दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल के शूद्रों, दलितों और आदिवासियों को यह याद दिलाती है कि असली सत्ता किसके हाथों में है। राज चाहे ईस्ट इंडिया कंपनी का रहा हो या ब्रिटिश सरकार का; कांग्रेस का या कम्युनिस्टों का या तृणमूल कांग्रेस का, पंडालों में हमेशा से श्वेत वर्ण की दुर्गा, काले महिषासुर का वध करती आई है, और सत्ता के केंद्र कोलकाता में तो इस पौराणिक “विजय” का जश्न जबरदस्त ढंग से मनाया जाता है।
समुद्र बिस्वास कोलकाता में जन्मे और पले-बढ़े। सन 1990 के दशक की शुरुआत में जब उन्हें रेल्वे में टिकिट चेकर की नौकरी मिली, तो उन्हें लगा कि उनके अच्छे दिन आ गए हैं परन्तु जल्द ही उन्हें अपने मित्रों और रिश्तेदारों से पता चल गया कि रेल्वे में कथित नीची जातियों के टिकिट चेकरों की हालत कितनी ख़राब है। कई को तो महीनों से वेतन ही नहीं मिला था। उन्होंने नियुक्ति के स्थान पर अपनी आमद ही दर्ज नहीं करवाई।
दुर्गा पूजा में वे राज्य के कुछ ग्रामीण इलाकों में गए। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जहाँ कोलकाता में दुर्गा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था, वहीं आदिवासी इलाके महिषासुर के मौत के शोक में डूबे हुए थे। और उन्हें अचानक लगा कि कोलकाता में उनके जैसे युवाओं की आर्थिक प्रताड़ना, दरअसल, एक व्यापक सांस्कृतिक षड़यंत्र का प्रकटीकरण मात्र है।कोलकाता वापस आकर उन्होंने अपने जैसा सोचने वाले कुछ लोगों को इकठ्ठा किया और हर वर्ष महिषासुर दिवस मनाना शुरू कर दिया। तब से लेकर अब तक केवल दो मौकों पर कड़े विरोध और बहुत कम लोगों की भागीदारी के कारण महिषासुर दिवस नहीं मनाया जा सका। बिस्वास ने एक पुस्तक लिखी हैं, जिसका शीर्षक है “दुर्गा पूजा आंतरु” (दुर्गा पूजा के अन्दर की कहानी)। वे पाक्षिक “निर्भीक” और साहित्यिक पत्रिका “जनमन” के संपादक हैं और महिषासुर से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार पलाश बिस्वास का दावा है कि इस बार राज्य में ७०० से भी अधिक स्थानों पर महिषासुर दिवस का आयोजन किया जा रहा है। पुरुलिया में महिषासुर दिवस के आयोजनकर्ता चारियां महतो बताते हैं कि पुरुलिया के आसपास ही 300 से अधिक आयोजन होने जा रहे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता सर्दिंदु बिस्वास, 1990 के आसपास से महिषासुर दिवस के आयोजनों में भाग लेते आये हैं। उनका कहना है कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में महिषासुर दिवस के आयोजन ने उनका और उनके जैसे अन्यों का उत्साहवर्धन किया है। वे कहते हैं कि इन आयोजनों से दलित-बहुजन एकता मजबूत हुई है।
यह एकता पश्चिमी मेदिनीपुर के सलबोनी में महिषासुर दिवस के आयोजन में झलकी। आठ अक्टूबर को आयोजन के उद्घाटन समारोह में २००० से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें श्रीकांत महतो सहित तृणमूल कांग्रेस के दो विधायक और अनेक प्रोफेसर शामिल थे। श्रोताओं में चांडाल, कुर्मी, संथाल, ओराओं और महाली समुदायों के सदस्यों की खासी संख्या थी। दोपहर तक आदिवासी खेल प्रतियोगिताएं हुईं। इनमें दौड़, धनुर्विद्या, मटकी फोड़ और साल के पत्तों को सिलने की प्रतियोगिताएं शामिल थीं। इसके बाद भाषण और चर्चा हुई और फिर खंती, सडपा, दसई व अन्य नृत्य हुए, जो अगली सुबह तक चलते रहे।
इसके पहले, 1 व २ अक्टूबर को, महिषासुर स्वर्ण सभा समिति ने बीरा में सर्बोजनिन धर्मसभा का आयोजन किया। आयोजनकर्ताओं में से एक सुसेन्जित वैरागी ने बताया कि “हमने कार्यक्रम का नाम सर्बोजनिन धर्मसभा इसलिए रखा क्योंकि अब भी लोगों को असुर शब्द पचता नहीं है। “मंच पर लगे बैनर पर फुले, आंबेडकर, बुद्ध और अन्य नायकों के चित्र थे। बुद्धिजीवियों ने विचार-विनिमय किया, बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और चिकित्सा शिविर में ज़रूरतमंदों को सलाह और दवाएं उपलब्ध करवाईं गयीं। कार्यक्रम में लगभग ७०० लोग उपस्थित थे। सुसेन्जित बताते हैं कि “हमारे पास महिषासुर की एक मूर्ति है, जिसे हमने पिछले साल बनवाया था, परन्तु न तो हम इस मूर्ति की पूजा करते हैं और न विसर्जन। वह केवल प्रतीकात्मक है”।
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महिषासुर दिवस के आयोजनों में बढ़ती भीड़ ने मीडिया का ध्यान तो खींचा ही, कई लोगों को गुस्से से बावला भी कर दिया। आखिरकार यह एक कथा को एकदम अलग अर्थ देने का प्रयास है। एक अक्टूबर को, 24 परगना जिले के हबरा में महिषासुर दिवस का आयोजन शुरू होने के कुछ समय पहले लोगों का एक समूह आयोजन स्थल पर पहुंचा। उन्होंने लाउडस्पीकरों के तार काट दिए और स्टेज पर चढ़ कर माइक उखाड़ दिया। मजबूर होकर आयोजकों को कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।
आठ अक्टूबर को समुद्र बिस्वास ने उत्तरी 24 परगना जिले के बसीरहट में महिषासुर दिवस के कार्यक्रम में हिस्सा लिया। कार्यक्रम दो घंटे चला और पूरे समय कुछ स्थानीय लोग बाहर विरोध प्रदर्शन करते रहे। हिंसा भड़कने के डर से अँधेरा होने से पहले कार्यक्रम समाप्त कर दिया गया। इसी जिले के संदेशखाली में कार्यक्रम इसलिए नहीं हो सका क्योंकि स्थानीय लोगों को ‘असुर’ शब्द से आपत्ति थी। “हम लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि असुर कोई दुष्ट लोग नहीं हैं ,परन्तु वे सुनने को तैयार ही नहीं थे”, बिस्वास बताते हैं।
काश उन लोगों को ‘असुर’ शब्द के जन्म की कहानी पता होती। अपने एक लेख “महिषासुर: एक भाषाशास्त्रीय अध्ययन”, जो ” महिषासुर : एक जननायक ” पुस्तक में प्रकाशित है, में राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते हैं कि असुर शब्द का मूल और असली अर्थ राक्षस नहीं है। वैदिक कोष कहता है, “असुराती ददाति इति असुरः” अर्थात जो ‘असु’ (जीवन) देता है, वह असुर है। प्रसिद्द संस्कृत कोशकार वी.एस. आप्टे, ‘असु’ शब्द का अर्थ ‘प्राण’ बताते हैं। जानेमाने हिंदी कोशकार रामचंद्र वर्मा भी इससे सहमत हैं। संस्कृत और हिंदी दोनों में ‘असुर’ शब्द ‘असु’ से जन्मा है। असुर का अर्थ है असु+र। कुछ लोगों को यह भ्रम है कि असुर शब्द अ+सुर के संयोग से बना है – अ (नहीं)+सुर (देवता) अर्थात जो देवता नहीं है या राक्षस है। दरअसल ‘सुर’ शब्द को गलत गढ़ा गया है। ‘असुर’ मूल शब्द है। वह सुर से नहीं बना है। प्राचीन काल में सुर शब्द नहीं था। यही कारण है कि वेद, इंद्र के लिए असुर शब्द का इस्तेमाल करते हैं। ‘असुर’ शब्द का राक्षस के अर्थ में प्रयोग बाद में शुरू हुआ और यह भ्रामक है। “महिषासुर” में ‘असुर’ का अर्थ जीवन है, राक्षस नहीं।
महिषासुर दिवस के आयोजन, सदियों से दमित वर्गों को एक नया जीवन देने के प्रयास हैं। ज्यादातर आयोजन रेलवे स्टेशन के पास किये जाते हैं, ताकि आते-जाते यात्रियों को भी अपनी मिथकीय जंजीरों से मुक्ति पाने का अवसर मिल सके।
महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/ दिल्ली। मोबाइल : 9968527911
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इस किताब का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से उपलब्ध है।