यदि उत्तर भारत में पिछले तीन-चार दशकों में हुए बड़े छात्र आन्दोलनों का इतिहास देखा जाये तो ज्यादातर छात्र आन्दोलन आरक्षण के खिलाफ ही हुए हैं, चाहे 1990 के दशक में मंडल कमीशन के खिलाफ या 2007 में उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू होने के खिलाफ। जाहिर है ये आन्दोलन पिछड़ा वर्ग को अशक्त बनाये रखकर उनके हिस्से के संसाधनों को समाज के वर्चस्वशाली तबकों को देने की मांग करते रहे हैं।
लेकिन 2016 में आते-आते आरक्षण के पक्ष में आवाज उठने लगती है, ‘नो मंडल’ की जगह ‘जय मंडल’ के नारे लगने लगते है। आखिर कैंपस और छात्र संगठन आरक्षण विरोधी न होकर आरक्षण समर्थक कैसे बन गये, इसे समझने के लिए हमें केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति और छात्र समुदाय में ओबीसी की बढती हिस्सेदारी पर गौर करना होगा।
उत्तर औपनिवेशिक भारत के सामाजिक और राजनीतिक चिंतन में तीन चरण महत्वपूर्ण माने जाते है: पहला डा.राममनोहर लोहिया की समाजवादी राजनीति की सफलता, दूसरा 1975 में इमरजेंसी लागू होना और तीसरा 1990 में मंडल कमीशन का लागू होना, तत्पश्चात मंडल-कमंडल का द्वन्द होना। आजादी के बाद देश पर कांग्रेस का एकछत्र राज रहा, जिसने भारतीय आबादी के बड़े भाग यानि पिछड़े वर्ग के हितों को नजरंदाज किया। कांग्रेस को लोहिया की पिछड़ा प्रधान राजनीति से चुनौती मिली, जिससे 1970 के दशक से पिछड़े वर्ग के मुख्य मंत्री बनने लगे थे। जब 1975 में कांग्रेस ने इमरजेंसी लागू की तो इसके विरोध में समूचा विपक्ष लामबंद हुआ, विश्वविद्यालयों में इमरजेंसी के विरोध में मुहिम तेज हुई। विपक्ष की एकजुटता ने कांग्रेस के एक दलीय वर्चस्व को धराशायी कर दिया। इमरजेंसी ख़त्म होने के बाद मुख्यधारा वाले राजनीतिक नेतृत्व में विविधता आई, जिससे पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी और मजबूत हुई और जाति आधारित श्रेणीक्रम में बदलाव आना शुरू हो गये। 1990 में जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो एक दशक से लंबित मण्डल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया। मण्डल कमीशन ने भारतीय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लेकर आया, प्रसिद्द एन्थ्रेपोलोजिस्ट क्रिस्टोफ जेफ़रलॉट ने तो इस बदलाव को “साइलेंट रिवोल्यूशन” कहा ।
मंडल कमीशन ने देश के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। मंडल कमीशन के लागू होते ही देश का सामाजिक और राजनीतिक ढांचा दो ध्रुवो में बंट गया- एक मण्डल समर्थक तो दूसरा मण्डल विरोधी। देश के विश्वविद्यालय आरक्षण के विरोध और वंचित तबकों को अपमानित करने वाले तर्क गढ़ने के अड्डे बन गये। मण्डल कमीशन के लागू होने के पहले कालेजों और यूनिवर्सिटियों में सवर्णों का ही वर्चस्व रहा था, इसलिये अध्यापक-छात्र-कर्मचारियों के सवर्ण गुट ने लामबंद होकरओबीसी आरक्षण की खिलाफत की। कैम्पसों में ओबीसी वर्ग के छात्र और फैकल्टी बहुत कम संख्या में थे इस कारण से वे प्रतिरोध नहीं कर सके, अतः सामाजिक न्याय के लिये सवर्ण बनाम पिछड़ा के प्रथम द्वन्द में पिछड़े कुछ न कर सके। मण्डल कमीशन के आंशिक रूप से लागू होने के बाद पिछड़ों के शैक्षिक स्तर में भी बदलाव आया। पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी अब ज्यादा से ज्यादा युनिवर्सिटियों में आने लगे हालांकि फैकल्टी में तब भी सवर्णों का ही वर्चस्व था। जब 2007 में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो एक बार फिर से सवर्ण बनाम पिछड़ा का द्वन्द हुआ। इस बार का आरक्षण विरोधी आन्दोलन उतना व्यापक न था जितना 1990 का था। ओबीसी आरक्षण के समर्थन में इस बार मजबूत आवाज उठी। इसकी एक वजह ये भी थी कि सवर्णों का राजनीतिक तबका ‘दलित-पिछड़ा राजनीतिक मुद्दों’ पर आश्रित हो गया था, साथ ही इस बीच पिछड़े वर्ग का राजनीतिक नेतृत्व भी काफी मुखर हो गया था। उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ सवर्णों ने ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ नाम का संगठन बनाया, जो टिक नहीं पाया और 2010 में दम तोड़ दिया। यद्यपि अभी भी छात्र संगठनों और फैकल्टी में सवर्णों का वर्चस्व शेष है।
पिछले एक दशक में काफी बदलाव आये है विश्वविद्यालयों में। छात्र समुदाय में दलित-पिछड़े वर्ग के छात्रों की संख्या बढ़ी है। पिछड़े वर्ग के छात्रो में सांगठनिक क्षमता का उदय हुआ है, हालांकि पिछड़ों के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के छात्र संगठनो का दायरा बहुत ही सीमित है। इसकी एक वजह यह है कि ज्यादातर ऐसे राजनीतिकक दलों का दायरा राज्य विशेष तक ही है, जबकि कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट का राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक होने से इनके छात्र संगठन राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं। ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालय के स्तर पर पिछड़ो के कई छात्र संगठन सक्रिय हुए हैं। आज उत्तर भारत में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जबकि दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में काफी संख्या में ओबीसी छात्र संगठन सक्रिय है।
आइये, कुछ ओबीसी विद्यार्थी संगठनों के कामों को यहाँ बानगी के तौर पर देखें। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आल इण्डिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम (AIBSF) की स्थापना 7 अगस्त 2010 को हुई, जिसके मैं तथा संयोजक अरुण कुमार थे तथा संस्थापक अध्यक्ष मैं बनाया गया था। संगठन के पदाधिकारियों में पिछड़ों के साथ दलितों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया। फोरम ने कैम्पस में दलितों के संगठन यूनाइटेड दलित स्टूडेंट्स फोरम के साथ गठबंधन करके काम किया, जिससे कुछ ही दिनों में कैपस में व्यापक प्रभाव पड़ा। फूले-आंबेडकर-पेरियार-नारायण गुरु की विचारधारा को आधार मानकर फोरम ने पिछड़े वर्ग के छात्रों से सम्बंधित मुद्दों के लिये आन्दोलन किया। फोरम के 4 प्रमुख उद्देश्य थे:
1- फोरम देश में लोकतान्त्रिक आवाज को मजबूत करने के लिये और अपनी अस्मिता को मजबूत करने के आंदोलनरत हो। सभी प्रगतिशील लोग इससे जुड़े।
2- शिक्षित बनो, संगठित रहो और ब्राह्मणवादी-मनुवादी जैसी प्रतिक्रियावादी ताकतों को हराने के लिये संघर्ष करे।
3- फोरम सामाजिक न्याय की लड़ाई को महान सामाजिक सुधारको की शिक्षाओं को आधार मानकर आगे बढायेगा।
4- संस्थानों में समुचित भागीदारी ही आरक्षण की परिभाषा है। अतः समुचित भागीदारी किसी भी कीमत पर हासिल करना होगा।
फोरम का स्लोगन था- सामाजिक न्याय जिंदाबाद, ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद। फोरम ने जेएनयू में पिछड़े वर्ग के छात्रों का 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करवाने में महती भूमिका निभाई। फोरम ने कैम्पस के अन्य वामपंथी और दलित छात्र संगठनों के साथ कैम्पस तथा कोर्ट, दोनों जगहों पर लड़ाई लड़ी। उस समय जेएनयू प्रशासन कट-ऑफ़ और मेरिट के नाम पर ओबीसी की सीटें नहीं भर रहा था। अगस्त 2011 में सुप्रीम कोर्ट के ने ओबीसी छात्रो के पक्ष में निर्णय दिया कि ओबीसी की कट-ऑफ़ सामान्य वर्ग की कट-ऑफ़ से 10 प्रतिशत नीचे ही रहेगी और ओबीसी की सीटें ओबीसी कैंडिडेट्स से ही भरी जायेगी। हाई कोर्ट के इस निर्णय से आगामी वर्षो में कैम्पसों में व्यापक बदलाव हुये। फोरम ने अन्य मुद्दों, जैसे फैकल्टी में ओबीसी आरक्षण को प्रत्येक स्तर पर लागू करवाने के लिये संघर्ष किया। जेएनयू में वाइवा के समय पिछड़े दलितों के साथ खूब भेदभाव किया जाता है, इसके खिलाफ फोरम ने मुहिम छेड़ी। ओबीसी छात्रो के लिए SC/ST की तरह होस्टल आवंटन की मांग की। दिल्ली विश्वविद्यालय में अकैडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के साथ फोरम ने ओबीसी वर्ग के कैंडिडेट्स के लिये 10 से ज्यादा कट-आफ लिस्ट निकलवाने के लिये बड़ा आन्दोलन किया। फोरम के सदस्य राजीव निराला जी के प्रयासों से यूजीसी नेट की परीक्षा में बैठेने के लिये ओबीसी कैंडिडेट को 5% (55% से 50%) की छूट मिली। फोरम ने कैम्पस में सांस्कृतिक परिवर्तन के लिये मुहिम चलायी। फूले-पेरियार-नारायण गुरु, मंडल के साथ अन्य नायकों- कर्पूरी ठाकुर, बाबू जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा और ललई यादव, वी पी सिंह को मुख्य धारा के नायक के रूप में पहचान दिलाई। फोरम के प्रभाव के चलते वामपंथी छात्र संगठनों के नेतृत्व और वैचारिकी में भी बदलाव आया, इन संगठनो में पिछड़े वर्ग के छात्रों को महत्वपूर्ण भूमिका दी जाने लगी। यद्यपि 2013 में आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम का अवसान हो गया लेकिन कैपस में ओबीसी की वैचारिकी स्थापित करने में सफल रहा।
2015 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से ही एक अन्य संगठन यूनाइटेड ओबीसी फोरम की स्थापना हुई। नया फोरम ओबीसी छात्रों के हक़ के लिये प्रयासरत है। इस नए फोरम का स्वरुप व्यापक है और कई विश्वविद्यालयों में इसकी यूनिट है। फोरम की मुहिम के चलते अब जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में ओबीसी छात्रो को भी अन्य वंचित वर्गों की भांति तुरत हॉस्टल मिलेगा, जबकि पहले ओबीसी स्टूडेंट्स को 1 से डेढ़ साल हॉस्टल मिलने का इंतज़ार करना पड़ता था। वाईवा के मार्क्स कम करने के लिए प्रशासन ने कमिटी बनायी है, जो अगस्त तक रिपोर्ट सौपेगी। फोरम ने ओबीसी शोधार्थियों के लिये स्कालरशिप की संख्या बढाने की मांग की है। वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछड़ों का संगठन ‘सामाजिक न्याय मोर्चा’ ने त्रि-स्तरीय आरक्षण की मुहिम चलाई। सरकारी नौकरियों में प्रारंभिक-मुख्य परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक के स्तर पर मोर्चा ने प्रदेश स्तर पर आन्दोलन किया। 2013 में लखनऊ और इलाहाबाद में विशाल प्रदर्शन आन्दोलन हुए। आन्दोलन का नेतृत्व अजीत यादव, आशुतोष वर्मा, दिनेश यादव, मनोज यादव, आदर्श चौधरी व मुकुन्दलाल मौर्या अदि ने किया। राज्य सरकार द्वारा इस आन्दोलन को कुचल दिया गया यद्यपि मोर्चा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अभी भी सक्रिय है।
पिछले एक दशक में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में ओबीसी एससी एसटी वर्ग के छात्रों की संख्या बढ़ी है। स्क्रॉल न्यूज बेवसाईट में कार्यरत पत्रकार एजाज़ अशरफ ने एक लेख में हैदराबाद विश्वविद्यालय, जेएनयू और इलाहाबाद विश्वविद्यालय इन वर्गों के स्टूडेंट्स के आंकड़े बताये हैं। हैदराबाद यूनिवर्सिटी में वर्ष 2013-14 के सत्र तक 59%, जेएनयू में 52% तथा इलाहबाद यूनिवर्सिटी में 54% तक पिछड़े तबको के स्टूडेंट्स पहुँच गये हैं। इस बढ़ी हुई संख्या के फलस्वरूप छात्र राजनीति का स्वरुप भी बदल गया है। हाल में हैदराबाद यूनिवर्सिटी मे रोहिथ वेमुला की आत्महत्या से उपजा आन्दोलन अभी तक का सबसे बड़ा दलित-बैकवर्ड का साझा छात्र आन्दोलन है। देश के सभी कैम्पसों से रोहित एक्ट बनाने की मांग के साथ दलित-पिछड़ों के आरक्षण को पूरी तरह से लागू करने की मांग की जा रही है। इसमें पिछड़े वर्ग के छात्रों की अधिकतम भागेदारी रही। अतः कैंपसों में पिछड़े वर्ग के छात्र आन्दोलन मुद्दों को लेकर सक्रिय हो रहे हैं और जय भीम के साथ जय मंडल की वैचारिकी को मजबूत कर रहे हैं। देश के कैपसों में ओबीसी वर्ग के छात्रों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रोफेसर्स की संख्या नगण्य है। एक RTI के मुताबिक देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों ओबीसी शिक्षकों की संख्या आज भी शर्मनाक ढंग से कम है ।
केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एससी/एसटी/ओबीसी कोटा के तहत और अन्य शैक्षणिक कर्मियों की संख्या :
प्रोफ़ेसर | रीडर | एसएल/एसजी | लेक्चरर | अन्य | कुल | |
---|---|---|---|---|---|---|
आवंटित पद | 1943 | 3744 | --- | 7078 | 749 | 13514 |
मौजूदा संख्या | 2563 | 2931 | 451 | 2327 | 580 | 8852 |
एससी | 25 | 79 | 30 | 422 | 12 | 568 |
एसटी | 11 | 29 | 10 | 211 | 7 | 268 |
ओबीसी | 4 | 4 | 1 | 233 | 3 | 245 |
पीएच | 6 | 7 | 0 | 30 | 2 | 45 |
उच्च जाति | 2523 | 2819 | 410 | 1461 | 558 | 7771 |
एससी +एसटी +ओबीसी | 40 | 112 | 41 | 866 | 22 | 1081 |
एससी + एसटी + ओबीसी | 1.5% | 3.8% | 9% | 3.7% | 3.7% | 12.2% |
(आर टी आई न.- 6-4/2009, केंद्रीय विश्वविद्यालय, यू जी सी,दिनांक – 7th Jan, 2011, फारवर्ड प्रेस, 8 जून, 2016)
इस कारण कैम्पसों में छात्रों और फैकल्टी के बीच असंतुलन पैदा हो गया है। पिछड़े वर्ग के के छात्रो के हिसाब से प्रोफ़ेसरो की नियुक्ति नहीं हो पा रही है। पूरे देश में ओबीसी वर्ग से मात्र चार प्रोफ़ेसर हैं। पिछले एक दशक में ओबीसी वर्ग के छात्रों ने बड़ी संख्या में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है, लेकिन कैपसों में व्याप्त सवर्णवाद के कारण वे फैकल्टी नहीं बन पा रहे हैं।
कैंपसों में अब छात्र संगठन दलित-पिछड़े के मुद्दों पर मुखर हुए है और वहां व्याप्त जातिवाद के खिलाफ लामबंद हो रहे है। कैम्पस में व्याप्त ब्राह्मणवादी-जातिवादी समूह से सामाजिक न्याय का समूह आपने-सामने है। लेकिन अभी भी ओबीसी की छात्र राजनीति शैशवावस्था में है। सवर्ण प्रभुत्व वाले दक्षिणपंथी और वामपंथी छात्र संगठनों के सामने ओबीसी छात्र संगठनों को वजूद बनाने में अभी समय लगेगा। स्तुतः ओबीसी की भांति दलितों और आदिवासियों का भी राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी छात्र संगठन नहीं है। अतः एक बहुजन वैचारिकी के छात्र संगठन की जरूरत है।
स्रोत-
- Mandal Commission http://www.simplydecoded.com/wp-content/uploads/2013/01/Mandal-commission-report. pdf
- Oommen, T. K. (2014), Social Inclusion in Independent India, New Delhi: Orient Black Swan
- Rao, Kondal, K (2015), OBC and State Policy, New Delhi: Critical Quest
- Scroll, 4thApril, 2016, http://scroll.in/article/805919/the-seeds-of-todays-ferment-in-central-universities-were-sown-in-2006
5.The Times of India, October 25, 2012
6. रंजन , प्रमोद (2016), “बहुजन विमर्श के कारण निशाने पर है जेएनयू”, फारवर्ड प्रेस