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भारतीय मानवशास्त्र के मनुवादी पूर्वग्रह

अभिजीत गुहा बता रहे हैं कि किसी भी देश के राष्ट्रीय मानवशास्त्र का विकास, राष्ट्रवाद से जुड़े मुद्दों के प्रति धर्मनिरपेक्ष और देशी दृष्टिकोण रखे बिना नहीं हो सकता। साथ ही वे दो मानवशास्त्रियों के अध्ययनों की स्वीकृति-अस्वीकृति के आधार पर यह भी बता रहे हैं कि भारतीय मानवशास्त्र मनुवादी पूर्वग्रह से ग्रस्त रहा है

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निर्मल कुमार बोस

प्रसिद्ध भारतीय मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस (1901-1972), जो एक समय एम.के.गाँधी के निजी सचिव भी रहे, ने एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे “आदिवासियों को जज्ब करने की हिन्दू विधि”कहा जाता है। यह विचार पहली बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस में 1941 में प्रस्तुत एक शोधपत्र में सामने आया।

बोस की संकल्पना, उड़़ीसा के पाल लहरा क्षेत्र की उनकी कम अवधि की अध्ययन यात्राओं पर आधारित थी। इस इलाके में मुख्यतः जुआंग आदिवासी समुदाय रहता है।

संकल्पना का सार यह था कि वे आदिवासी, जो अपने हिन्दू पड़ोसियों के संपर्क में आते हैं, धीरे-धीरे अपनी आदिवासी पहचान खो देते हैं और उन्हें हिन्दू पदक्रम में नीची जातियों का स्थान दे दिया जाता है। इस विचार को लोकप्रियता मिल गयी और मुख्यधारा के भारतीय मानवशास्त्रियों ने इसे स्वीकार कर लिया। बोस का शोधपत्र, भारत में मानवशास्त्र के पाठ्यक्रमों का आवश्यक अंग बन गया। किसी मानवशास्त्री के दिमाग में यह नहीं आया कि जुआंग समुदाय के रहवासी इलाकों की यात्रा कर बोस की प्रस्थापना की पुष्टि कर ली जाए। बोस की संकल्पना का भारतीय मानवशास्त्रियों पर कई पीढ़ियों तक गहरा प्रभाव रहा।

आदिवासियों के हिन्दुकरण को एक स्वाभाविक व अपरिहार्य प्रक्रिया मान लिया गया और इस संभावना पर विचार तक नहीं किया गया कि ब्राह्मणवाद के लादे जाने के खिलाफ आदिवासी किसी तरह का विरोध भी दर्ज करा सकते हैं। यह सिद्धांत हिन्दुओं द्वारा आदिवासियों के शोषण और दमन पर भी पर्दा डालता है। बाद में, भारतीय समाजशास्त्र व सामाजिक मानवशास्त्र के पितामह एम.एन श्रीनिवास ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विचार को और मजबूती देते हुए लिखा कि नीची जातियां हमेशा से द्विज जातियों की नक़ल करती आई हैं और उनके जैसी जीवनशैली अपनाना चाहतीं हैं। इस सिद्धांत को संस्कृतिकरण भी कहा जाता है और यह भारतीय विश्वविद्यालयों के मानवशास्त्र व समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन गया है।

भारतीय मानवशास्त्र और समाजशास्त्र, ‘‘आदिवासियों को जज्ब करने की हिन्दू विधि”और “संस्कृतिकरण”के आसपास घूमने लगा। एक तरह से, बोस और श्रीनिवास के प्रभाव में, भारत में मानवशास्त्र और समाजशास्त्र, हिन्दुओं और ऊंची जातियों की श्रेष्ठता का आख्यान बन गए। भौतिकवादी और धर्मनिरपेक्ष मानवशास्त्र के अध्ययन की भारत में गुंजाइश काफी कम हो गयी।

स्वाधीनता के पश्चात् जो पश्चिमी अध्येता भारत आए, उन्होंने भी जाति, ग्राम-स्तर की गतिशीलता और भारतीय सभ्यता का अध्ययन, मुख्यतः हिन्दू धर्मं के ढांचे के भीतर रहते हुए किया। इससे बोस और श्रीनिवास के मॉडलों की पुष्टि हुई। इस तरह, भारत में धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय मानवशास्त्र का विकास उसकी शैशवास्था में ही समाप्त हो गया। भारतीय मानवशास्त्र का हिन्दुकरण और पश्चिमीकरण हो गया। हम यह भूल गए कि किसी भी देश के राष्ट्रीय मानवशास्त्र का विकास, राष्ट्रवाद से जुड़े मुद्दों के प्रति धर्मनिरपेक्ष और देशीय दृष्टिकोण रखे बिना नहीं हो सकता।

book-cover_tcdआदिवासी व हिन्दुओं के एक दूसरे पर परस्पर प्रभाव पर एनके बोस व टीसी दास के विचार

तारक चन्द्र दास (1898-1964) एक अन्य अग्रणी भारतीय मानवशास्त्री थे। वे एनके बोस के समकालीन थे। भारतीय मानवशास्त्र और आदिवासी समाज के बारे में टीसी दास की सोच, बोस और श्रीनिवास से एकदम अलग थी। दुर्भाग्यवश, उनके एक एक प्रतिभाशाली मैदानी अध्येता और नृवंशविज्ञानी होने के बावजूद, उनके विचारों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। यहां तक कि उनके प्रसिद्ध विद्यार्थियों जैसे आंद्रे  बेते ने भी उन्हें बहुत महत्व नहीं दिया।

दास ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति में एमए किया और विेश्वविद्यालय में नवस्थापित मानवशास्त्र विभाग में सन् 1921 में शोध अध्येता के रूप में कार्य करना शुरू किया। सन् 1923 में वे इसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता बन गए और 1963 में रीडर के रूप में सेवानिवृत्त हुए। दास ने छोटानागपुर, जो कि तत्कालीन बिहार (और अब झारखंड) व असम का हिस्सा था, में गहन मैदानी अध्ययन किए। उन्होंने सन् 1941 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मानवशास्त्र सत्र में अध्यक्षीय उद्बोधन दिया। उन्होंने इस अवसर पर 28 पृष्ठों का एक शोधपत्र प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘कल्चरल एनथ्रोंपोलाजी इन द सर्विस आफ द इंडीविजियूवल एंड द नेशन’। इस शोधपत्र का न तो कलकत्ता विश्वविद्यालय ने पुनर्प्रकाशन किया और ना ही यह पाठयक्रम का हिस्सा बना। यह शोधपत्र भारत में व्यावहारिक मानवशास्त्र पर एक अग्रणी संदर्भ है। दास का मुख्य उद्धेश्य अपने पाठकों को यह अहसास कराना था कि सामाजिक और सांस्कृतिक मानवशास्त्र का एक व्यावहारिक विज्ञान के रूप में भारतीयों के समग्र विकास में उपयोग किए जाने की व्यापक संभावनाएं हैं। पांच हिस्सों में विभाजित अपने व्याख्यान में दास ने आधुनिक राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों-व्यापार, उद्योग, कृषि, विधि निर्माण, शिक्षा, समाजसेवा व प्रशासन-में मानवशास्त्र की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। व्याख्यान में इस बात पर जोर दिया गया कि भारतीय संदर्भ में किसी समुदाय विशेष की वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिक्षा प्रणाली के विकास में मानवशास्त्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। दास ने औपनिवेशिक शासन द्वारा आदिवासियों के लिए स्कूलों की स्थापना पर भारी धन खर्च किए जाने पर प्रश्नचिन्ह लगाया। दिलचस्प यह है कि एनके बोस ने अपना शोधपत्र ‘हिन्दू मेथड आफ ट्राईबल एब्जापर्शन’ भी इसी विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत किया। बोस का व्याख्यान सन् 1953 में ‘साईंस एंड कल्चर’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ और समय के साथ भारतीय मानवशास्त्रियों के बीच खासा लोकप्रिय हो गया। इसके विपरीत, दास का व्याख्यान, जो राष्ट्रनिर्माण की राह में बाधक व्यावहारिक और ज्वलंत समस्याओं से निपटने में मानव शास्त्र की भूमिका के संबंध में था, अंधेरे में गुम हो गया।

हिन्दू पूर्वाग्रह को उजागर करते टीसी दास के प्रबंध

कलकत्ता विश्वविद्यालय ने छोटानागपुर की हो (1927), खरिया (1931) और भूमिज (1931) जनजातियों पर दास के तीन शोधप्रबंध प्रकाशित किये, परन्तु वे भी चर्चा में नहीं आ सके। ये प्रबंध दास व उनके विद्यार्थियों द्वारा बिहार (अब झारखण्ड) में किये गए मैदानी अध्ययनों पर आधारित थे। भूमिज जनजाति पर उनके शोधप्रबंध का एक अध्याय था “व्यक्ति के जीवन के संकट’। इसमें उन्होंने जन्म, विवाह व मृत्यु से जुड़े भूमिज रिवाजों का वर्णन किया है। इसके साथ-साथ, दास ने यह भी बताया है कि किस प्रकार भूमिजों ने हिन्दू धर्म के बढ़ते प्रभाव के बावजूद, अपनी आदिवासी नस्लीय पहचान को जीवित रखा। ब्रिटिश राज में संचार व आवागमन की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी के साथ, हिन्दू धर्म ने इस इलाके में अपने पांव पसार लिए। एनके बोस के विपरीत, टीसी दास ने जमीनी परिस्थितियों पर अधिक ध्यान दिया, विशेषकर परिवर्तन के दौर से गुजर रहे भूमिजों की देशीय सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के मुद्दे पर।

आईये, हम निर्मल कुमार बोस के लेख ’द हिन्दू मेथड ऑफ़ ट्राइबल एब्सोर्पशन’ (1953) व तारक चन्द्र दास के भूमिजों पर केंद्रित शोधप्रबंध में व्यक्त विचारों की तुलना करें। उड़ीसा के जूआंग, उस इलाके से बहुत दूर नहीं रहते थे, जहाँ भूमिजों की आबादी थी और दोनों ने अपने मैदानी अध्ययन लगभग एक ही समय किये थे-सन 1926 से 1928 के बीच। बोस कहते हैं कि यद्यपि जूआंग आदिवासी हैं तथापि वे धीरे-धीरे हिन्दू धर्म का हिस्सा बन रहे हैं और वहां उन्हें जातिगत पदक्रम के निचले पायदानों पर जगह दी जा रही है। इसके विपरीत, दास की रूचि भूमिजों के जीवन को इतिहास और नृवंश विज्ञान के परिप्रेक्ष्य से देखने में थी और वे किसी सिद्धांत का प्रतिपादन करने की जल्दी में नहीं थे। बोस का जूआंगों का नृवंशीय अध्ययन बहुत कम अवधि का था और वे केवल एक जूआंग अनुष्ठान का वर्णन करते हैं, जिसमें एक हिन्दू देवी की पूजा की जाती है। बोस की इसमें कोई रूचि नहीं थी कि क्या जूआंग या अन्य ऐसी जनजातियों, जो वर्चस्ववादी हिन्दू धर्म के संपर्क में आ रही थीं, में हिन्दू रीति-रिवाजों को अपनाने के प्रति किसी तरह के प्रतिरोध का भाव है। बोस का निष्कर्ष सीधा था- चूँकि हिन्दू और उनकी जाति व्यवस्था, आर्थिक दृष्टि से जूआंग जैसी जनजातियों से बेहतर थीं और चूँकि जाति व्यवस्था में ऐसे समूहों का गठन किया जा सकता था, जो वंशानुगत होते थे और जिनमें आपस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी,  परन्तु जिनमें सांस्कृतिक प्रथाओं के क्षेत्र में कुछ हद तक स्वतंत्रता उपलब्ध थी, इसलिए जनजातियों ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया और धीरे-धीरे उसका हिस्सा बन गए। इसकी तुलना, भूमिजों पर उनकी पुस्तक में दिए गए दास के विचारों से कीजियेः

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एक पारंपरिक नृत्य करतीं भूमिज जनजाति की महिलाएं

“(परन्तु) जनजातियों का आज़ादी-पसंद तबका, ब्रिटिश वर्चस्व और हिन्दू संस्कृति के आगे बढ़ते क़दमों के सामने झुकने की बजाय, पीछे हट गया और उसने पहाड़ों की कंदराओं और साल के जंगलों में शरण ली। उसने अपने समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए, सामाजिक वर्जनाओं की दीवारें खड़ी कर लीं। कुछ इसी तरह का व्यवहार, कोलेहन के अंदरूनी हिस्सों में रहने वाले हो जनजाति के सदस्यों ने भी किया, जिसका वर्णन हमने हो पर अपने शोध प्रबंध में भी किया है’’ (दास, 1931:8)

बोस का ’हिन्दू विधि’के प्रति प्रेम इस हद तक था कि उन्होंने, 1953 के अपने शोधपत्र में, टीसी दास के 1922 में प्रकाशित पहले शोधप्रबंध हाई कास्ट हिन्दू मैरिज इन बंगाल विथ स्पेशल रिफरेन्स टू इट्स फोक एलीमेंट्स’, का इस्तेमाल अपनी परिकल्पना को सही साबित करने के लिए किया। बोस लिखते हैं:

“बंगाल के वैवाहिक अनुष्ठानों का कलकत्ता विश्वविद्यालय के श्री टीसी दास द्वारा किया गया अध्ययन यह बताता है कि किस प्रकार उनमें वैदिक और गैर-वैदिक दोनों परम्पराएं शामिल हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि बंगाल के लोग बहुत समय पहले ब्राहमणवादी सभ्यता के प्रभाव में आ गए थे।’

दिलचस्प यह है कि दास के 1922 के शोधप्रबंध का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना था कि हिन्दू धर्म के प्रभाव में नहीं आईं कई हिन्दू नीची जातियों और उत्तर-पूर्व की कई जनजातियों में अब भी विवाह एक सामाजिक संविदा है न कि एक ऐसा पवित्र बंधन, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता था और जिसके अंतर्गत पति अपनी पत्नी और उसकी संपत्ति का मालिक बन जाता है। बोस ने दास के शोध प्रबंध की इस तरह से गलत व्याख्या की, जिससे यह लगे कि दास भी ब्राह्मणवादी वर्चस्व के उनके सिद्धांत का समर्थन कर रहे थे! (गुहा, 2016: 17-20)।

दास का नृवंशवैज्ञानिक अध्ययन ‘द वाईल्ड खारियाज़ ऑफ़ ढालभूम’  एक ऐसी संग्राहक-शिकारी जनजाति के बारे में है जो हिन्दू धर्म के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त थी। यह शोध ‘‘हिन्दू विधि’ के सिद्धांत को गलत सिद्ध करता है। इस पुस्तक में चार अध्याय हैं और भूमिज शोध प्रबंध के विपरीत, इसके पहले अध्याय ‘द पीपुल एंड इट्स हेबिटेट’  में दास अपने पाठकों से कहते हैं कि खारिया, जिनका उन्होंने अध्ययन किया है, उन जनजातियों से एकदम अलग हैं, जिनका वर्णन उनके पहले ब्रिटिश अध्येता और प्रशासक एचएस रिजेली ने 1891 में किया था और जो या तो हिन्दू या ईसाई धर्म के प्रभाव में थीं। दास का अध्ययन आज के झारखंड में ढालभूमगढ़ और घाटशिला के नजदीक सिंहभूम की पहाड़ियों में रहने वाले खारिया पर था (दास, 1931: 2-3)। शोध प्रबंध में दास ने खारियाओं के जीवन, सामाजिक संगठन और धार्मिक रीति-रिवाजों का विस्तार से वर्णन किया है और इनमें उन्हें हिन्दू धर्म या परंपराओं की तनिक भी झलक दिखलाई नहीं दी। इस सामाजिक-मानववैज्ञानिक विवरण में दास ने नृमितिक विधियों का इस्तेमाल कर खारिया जनजाति की नस्लीय जड़ों को तलाशने की कोशिश की और यह पाया कि वे मुंडा जनजाति के नजदीक हैं। दास ने खारिया जनजाति में प्रचलित विधवा पुर्नविवाह और वर पक्ष द्वारा वधु के परिवार को चुकाए जाने वाले धन जैसी परंपराओं का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि ‘जंगली खारिया’ हिन्दू धर्म से तनिक भी प्रभावित नहीं हैं। उनका भोजन मुख्यतः मांसाहारी है, वे गैर-हिन्दू प्रकृति पूजक हैं, चावल से बनी शराब का सेवन करते हैं, मुर्गी की बलि देते हैं और अपने ही समुदाय के पुजारी (डेहूरी) की सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं।

 संदर्भ

बोस, एनके (1953)। ‘द हिन्दू मेथड ऑफ़ ट्राइबल एब्सोर्पशन’, ‘कल्चरल एन्थ्रोपोलाजी एंड अदर ऐसेस’, इंडियन एसोसिएटिड पब्लिशिंग कंपनी लिमिटेड, कलकत्ता

दास, टीसी (1922)। “हाई कास्ट हिन्दू मैरिज इन बंगाल विथ स्पेशल रिफरेन्स टू इट्स फोक एलीमेंट्स“, जर्नल ऑफ़ द डिपार्टमेंट ऑफ़ लेटर्स, 8:67-84, कलकत्ता विश्वविद्यालय।

दास टीसी (1931) ‘द भूमिजास ऑफ़ सराईकेल्ला’ कलकत्ता विश्वविद्यालय।

दास टीसी (1931) ‘‘द वाईल्ड खारियास ऑफ़ ढालभूम’। कलकत्ता विश्वविद्यालय।

दास टीसी (1941) ‘कल्चरल एन्थ्रोपोलाजी’ इन द सर्विस ऑफ़ द इंडीविजवल एंड द नेशन’, पृष्ठ 1-29, 22वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस, बनारस में मानवशास्त्र सत्र में अध्यक्षीय भाषण।

गुहा ए (2016) ‘‘तारक चन्द्र दासः एन अनसंग हीरो ऑफ़ इंडियन एन्थ्रोपोलाजी’ इस्टूडेरा प्रेस, दिल्ली

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लेखक के बारे में

अभिजीत गुहा

प्रो. अभिजीत गुहा विद्यासागर विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल के नृवंश शास्त्र संकाय के प्राध्यापक रहे हैं। उन्होंने शांतनु पांडा के साथ मिलकर “‘क्रिमिनल ट्राइब’ टू ‘प्रिमिटव ट्राइबल ग्रुप’ एंड द रोल ऑफ वेलफेयर स्टेट : दी केस ऑफ लोढाज इन वेस्ट बेंगाल, इंडिया” (2015) सहलेखन किया है।

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