लैंगिक अल्पसंख्यकों (एलजीबीटीआईक्यू+) के प्रति भारत की असंवेदनशीलता एक बार फिर तब सामने आई जब एक जनहित याचिका के ज़रिए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को चुनौती दी गई और जब एलजीबीटी के प्रति भेदभाव समाप्त करने के लिए एक स्वतंत्र विशेषज्ञ की नियुक्ति करने संबंधी प्रस्ताव को पारित करते समय संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की बैठक में भारत का प्रतिनिधि उपस्थित नहीं हुआ।
अधिकांश लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि कर्नाटक के ट्रांसजेंडरों ने राज्य सरकार से यह अनुरोध किया है कि जाति या धर्म के आधार पर वर्गीकृत करने की बजाए, उन्हें एक अलग वर्ग के रूप में मान्यता दी जाए। यह मांग तब उठी जब कर्नाटक सरकार ने जाति के आधार पर वर्गीकृत करने की बात कही ताकि आवास निर्माण के लिए उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाई जा सके।
कर्नाटक के लैंगिक अल्पसंख्यकों के सामाजिक-आर्थिक समावेशीकरण और उनके गरिमापूर्ण जीवन के लिए संघर्षरत कर्नाटक सेक्सुअल माइनोरिटीज़ फोरम के सदस्य और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता केमलप्पा का कहना है कि ‘‘ट्रांसजेंडरों के लिए जाति और वर्ग अप्रसंगिक हैं। हम में से अधिकांश या तो सामाजिक बहिष्कार भुगत रहे हैं या भुगत चुके हैं और हम सब की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। हम चाहे किसी भी धर्म या जाति के हों हमारी लैंगिक पहचान एक है और हमें एक-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। परंतु हम जातिगत, लैंगिक और वर्गीय अधिकार आंदोलनों के पुराने कार्यकर्ताओं के अनुभवों से लाभ उठा सकते हैं।’’ 28 वर्षीय केमलप्पा, उत्तर कर्नाटक के निवासी हैं और वे उन लगभग 100 व्यक्तियों में शामिल थे, जिन्होंने बैंगलोर में हाल में ‘‘क्लास, कास्ट एंड जेंडर आइडेन्टिटी अमंग ट्रांसजेंडर्स इन कर्नाटक’’ विषय पर आधारित राज्यस्तरीय परिचर्चा में भाग लिया। इस परिचर्चा का आयोजन, ट्रांसजेंडरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कई संगठनों और समूहों ने मिलकर किया था।
कर्नाटक के ट्रांसजेंडर, लंबे समय से सरकार से यह अनुरोध करते आ रहे थे कि उनकी आवास संबंधी समस्याओं को सुलझाया जाए। उन्हें समाज घृणा की दृष्टि से देखता है और इसलिए उन्हें रहने की जगह बहुत कठिनाई से मिल पाती है। अगर कोई उन्हें किराए पर मकान देता भी है तो उनसे बहुत अधिक किराया वसूल किया जाता है। नतीजा यह कि अधिकांश ट्रांसजेंडर सड़कों पर रहने को मजबूर हैं। कर्नाटक सरकार ने बिना सोच विचार के ट्रांसजेंडरों से कहा कि वे अपनी जाति का ब्यौरा दें और अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और इसी तरह की अन्य संस्थाओं से आवास के लिए आर्थिक सहायता मांगे। परंतु ट्रांसजेंडरों ने इस प्रस्ताव को खारित कर दिया। उनका कहना है कि उनके लिए उनकी लैंगिक पहचान सबसे महत्वपूर्ण है और अपनी जाति व धर्म की अपेक्षा वे उसे ज्यादा महत्व देते हैं, ।
कुछ ट्रांसजेंडर अपनी लैंगिक पहचान या यौन अभिमुखता को उजागर नहीं करते क्योंकि उन्हें डर होता है कि इसके कारण उनका मज़ाक उड़ाया जाएगा, उनके साथ भेदभाव होगा और उन्हें ज्ञात और अज्ञात लोगों के हाथों यौन व शारीरिक हिंसा भोगनी पड़ेगी। कुछ युवा ट्रांसजेंडरों के परिवारों के सदस्य मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं या डाक्टरों से उनका ‘इलाज’ करवाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि वे यह मानते हैं कि उनकी लैंगिक पहचान एक बीमारी है। इससे भी उनके जीवन की परेशानियां बढ़ती हैं। कुछ ट्रांसजेंडरों को विपरीत लिंग के असमलैंगिक व्यक्तियों से विवाह करने को मजबूर किया जाता है। इस तरह की असंवेदनशीलता के कारण कई ट्रांसजेंडर युवा अवस्था में ही अपने घर छोड़ देते हैं। कुछ अपने से विपरीत लिंग की पोशाकें नहीं पहनते या निर्वाण (बंध्याकरण का पारंपरिक तरीका) या सर्जरी के ज़रिए अपनी शारीरिक संरचना को बदलकर दूसरे लिंग का व्यक्ति बनने का प्रयास करते हैं। कुछ ट्रांसजेंडर महिलाएं हमाम (एक ऐसा स्थान जहां पर वरिष्ठ हिजड़े के संरक्षण में अन्य हिजड़े रहते हैं) में रहने लगती हैं और अपनी आय का एक हिस्सा हमाम को अर्पित करती हैं।
बैंगलोर के 27 वर्षीय ट्रांसजेंडर कुमार बी कहते हैं, ‘‘दसवीं क्लास तक पढ़ाई करने के बाद मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया क्योंकि मेरे परिवार और समाज ने मेरी लैंगिक पहचान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। मैं घर छोड़कर दो महीने तक अपने एक मित्र के साथ रहा। मैंने एक फैक्ट्री में काम करना शुरू किया, परंतु वहां भी मुझे यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। मेरे माता-पिता को जब यह पता चला कि मैं कहां हूं तो वे मुझे लेकर बैंगलोर के एक एनजीओ में गए जहां मेरी और उनकी दोनों की काउंसिलिंग की गई।’’ उसके बाद कुमार, मानवाधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ से जुड़ गए और अपने परिवार के साथ रहने लगे। वे अपने परिवार की आर्थिक मदद करते हैं और उनके अनुरोध पर पेंट-कमीज़ पहनते हैं।
बाद में कुमार उसी संस्था के ‘क्राईसिस इंटरवेंशन दल’ के सदस्य बन गए। तत्पश्चात उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘पयाना’ नामक एनजीओ की स्थापना की। बैंगलोर स्थित यह एनजीओ लैंगिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करता है। यदि ट्रांसजेंडर पुलिस या अन्यों के द्वारा अपने उत्पीड़न का विरोध करते हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। ऐसे मामलों में उनकी मदद के लिए ऐसे दलों की ज़रूरत होती है, जो तुरंत उन्हें सहायता उपलब्ध करवा सकें। ट्रांसजेंडरों पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वे ट्रैफिक सिग्नलों, बस स्टैण्डों, ट्रेनों आदि में लोगों को परेशान करते हैं, परंतु कोई यह समझने का प्रयास नहीं करता कि वे सार्वजनिक स्थानों पर अपना जीवन काटने के लिए क्यों मजबूर हैं। सन 2011 में कर्नाटक पुलिस अधिनियम में एक नई धारा 36-ए जोड़ी गई, जिसके तहत पुलिस को यह अधिकार दिया गया कि वह ऐसे हिजड़ों के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर सकगी जिन पर यह संदेह है कि वे बच्चों को अगवा करते हैं या युवाओं को जबरदस्ती ‘हिजड़ा बनाते हैं’।
जब अपीलों, विरोध प्रदर्शनों और मंत्रियों से मुलाकातों से काम नहीं बना तब कर्नाटक सेक्सुअल माइनोरिटीज़ फोरम ने सन 2015 में कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका प्रस्तुत कर धारा 36-ए को चुनौती दी और उसे रद्द किए जाने की मांग की। जनवरी 2016 में उच्च न्यायालय ने कर्नाटक सरकार को अधिनियम में संशोधन करने के लिए छः महीने का वक्त दिया और प्रकरण की सुनवाई स्थगित कर दी। अदालत ने सरकार से कहा कि वह अधिनियम में अपमानजनक ‘हिजड़ा’ शब्द की जगह ‘व्यक्ति’ या कोई अन्य उपयुक्त शब्द इस्तेमाल करे और हिजड़ों को परेशान करना बंद करे। अदालत ने ट्रांसजेंडरों से भी कहा कि वे सरकार को परेशान न करें। इस याचिका को दायर करने वालों में से एक उमेश पी कहते हैं कि ‘‘जजों ने हमारे बारे में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, उससे उनकी असंवेदनशीलता और हमारे जीवन के क्रूर यथार्थों की उनकी अज्ञानता का भान होता है’’। उमेश, लैंगिक अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता हैं और ‘जीवा’ नामक बैंगलोर स्थित एक एनजीओ के संस्थापक हैं। यह एनजीओ लैंगिक अल्पसंख्यकों के लिए सामुदायिक मीडिया और उनके मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए काम करता है। वे ‘अनन्य’ नामक एक कन्नड़ त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं। यह पत्रिका लैंगिक अल्पसंख्यकों की आवाज़ उठाती है। वे लैंगिक अल्पसंख्यकों के जीवन और उनसे संबंधित मुद्दों पर एक साप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम भी तैयार करते हैं जिसका नाम ‘जीवा डायरी’ है।
समलैंगिकों के जातिगत वर्गीकरण पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता और कर्नाटक दलित महिला वेदिके की राज्य समन्वयक यशोदा पी कहती हैं ‘‘भारतीय संविधान समानता के अधिकार की गारंटी देता है व भेदभाव और अछूत प्रथा को प्रतिबंधित करता है परंतु हमारे देश में आज भी सामाजिक-आर्थिक असमानता बरकरार है, भेदभाव जारी है और अछूत प्रथा जीवित है’’। उनका कहना है कि देश में आज भी जातिगत लैंगिक, धार्मिक, नस्लीय और अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान नहीं किया जाता। उनकी मांग है कि सरकार और समाज को ट्रांसजेंडरों को मान्यता देनी चाहिए और अपनी सोच उन पर लादे बगैर उनका और उनकी संस्कृति का सम्मान करना चाहिए।
कर्नाटक राज्य पिछडा वर्ग आयोग के अध्यक्ष एच कान्ता राजू कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल 2014 के अपने ‘ऐतिहासिक निर्णय’ में ट्रांसजेंडरों को नागरिक (‘तीसरा’ लिंग) का दर्जा दिया है। ‘‘परंतु हमें इस बात का आंकलन करना होगा कि इस निर्णय को किस हद तक लागू किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त इस तरह के व्यक्तियों को संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुरूप शिक्षा और रोजगार के अवसर भी उपलब्ध करवाए जाने चाहिए’’। वे कहते हैं ‘‘वर्ग और जाति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। जाति-आधारित आरक्षण के विरोधी इस गलत धारणा का शिकार हैं कि आरक्षण का यह प्रावधान केवल दस वर्षों के लिए था। योजना यह थी कि आरक्षण जब तक जारी रहेगा तब तक भेदभाव पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाता। मूल बात यह है कि ट्रांसजेंडर समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप और उनसे विचार विमर्श के बार संबंधित नीतियां बनाई जानी चाहिए’’।
ट्रांसजेंडरों के लिए मतदाता परिचयपत्र और राशन कार्ड बनवाना मुश्किल होता है क्योंकि ये दस्तावेज जिन प्रमाणपत्रों के आधार पर बनाए जाते हैं उनमें संबंधित व्यक्ति के लिंग का विवरण आवश्यक होता है। वीना एस, दक्षिण भारत की पहली ऐसी ट्रांसजेंडर महिला थीं, जिन्होंने किसी सार्वजनिक पद के लिए चुनाव लड़ा। सन 2010 में बैंगलोर नगर निगम चुनाव में उम्मीदवारी के लिए उन्हें अपना जाति प्रमाणपत्र बनवाने में खासी परेशानी झेलनी पड़ी। अनु, जो कि कर्नाटक उच्च न्यायालय में लिपिक हैं, उन चंद भाग्यशाली ट्रांसजेंडरों में से हैं जिन्हें संगठित क्षेत्र में उपयुक्त रोजगार उपलब्ध हो सका है। ऐसी नौकरियों के लिए स्नातक या स्नात्कोत्तर डिग्री की आवश्यकता होती है और अधिकांश ट्रांसजेंडर भेदभाव और उत्पीड़न के कारण अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़ देते हैं। चूकि उनके पास उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आवश्यक योग्यता ही नहीं होती इसलिए वे सरकारी वजीफों का लाभ भी नहीं उठा पाते। अधिकांश या तो भिक्षावृत्ति करते हैं या सेक्स वर्कर बन जाते हैं।
मानवाधिकार कार्यकर्ता सोनू एन और वीडियोग्राफर क्रिस्टी राज ट्रांसजेंडर ‘पुरूष’ हैं। इस श्रेणी के ट्रांसजेंडरों के बारे में समाज में और भी कम समझ है और इसलिए कोई उनकी उपस्थिति का संज्ञान तक नहीं लेता। शौचालयों, अस्पतालों के वार्डों, सार्वजनिक वाहनों की सीटों आदि का लैंगिक आधार पर विभाजन होने के कारण भी ट्रांसजेंडरों को परेशानी उठानी पड़ती है। इन समस्याओं से निपटने के लिए कर्नाटक के ट्रांसजेंडर संगठनों के प्रतिनिधियों ने एक बैठक में सरकार से यह अनुरोध किया कि वह ट्रांसजेंडरों के लिए एक अलग नीति बनाए, स्वायत्त ट्रांसजेंडर आयोग की स्थापना करे और ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड का गठन करे। कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार के विजेता, ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता, जनहित याचिका दायर करने वालों में से एक और बच्चों, महिलाओं और लैंगिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले बैंगलोर के एनजीओ ‘ओनडेडे’ के संस्थापक अक्कई पद्मशाली कहते हैं ‘‘हमें तीसरा लिंग क्यों कहा जाता है? पहले और दूसरे लिंग कौन से हैं?’’