महिषासुर को लोग एक ऐसे ‘राक्षस’ के रूप में जानते हैं, जिसका वध ‘देवी दुर्गा’ ने किया था और देवताओं एवं मनुष्य जाति को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई थी। पूरे देश में दशहरा नाम का जो त्योहार मनाया जाता है, उसमें महिषासुर का वध ही सबसे महत्वपूर्ण है। महिषासुर पर विजय को राक्षसी प्रवृत्तियों (?) पर विजय के तौर पर देखा जाता है, लेकिन अब इस पर सवाल उठाये जा रहे हैं और महिषासुर को दलितों-शोषितों-उत्पीड़ितों का प्रतिनिधि, उनका नायक यानी एक जननायक के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल, यह कोई आज सामने आया तथ्य नहीं है। पत्रकार और शोधकर्ता प्रमोद रंजन के द्वारा संपादित किताब ‘महिषासुर एक जननायक’ में विद्वानों, पत्रकारों, दलित विचारकों-चिंतकों और समाज वैज्ञानिकों के संकलित कई लेखों से यह धारणा पुष्ट होती है कि महिषासुर आर्य संस्कृति का विरोधी था। आर्यों द्वारा आम जनता के दमन और उत्पीड़न के खिलाफ उसने संघर्ष किया था। पर अंतत: आर्य संस्कृति के प्रभावी होने के कारण उसे राक्षस के रूप में चित्रित किया गया और उसकी ऐसी छवि गढ़ी गई कि आम जनमानस में वह घृणा का पात्र बन गया।
इस किताब में संकलित लेखों से यह धारणा पुष्ट होती है कि अभिजन समाज ने दलितों और निम्न जातियों के दमन के लिए उनके नायकों का बहुत ही गलत ढंग से चित्रण किया है और जनमानस में यह धारणा रूढ़ की गई है कि महिषासुर राक्षस था। जबकि ऐतिहासिक तथ्य कुछ अलग ही सच्चाई का बयान कर रहे हैं। यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जितने भी धर्मशास्त्र रचे गए, वेद और पुराण लिखे गए, वे ब्राह्मणों ने लिखे और उनमें जो कहानियां हैं, वो दलित-विरोधी हैं, उन्हें सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाने के लिए, उनकी चेतना को कुंद करने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता रहा है। अभी भी ऐसा ही किया जा रहा है। लेकिन शूद्रों, दलितों और आदिवासियों के नायक अलग रहे हैं। जब आर्यों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें अपना गुलाम बनाना चाहा और अंतत: उन पर विजय हासिसल कर ली तो सबसे पहला काम यह किया कि उनके जननायकों को राक्षस या असुर के रूप में चित्रित किया, ताकि आम जनता उनसे घृणा करने लगे। महिषासुर और देवी दुर्गा की उस पर विजय का मिथक भी इसी उद्देश्य से रचा गया। लेकिन इस किताब में सुर और असुर शब्दों की उत्पत्ति पर भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार कर यह दिखाया गया है कि असुर तथा यह एक आदिम जनजाति है, जो आज भी कई इलाकों में मौजूद है।
प्रमोद रंजन द्वारा संपादित यह किताब इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में सदियों से चली आ रही पंरपरा और रूढ़ियों को तोड़ती है और शोषण के तंत्र को मजबूत बनाने वाले तथा दलित-पिछड़ी जातियों को गुलाम बनाए रखने की सांस्कृतिक अवधारणाओं को जबरदस्त चुनौती देती हैं। ऐसा कर के संपादक ने समकालीन इतिहास की एक बड़ी ज़रूरत को पूरा करने की कोशिश की है। यह किताब इस दृष्टि से आंखें खोलने वाली है।
गौरतलब है कि सर्वहारा की मुक्ति की बात करने वाली विचारधारा मार्क्सवाद के तहत भारत में जाति प्रथा के तहत होने वाले शोषण के चक्र को समझा नहीं जा सका और यह विचारधारा समय के प्रवाह में अप्रासंगिक होती चली गई। ऐसे में, भारत की दलित-दमित-उत्पीड़ित जातियों के शोषण के चक्र से मुक्ति के लिए अलग विचारधारा और प्रेरणा-स्रोतों की जरूरत है, जिसकी झलक इस किताब में मिलती है।
इस किताब में दो खण्ड हैं – पुनर्पाठ और सांस्कृतिक युद्ध। पुनर्पाठ में स्थापित परम्पराओं, धार्मिक प्रतीकों, देवी-देवताओं के स्वरूपों और उनके वास्तविक अर्थों पर विचार किया गया है। इस खण्ड में कुल 11 लेख हैं, जिन्हें प्रेम कुमार मणि, शिबू सोरेन, मधुश्री मुखर्जी, राजन कुमार, ब्रज रंजन मणि, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, नूतन मालवी, गेल ऑम्बेट और अजय एस. शेखर जैसे विचारकों, संघर्षशील नेताओं और समाज वैज्ञानिकों ने लिखा है। खण्ड- 2 का शीर्षक है सांस्कृतिक युद्ध। इसमें भी कुल 11 लेख और संक्षिप्त टिप्पणियां हैं, जिनमें आज दलितों के संघर्षों को जो नई पहचान दिलाने की कोशिश की जा रही है और उसे जो मान्यता मिल रही है, उसके बारे में लिखा गया है। इस खण्ड के लेखक हैं पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संजीव चंदन, अश्विनी कुमार पंकज, मीसा भारती, एम दिलीप कुमार, प्रमोद रंजन व रवि प्रकाश, कांचा आयलैया, राम पुनियानी, प्रेम कुमार मणि, कर्मानंद आर्य और सुरेश पंडित।
इस किताब के बारे में लिखते हुए प्रमोद रंजन ने सबसे पहले महान बहुजन चिंतक भिक्खु बोधानंद की चर्चा की है, जिनसे आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वानों को भी प्रेरणा मिली थी। प्रमोद रंजन ने लिखा है कि इनकी ही प्रेरणा से आंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म अपनाया और वे इनके सानिध्य में घंटों बैठ कर विचार-विमर्श किया करते थे। इन्होंने एक किताब लिखी थी – ‘भारत के मूल निवासी और आर्य’। इसी किताब में मूल निवासियों के रूप में असुरों की चर्चा की गई। यह तो लगभग सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि आर्य इस देश के मूल निवासी नहीं थे और बाहर से आए आक्रमणकारी थे। लेकिन इस किताब में जो स्थापनाएं सामने आईं, उसने एक नया आंदोलन शुरू कर दिया, पर इसका विरोध भी हुआ और यह विरोध इतना जोरदार था कि 1930 में किताब प्रकाशित होने के बाद अगले 75 वर्षों तक इसका दूसरा संस्करण सामने नहीं आ सका। यह कहा जा सकता है कि भिक्खु बोधानंद ही वे पहले विद्वान और चिंतक थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी स्थापनाओं और देवी-देवताओं को पहली बार चुनौती दी। उनकी विचारधारा से प्रेरणा लेकर ही आज बहुजन आंदोलन एक नई दिशा और आकार ले रहा है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। पुस्तक में ‘एक सांस्कृतिक युद्ध’ और ‘भिन्न जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति’ शीषर्क लेख में प्रमोद रंजन ने नये सांस्कृतिक संघर्ष की पूर्व-पीठिका तैयार की है। प्रेमकुमार मणि ने ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?’ में कुछ मूल अवधारणाओं को सामने रखा है और ब्राह्मणवादी मिथकों को तोड़ा है। उनके दूसरे लेख ‘हत्याओं का जश्न क्यों?’ में उन्होंने अभिजन संस्कृति के नायकों पर सवाल खड़े किए हैं और उनके बरक्स दलितों के नायकों की ऐतिहासिकता को सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया है। आदिवासी अस्मिता और संघर्ष के प्रतीक झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके शिबू सोरेन से बातचीत ‘असुर होने पर मुझे गर्व है’ असुर जाति की पहचान को सामने लाती है। इसी तरह, मधुश्री मुखर्जी ने अपने संक्षिप्त लेख ‘संथाल संहारक दुर्गा’ में यह दिखलाया है कि किस तरह असुर संहार के नाम पर मूल निवासियों का संहार किया गया और इसे दुर्गा ने अंजाम दिया, जिनकी पूजा होती है और जिन्हें महिषासुरमर्दिनी कहा जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि उनके नेतृत्व में व्यापक असुर जाति का संहार किया गया था, जिनके वंशज आज भी जंगलों में उत्पीड़न झेल रहे हैं। इस प्रकार मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में असुर परंपरा पर शोधपूर्ण लेख है, जो इतिहास पर नए सिरे से रोशनी डालता है। इस लेख में स्थानीय इतिहास और पंपराओं को सामने लाया गया है। ब्रजरंजन मणि का ‘दलित-बहुजन दृष्टिकोण और महिषासुर विमर्श’ भी महत्वपूर्ण लेख है। डॉ. राजेंद्रप्रसाद सिंह ने ‘भाषाविज्ञान की दृष्टि में महिषासुर’ लेख में बहुत ही उल्लेखनीय स्थापनाएं दी हैं। असुर शब्द का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण इस लेख में मिलता है। ‘दुर्गा का मौलिक स्वरूप’ लेख में नूतन मालवीय ने इस मिथक और इसके सच का ऐतिहासिक विश्लेषण किया है। इस लेख में प्रो. डी. डी. कोसांबी की मान्यताओं का विशेष उल्लेख किया गया है। समाज वैज्ञानिक गेल ऑम्बेट का छोटा-सा लेख ‘महिषासुर और बली प्रतिपदा’ इस मिथक पर पर्याप्त रोशनी डालता है। ‘महिषासुर, रावण और महाबली’ शीर्षक अजय एस. शेखर का लेख असुर यानी राक्षस संस्कृति पर चली पूरी बहस का वृतांत सामने रखता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। इसी प्रकार, सारे लेख इतिहास और संस्कृति संबधी एक नये दृष्टिकोण को सामने रखते हैं, जो देश में दलित आंदोलन को एक नई दिशा देने वाले हैं।
पुस्तक का दूसरा खण्ड भी काफी महत्वपूर्ण है। ‘एक सांस्कृतिक युद्ध’ के नाम से इस खण्ड में बहुमूल्य दस्तावेज़ सामने रखे गए हैं, जो दिखलाते हैं कि भारत में ब्राह्मणवादी विचारधारा और संस्कृति के वर्चस्व को चुनौती मिलनी शुरू हो गई है। इस खण्ड में जो लेख, साक्षात्कार और टिप्पणियां प्रकाशित की गई हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि देश में दलितों का संघर्ष एक ऩई दिशा में आगे बढ़ रहा है। यद्यपि चुनौतियां तो हैं और ब्राह्मणवादी विचारधारा और संस्कृति की जकड़न से मुक्त होना बहुत आसान नहीं है, पर शुरुआत हो चुकी है और यह संघर्ष निश्चित रूप से दलितों-बहुजनों को एक नए ऐतिहासिक मुकाम पर ले जाएगा। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि प्रमोद रंजन ने इस किताब का संपादन कर बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है और इतिहास एवं संस्कृति की एक वैकल्पिक और यथार्थ पर आधारित संकल्पना सामने रखी है जो ठोस तथ्यों पर आधारित है। दलित-बहुजन चेतना और संघर्षों के विकास में इस किताब की भूमिका निस्संदेह ऐतिहासिक होगी।
पुस्तक – महिषासुर एक जननायक
संपादक – प्रमोद रंजन
प्रकाशक – द मार्जिनलाइज्ड, सानेवाड़ी, वर्धा, महाराष्ट्र – 442001, मोबाइल : 9968527911,
प्रथम संस्करण – 2016
मूल्य – 100 रुपए
(इस पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण भी ‘महिषासुर : अ पीपुल हीरो’ नाम से प्रकाशित है। दोनेां किताबें ईबुक के रूप में भी उपलब्ध हैं। अमेजन से ऑनलाइन आर्डर करने के लिए क्लिक करें : महिषासुर : एक जननायक
‘महिषासुर: एक जननायक’ का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से प्रकाशित है।)