जेएनयू के केन्द्रीय पुस्तकालय का नाम डॉ. बीआर आंबेडकर के नाम पर रखने का विश्वविद्यालय प्रशासन का हालिया निर्णय, हिन्दुत्ववादी शक्तियों के आंबेडकर पर कब्जा जमाने की मुहिम का हिस्सा है। आरआरएस से संबद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अभाविप) ने मीडिया व अन्य माध्यमों से, केन्द्रीय पुस्तकालय को नया नाम देने के लिए अपने ‘संघर्ष’ का जोरदार प्रचार शुरू कर दिया है। अभाविप का मीडिया मैनेजमेंट सफल होता दिख रहा है। कई समाचारपत्रों ने अभाविप नेता व जेएनयू छात्रसंघ के सहसचिव सौरभ कुमार शर्मा का इस आशय का वक्तव्य प्रमुखता से प्रकाशित किया है। एक अन्य हिन्दुत्ववादी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, जो जेएनयू से जुड़े किसी भी मसले पर टिपण्णी करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते, ने भी अभाविप की पीठ थपथपाई। उन्होंने ट्वीट कर इस निर्णय का स्वागत किया और इसे ‘सांस्कृतिक क्रांति’ बताया। वे शायद यह भूल गए कि यह उस माओवादी विचारधारा से जुड़ा शब्द है, जिससे वे शायद सबसे अधिक नफरत करते हैं।
केन्द्रीय पुस्तकालय में बाबासाहेब की एक मूर्ति स्थापित करने के अलावा अभाविप की अन्य मांगें हैं-खेल के मैदान एवं सम्मेलन केन्द्र का नाम क्रमशः आदिवासी क्रांतिकारी बिरसा मुण्डा एवं पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रखा जाना। कहने की जरूरत नहीं कि ये प्रतीकात्मक मांगें दलितो, आदिवासियों एवं मुसलमानों, जैसे वंचित वर्गों को खुश करने के लिए की जा रही है।
अभाविप के कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि पुस्तकालय का नाम बदलने की उनकी ‘उपलब्धि’ से वे निचली जाति के विद्यार्थियों, विशेषकर दलितों को लुभा पाएंगे। चूंकि जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव शीघ्र ही होने हैं, इसलिए हिन्दुत्ववादी संगठन अपना सामाजिक आधार बढ़ाने के लिए यह दिखावा कर रहे हैं।
एक लंबे अर्से से मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों ने आंबेडकर की अनदेखी की है परंतु आंबेडकरवादी सामाजिक एवं राजनैतिक आंदोलनों और दलितों में बढ़ती चेतना के कारण उन्हें यह महसूस हो रहा है कि उन्हें वंचित वर्गों में अपना सामाजिक आधार बढ़ाने के लिए आंबेडकर की जरूरत है। इस उद्देश्य से उन्होंने आंबेडकर को अंगीकार करने का अभियान प्रारंभ किया। किंतु दलित यह महसूस करते हैं कि मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों के रूख में इस परिवर्तन की मुख्य वजह आंबेडकर के विचारों के प्रति उनके नजरिए में आया बदलाव नहीं बल्कि अपना अस्तित्व बचाना है।
इस बीच जेएनयू का सामाजिक ताना-बाना भी तेजी से बदल रहा है। आंबेडकरवादी आंदोलन से प्रेरणा लेकर एवं आरक्षण तथा अन्य सरकारी कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होकर वंचित वर्गों के छात्र अधिकाधिक संख्या में इस उच्च शिक्षा संस्थान, जहां पहले उच्च जाति/वर्ग के छात्रों का बोलबाला था, में पहुंच रहे हैं। सन् 2007 में ओबीसी के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण प्रारंभ होने से दलितबहुजनों का इन संस्थानों में प्रभाव बढ़ा।
यह परिवर्तन कम से कम तीन क्षेत्रों में नजर आयाः सामाजिक बुनावट में बदलाव, सार्वजनिक संस्कृति का दलितीकरण एवं दलितबहुजन एजेंडे का अंगीकार किया जाना। विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि में आया यह बदलाव नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जेएनयू के 45वें वार्षिक प्रतिवेदन (2014-15) के अनुसार, जेएनयू के कुल 8308 छात्रों में से 4287 दलितबहुजन (1201 दलित 643 आदिवासी 2443 ओबीसी) थे। मोटे तौर पर, कुल छात्रों में से लगभग 50 प्रतिशत गैर उच्च जातियों के हैं। अगर इनमें अन्य वंचित वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को भी जोड़ दिया जाए तो उच्च जातियों का प्रतिशत और भी घट जाएगा।
इस पृष्ठभूमि में विश्वविद्यालय में सक्रिय वामपंथी संगठनों ने सबसे पहले अपनी रणनीति में बदलाव किया। दलितबहुजन प्रतीकों की अब तक उपेक्षा करने वाले इन संगठनों ने अपना सुर बदला और वामपंथ और अंबेडकरवादियों की ‘एकता’ पर जोर देना शुरू किया। जेएनयू के वामपंथी संगठनों के पदाधिकारियों के वस्त्रों पर अंबेडकर, पेरियार, बिरसा मुण्डा और फुले नजर आने लगे। पोस्टरों, पर्चों और बैजों पर दलितबहुजन नायकों और नायिकाओं की मौजूदगी बढती गई और मार्क्सवादी प्रतीकों जैसे मार्क्स, लेनिन, ट्रोटोस्की, स्टालिन एवं माओ गायब होते गए।
हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा अंबेडकर को अपनाने की कोशिश हिन्दुत्वादी संगठनों को भी महसूस हुआ कि उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी। सन् 2000-01 में संदीप महापात्र के अध्यक्ष बनने के बाद से जेएनयू छात्रसंघ में अभाविप की उल्लेखनीय उपलब्धि पिछले साल सेन्ट्रल पैनल द्वारा जीती गई एक सीट ही है। अभाविप की इन चुनावी असफलताओं का एक संभावित कारण यह है कि उत्तर भारत के उच्च जातियों के छात्रों के अलावा, अन्य छात्रों में अपना प्रभाव कायम करने में वह असफल रही है। पिछले दशक में अभाविप का प्रभाव न बढ़ने की वजह यह है कि वह उत्तर भारत के अलावा अन्य क्षेत्रों के छात्रों को अपने काडर में लाने में असफल रही है। सौरभ कुमार शर्मा इस तर्क का समर्थन करते हुए नजर आते हैं जब वे यह दावा करते हैं कि जेएनयू में अध्ययनरत भारत के सभी क्षेत्रों जैसे ओडिशा, बंगाल, असम, कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश आदि के छात्र अब अभाविप के सदस्य बन रहे हैं। ये वे क्षेत्र हैं जिनमें परंपरागत रूप से हिन्दुत्ववादी शक्तियों का प्रभाव नहीं रहा है।
प्रेक्षकों के अनुसार, गैर-हिंदी भाषी समूहों में अभाविप का प्रभाव बढ़ाने में, संगठन की इस प्रतीकवादी, दिखावटी रणनीति- जिसके अंतर्गत वह निचली जाति के प्रतीकों जैसे अंबेडकर को अपना रहा है- ने कुछ हद तक मदद की है। आंबेडकर जयंती एवं महापरिनिर्वाण दिवस पर पिछले कुछ वर्षों से अभाविप कार्यक्रम आयोजित करती आई है। यहां तक कि 9 फरवरी की घटना से जुड़े ‘राष्ट्रविरोधियों’ के विरूद्ध की गई कार्यवाही के समर्थन में जेएनयू में अभाविप द्वारा की गई भूख हड़ताल जिस स्थान पर आयोजित की गई थी, वहां आंबेडकर एवं भारत माता की तस्वीरें अगल-बगल रखी गईं थीं और दीवार पर लिखा था ‘जय भीम’।
यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दुत्ववादी, डॉ आंबेडकर को एक ऐसे ‘हिन्दू समाजसुधारक’ व ‘पक्के राष्ट्रवादी’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसने संविधान के निर्माण में अहम् भूमिका निभायी और जो मुस्लिम ‘अलगाववाद’ और साम्यवादियों की ‘राज्य क्षेत्रातीत वफादारी’ का घोर विरोधी था। अभाविप की एक और रणनीति है-दलितों के दिलोदिमाग में मुसलमानों के प्रति संदेह और घृणा के बीज बोना। अभाविप का कहना है कि दलितों की स्थिति में ‘गिरावट, मुस्लिम ‘आक्रान्ताओं’ के भारत में आगमन के साथ आई। इस प्रचार का लक्ष्य इस्लाम और ईसाई धर्म को विदेशी बताकर उनका दानवीकरण करना है। हाल में जारी अभाविप के एक पोस्टर में, आंबेडकर का चित्र भगवा पृष्ठभूमि में प्रकाशित किया किया गया और उसमें दलितों को यह चेतावनी दी गयी कि वे इस्लाम या ईसाई धर्म को अपनाकर स्वयं को ‘अराष्ट्रवादी’ न बनाएं। पोस्टर में आंबेडकर को यह कहते हुए उद्धत किया गया है कि, “धर्मपरिवर्तन के राष्ट्र पर समग्र रूप से पड़ने वाले प्रभाव को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने से दलितों का ‘अराष्ट्रवादीकरण’ हो जायेगा”।
अभाविप यह भी कहती आ रही है कि दलित ‘निष्ठावान हिन्दू’ थे, जिन्हें इसलिए बदहाली में ढकेल दिया गया क्योंकि उन्होंने मुस्लिम शासकों के ‘दमन’का विरोध किया और ‘जोर-जबरदस्ती’ से इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया। दलितों व मुसलमानों के बीच किसी भी तरह के विवाद को सनसनीखेज बनाकर, सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। बार-बार यह दोहराया जाता है कि अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय व जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे मुस्लिम वर्चस्व वाले संस्थान, अनुसूचित जातियों को आरक्षण प्रदान करने से लगातार इंकार करते आये हैं। दलितों को वामपंथियों के खिलाफ भड़काने के लिए अभाविप यह दावा कर रही है कि आंबेडकर, साम्यवादियों के विरोधी थे। यह इस तथ्य के बावजूद कि हिंदुत्ववादियों के विपरीत, श्रमिकों के हित आम्बेडकर के लिए सर्वोपरि थे और उन्होंने साम्यवादियों के साथ मिलकर काम किया था। अभाविप यह भी कहती है कि अपने जीवन में बहुत दुःख और परेशानियाँ झेलने के बाद भी आंबेडकर ने वर्गीय शत्रुता पैदा करने की कोशिश नहीं की बल्कि वे समाज में समरसता के लिए काम करते रहे।
यह महत्वपूर्ण है कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के वामपंथी विमर्श को, सामाजिक एकता को तोड़ने के प्रयास और देश की एकता के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। अभाविप का 18 जनवरी, 2016 को जारी एक परचा, साम्यवादियों पर कटु हल्ला बोलता है, “राज्यतंत्र पर हमले के पीछे वामपंथियों के छुपे हुए एजेंडे को हमें समझना होगा। यह तंत्र उस संविधान के तहत संचालित होता है, जिसके निर्माता स्वयं बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर थे। इस संविधान और इस राज्यतंत्र से साम्यवादियों की चिढ़ का कारण साफ है। उन्हें पारदर्शी ढंग से काम करना आता ही नहीं है….भारतीय वामपंथियों का यह इतिहास रहा है कि वे पहले अपने नारों से युवाओं को भड़काते और भरमाते हैं और फिर उनका इस्तेमाल भारतीय राज्य और इसके नागरिकों के खिलाफ करते हैं। हमें एसएफआई के पितृसंगठन सीपीएम के शर्मनाक इतिहास को नहीं भूलना चाहिए। इसकी स्थापना उन साम्यवादी नेताओं ने की थी जो 1962 के युद्ध के समय चीन के लिए जासूसी करते थे”।
जहाँ अभाविप अपने को बाबासाहेब और उनके बनाये हुए संविधान का ‘अनुयायी’ और ‘प्रशंसक’ बताते हुए साम्यवादियों पर हमले कर रही है वहीं इस संस्था ने कभी अपने पितृ संगठन आरएसएस से यह नहीं पूछा कि वह आंबेडकर के आदर्शों के विरुद्ध आचरण क्यों करती है। आंबेडकर, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के हामी थे जबकि हिन्दुत्ववादी शक्तियां ब्राह्मणवाद और असमानता की पोषक हैं और समाज को ध्रुवीकृत और विभाजित करना चाहती हैं।
इन सब के सहारे, अभाविप नीची जातियों के कुछ विद्यार्थियों को अपने साथ लेने में सफल हो गयी है और यही कारण है कि हिन्दुवावादी शक्तियां इन दिनों अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली नजर आ रही हैं। जहाँ तक ऊँची जातियों के विद्यार्थियों का प्रश्न है, वे लम्बे समय से स्वयं को ‘प्रगतिशील’ राजनीति के हमराह बताते आ रहे हैं परन्तु अब उनकी घरवापसी हो रही है। वे हिन्दुत्ववादी शक्तियों के प्रभाव में वृद्धि के साथ, उनके साथ जुड़ रहे हैं।
अपने एक साक्षात्कार में अभाविप की जेएनयू इकाई के जानेपहचाने चेहरे संदीप कुमार सिंह ने हवा के रुख में आए इस परिवर्तन की चर्चा करते हुए यह स्वीकार किया कि नीची जातियों के विद्यार्थी बड़ी संख्या में अभाविप से जुड़ रहे हैं। संदीप, बिहार के ओबीसी हैं और अंतररार्ष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में शोधार्थी हैं। वे कहते हैं, ‘‘आज अभाविप में दलितों और पिछड़ों का वर्चस्व है। अभाविप की जेएनयू इकाई के हर 10 में से 8 सदस्य ओबीसी या एससी हैं। इकाई के अध्यक्ष व महासचिव क्रमशः बिहार व राजस्थान के ओबीसी हैं। सिंह ने सन् 2012 में जेएनयू छात्रसंघ के महासचिव पद का चुनाव लड़ा था। यह पूछे जाने पर कि दलित और ओबीसी किसी भी ऐसे संगठन में वर्चस्वशाली कैसे हो सकते हैं, जिसने अब तक ब्राहम्णवाद और मनु की विचारधारा को खारिज नहीं किया है, सिंह कहते हैं ‘‘आज मनु की पूजा कौन कर रहा है? मनु की विचारधारा मर चुकी है। ये मुद्दे वे लोग उठाते हैं जो भारतीय समाज को विभाजित करना चाहते हैं। कम्युनिस्ट चाहे जो कहें, अभाविप दलितों के विरूद्ध नहीं है। हम तो समरस समाज का निर्माण करना चाहते हैं। परंतु एक चीज पक्की है। हमारा नेतृत्व दलितों और पिछड़ों के हाथों में रहेगा।
क्या नेतृत्व सचमुच दलितों और पिछड़ों के हाथों में है? कतई नहीं। अभाविप का शीर्ष नेतृत्व आज भी ऊँची जातियों का है। हाल में अभाविप के नीची जातियों के कई सदस्यों ने इस भगवा संगठन से किनारा कर लिया और रोहित वेमूला की ‘‘संस्थागत हत्या” और धर्मनिरपेक्ष संस्थानों पर हमले के विरोध में मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं। इस पृष्ठभूमि में सिंह का दावा अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है। परंतु यह सच है कि अभाविप में निचले स्तर पर नीची जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है।
यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू दक्षिणपंथी, वंचित वर्गों की जातियों को आपस में विभाजित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। वे अपने ढंग की पहचान की राजनीति करते हैं। उदाहरणार्थ, जब वे किसी जाति विशेष के उम्मीदवार को चुनाव लड़वाते हैं तब अपने विरोधियों को कमजोर करने के लिए वे विद्यार्थियों से जाति के आधार पर वोट देने की अपील करते हैं।
अपमानजनक व नीचा दिखाने वाला
आंबेडकर पर कब्जा जमाने की अभाविप की राजनीति का आंबेडकरवादी लगातार विरोध करते आए हैं। बाबा साहेब आंबेडकर की क्रांतिकारी विरासत और मुखर आंबेडकरवादी आंदोलन, हिन्दुत्ववादियों के लिए हमेशा एक बड़ी चुनौती रहे हैं।
उदाहरणार्थ, ‘युनाईटेड दलित स्टूडेन्टस फोरम’ ने केन्द्रीय पुस्तकालय का नाम आंबेडकर पर रखे जाने के अभाविप के प्रयासों का असली मंतव्य समझने में देरी नहीं की। फोरम के सबसे ताजा पर्चे का शीर्षक है, ‘‘आंबेडकर को हिन्दुत्ववादी न तो अंगीकार कर सकते हैं और न उन पर कब्जा जमा सकते हैं। पर्चे में कहा गया है कि लायब्रेरी के नाम बदलने का हिन्दुत्ववादी अभियान, ‘‘आंबेडकर का अपमान’’ है और यह कि आंबेडकर को मुख्यधारा के वे दल याद कर रहे हैं जो कि अब तक उनकी उपेक्षा करते आ रहे थे।
इस तर्क में दम है। उदाहरणार्थ, केन्द्रीय पुस्तकालय, जो जल्दी ही डा. आंबेडकर पुस्तकालय कहलाएगा, में आंबेडकर के संपूर्ण वांग्मय की पर्याप्त प्रतियां उपलब्ध नहीं हैं। आंबेडकर पीठ और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोशल एक्सक्लूजन धन की कमी से जूझ रहे हैं। दलित स्टूडेंटस फोरम के अतिरिक्त अन्य आंबेडकरवादी विद्यार्थियों ने भी हिन्दू दक्षिणपंथियों की इस चाल की खुलकर भर्त्सना की। जेएनयू के पीएचडी शोधार्थी जदुमनी महानंद ने एक वेबसाईट पर इस प्रयास की कड़ी आलोचना करते हुए उसे ‘‘अपमानजनक’’ बताया। यह अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि आने वाले समय में हिन्दू दक्षिणपंथी, आंबेडकर पर कब्जा जमाने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते रहेंगे वहीं आंबेडकरवादी इस षड़यंत्र का पर्दाफाश करने में कोई कसर बाकी न रखेंगे।