बों में जवान लोगों के अरमान हैं लेकिन वास्तविक जीवन कुंठा से भरा है। कुछ साल पहले तक ऐसा समझा जाता था की ‘ऑनर किलिंग’ के हादसे उत्तर भारत में ही हुआ करते हैं और इन हिंसक वारदातों को अंजाम देने में हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश की दबंग जातियां आगे रहतीं हैं। हरियाणा में तो अलग गांवो में बसने वाले एक ही जाति के एक गोत्र में भी शादी नहीं हो सकती, जाति की बात तो भूल जाईये।
समस्या को नज़दीक से देखें तो मालूम होता है की सच के कई पहलू सामने आते हैं। वैश्वीकरण प्रभावित आधुनिकता भारत के तमाम राज्यों में फ़ैल चुकी है और इसके साथ पैदा हुईं हैं वो चुनौतियां जिन से हमारा जाती-आधारित समाज जूझ रहा है। ‘सैराट’ का यथार्थवादी नायक एक मेहनतकश लड़का है लेकिन हिंदी फिल्म का हीरो नहीं; सवर्ण ‘माचो’ हीरो, की तरह दस बीस गुंडों पर हावी नहीं होता। दूसरी तरफ फिल्म की नायिका गाँव के पाटिल की लाडली बेटी है और कुछ मायनो में आज़ाद भी। नायक की जगह नायिका बुलेट मोटरसाइकिल और ट्रेक्टर चलाती है। उसे रिवाल्वर चलाना आता है, लहसून छीलना या खाना बनाना नहीं। वो अपने जीवन की डोर अपने हाथों में रखना चाहती है, प्रेम और विवाह का फैसला खुद करती है। उसमे ऐसा किरदार है, जो आम हिन्दुस्तानी लड़के को डरा देगा। यह फिल्म हमें बताती है इन सबके बावजूद नायिका की स्वायत्तता को जाति की सीमा लांघने का अधिकार नहीं है। जैसे ही पाटिल कुनबे को पता चलता है की नायिका नायक से प्रेम करती है, कहर टूटता है। इसके बाद प्रेमियों के लिए गाँव-कसबे से कहीं दूर किसी बड़े शहर में, जहाँ आदमी अनजान रह सकता है, भागने के अलवा कोई चारा नहीं रहता। हैदराबाद जाकर दोनों अपने परिवारों के लिए मर जाते हैं – लाडली की तस्वीरें पाटिल तोड़ देता है और अपनी बीवी को उसका नाम तक लेने नहीं देता।
कई दशक पहले आंबेडकर ने सिद्ध किया था की भारत की ग्रामीण व्यवस्था दलित जातियों की दुश्मन हैं – ग्रामीण इलाकों में दलित इज्ज़त की ज़िन्दगी नहीं जी सकते। मंजुले इस भयंकर सच को हिंसा और खून से रेखांकित करते हैं। फिल्म की चेतावनी है कि अंतरजातीय विवाह करने वाले बहादुर लोग महानगरों में भी महफूज़ नहीं हैं। ऐसे विवाहों या प्रेम संबंधों को अंजाम देने वालीं सवर्ण औरतों को होशियार रहना चाहिए –मायके से आये रिश्तेदारों के रूप में साड़ी, गहने और गोंद के लड्डू लिए, कातिल उन तक आसानी से पहुँच सकते हैं। भारतीय आधुनिकता जातीय नफरत और रंजिश का दामन आसानी से थाम लेती है।