सोलह सितम्बर, 2016 को ‘पिंक’ देश भर में रिलीज़ हुई। लगभग सभी फिल्म समीक्षकों ने उसे 4 स्टार की रेटिंग दी। यह टाइमपास फिल्म नहीं है, इसकी नायिकाएं स्टार नहीं हैं और ना ही यह ‘मनोरंजक’ फिल्म है। इसके बावजूद ‘पिंक’ बॉक्स ऑफिस पर खासी सफल रही है। इसकी सराहना लैंगिक रूढ़िबद्धता को चुनौती देने वाली एक ऐसी फिल्म के रूप में की जा रही जो हिम्मत से एक नए विचार का प्रतिपादन करती है। इसे नए ज़माने के, नयी सोच वाले शहरी भारतीयों की और उनके लिए फिल्म बताया जा रहा है।
फिल्म की कहानी तीन युवा कामकाजी महिलाओं – मीनल, फलक और एंड्रिया – के आसपास घूमती है, जो दिल्ली में एक ही फ्लैट में रहती हैं और आपस में गहरी मित्र हैं। फिल्म की शुरुआत से लेकर उसके अधिकांश हिस्से में उन्हें परेशानहाल और भयभीत दिखाया गया है। वे हाल में उनके द्वारा की गयी किसी नादानी के कारण परेशान हैं – एक ऐसी नादानी जो उनके लिए बड़ा सिरदर्द बन गयी है। बाद में पता चलता है कि वे कुछ युवा पुरुषों, जिनसे उनकी पहले से कोई जानपहचान नहीं थी, के साथ पार्टी करने गयीं। वे पुरुष उनके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहते हैं, जिसके लिए वे राजी नहीं हैं। वे उनकी बेजा हरकतों का विरोध करती हैं और गुस्से में मीनल उनमें से एक पर बोतल से वार कर देती है, जिससे उसे आँखों के आसपास गहरी चोट लग जाती है।
इस घटना की इन महिलाओं को भारी कीमत अदा करनी पड़ती है। उनका घर, उनकी नौकरी, उनकी प्रतिष्ठा, उनके बॉयफ्रेंड और उनका सुख-चैन, सब कुछ उनसे छिन जाता है। और यह सब सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने कुछ मजा-मौज करने के लिए गलत साथियों का चुनाव किया।
इस सबके बीच प्रवेश होता है सर्वज्ञानी बच्चन साहब का, जो इन महिलाओं के जीवन पर छा जाते हैं। वे उन्हें यह बताते हैं कि उन्हें क्या करना चहिये और क्या नहीं। उनका अंदाज़ यह साफ़ कर देता है कि अगर पुरुष महिलाओं के पीड़क हैं, तो उनके तारक भी वही हैं! दूसरे शब्दों में, महिलाओं को स्वतंत्रता जैसे जुमलों को भूल जाना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा वे केवल यह कर सकतीं है कि ‘भौंडे’ और ‘भद्र’ पुरुषों में से किसी एक को चुनें। तथ्य यह कि भौंडे और भद्र पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों यह मान कर चलते हैं कि महिलाएं अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकतीं; बल्कि उनके पास दिमाग है ही नहीं।
फिल्म निर्माता का उद्देश्य शायद ‘अच्छी’ (अच्छे घर की) और ‘बुरी’ (वैसे टाइप की) महिलाओं के सम्बन्ध में पुरुषवादी रूढ़िबद्ध धारणाओं को चुनौती देना था परन्तु अंततः वे उतनी ही प्रतिगामी “रक्षक” बनाम “भक्षक” पुरुष की टकसाली सोच को पुष्ट करते हैं। सबसे क्रूर विडम्बना यह है कि एक महिला के रक्षक को दूसरी महिला का भक्षक बनने में तनिक भी परेशानी नहीं होती। क्या हम सब उन भाईयों से परिचित नहीं हैं जो अपनी बहनों की “इज्ज़त” की रक्षा की खातिर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं – यहाँ तक कि हिंसा भी – परन्तु जहाँ तक दूसरी महिलाओं का सवाल है, वे उनके लिए शबाब ही होती हैं।
अतः ‘भक्षकों’ से बचने के लिए महिला अपनी इच्छा से अपनी आज़ादी को अपने ‘रक्षक’ के चरणों में समर्पित कर देती है और फिर रक्षक उसका मालिक हो जाता है – उसकी ज़िन्दगी का खेवनहार। ठीक अमिताभ बच्चन की तरह। बच्चन (सहगल) यह भी ज़रूरी नहीं समझते कि अपने मुव्वकिलों की “नैतिकता” और “कौमार्य” पर भरी अदालत में प्रश्नचिन्ह लगाने से पहले वे उनसे मशविरा करें। अगर यह उनका एक वकालती दांव था, तो भी क्या यह ज़रूरी नहीं था कि वे अपने मुव्वकिलों को विश्वास में लेते? परन्तु उनकी सोच शायद यही थी कि बड़े-बूढ़े जानते हैं कि बच्चों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। और बच्चों, विशेषकर लड़कियों, को उनसे मुंह लड़ाने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। क्या यह उन महिलाओं के अधिकारों का उतना ही गंभीर उल्लंघन नहीं है, जितना कि उन पुरुषों ने किया, जो ना सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे। उन पुरुषों के मामले में वे कम से कम उनके सिर पर व्हिस्की की बोतल फोड़ कर अपना गुस्सा तो निकाल सकती थीं!
अदालत में और उसके बाहर, लड़कियों को अपनी उँगलियों पर नचाने के बाद, बच्चन अंत में अपनी इज्ज़त बचाने के लिए कहते हैं कि जब कोई महिला ना कहती है तो उसका मतलब ना ही होता है। तालियाँ परन्तु अच्छा होता कि यह बात लड़कियां अपने मुंह से कहतीं। तब यह ज्यादा विश्वसनीय लगती।
नहीं मिस्टर सहगल, यह हमें मंज़ूर नहीं है।
जिस दिन महिलाएं अपने रक्षकों और भक्षकों दोनों को ना कहना सीख जायेगी, उस दिन वे सचमुच आज़ाद होंगीं।
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