मैसूरू के प्रगतिशील चिंतकों और सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने शहर के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ते हुए 29 सितंबर 2016 को महिष दशहरा मनाया। दलित वेल्फेयर ट्रस्ट ने बेकवर्ड क्लासिस एसोसिएशन और मैसूर यूनिवर्सिटी दलित स्टूडेंटस फेडरेशन के साथ मिलकर यह आयोजन किया। महिष की मूर्ति के समक्ष हजारों शोधकर्ता, विद्यार्थी, श्रमिक और मूल निवासी समुदायों के सदस्य इकटठा हुए और उन्होंने महान बौद्ध शासक महिष के संबंध में वक्ताओं के विचार सुने। वक्ताओं ने कहा कि महिषासुर, धर्म, जाति, नस्ल और रंग से ऊपर उठकर, सभी लोगों के समावेशी विकास के पैरोकार थे।
जाने-माने कन्नड़ चिंतक और लेखक प्रोफेसर केएस भगवान ने कहा कि ‘महिष एक महान बौद्ध भिक्षु, धर्मनिरपेक्ष शासक और मैसूरू क्षेत्र के हाशिए पर पड़े मूलनिवासी लोगों के भाग्य निर्माता थे। महिष राज्य के रक्षक थे परंतु ब्राहम्णवादियों ने उनकी छवि एक दानव की बना दी। ब्राहम्णवादियों का उद्धेश्य वास्तविक इतिहास को दफन करना था। ऐसा करके उन्होंने महिष मंडल के निर्माता द्रविड़ों और बौद्धों के साथ विश्वासघात किया। प्रगतिशील चिंतकों को मूल निवासियों के इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहिए और आधुनिक भारत में उनके सामाजिक और राजनैतिक प्रभुत्व को पुनर्स्थापित करना चाहिए।’
लेखक प्रोफेसर अरविंद मलागट्टी ने कहा कि ‘सच यह है कि चामुण्डेश्वरी ने महिष को नहीं मारा था परंतु निहित स्वार्थी तत्वों ने इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के लिए इस मिथक का निर्माण किया। महिष दानव नहीं था। वह भारत के बौद्ध नाग समुदाय का था। नाग भारतीय सभ्यता के निर्माता थे और वैदिक काल व ब्राहम्णवादी शक्तियों के उदय के बहुत पहले उन्होंने अपने पीछे एक समृद्ध विरासत छोड़ी। भारत के लोगों को महिष की ऐतिहासिक विरासत को याद रखना चाहिए। महिष एक महान मानवतावादी थे।’
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इस अवसर पर कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष और प्रतिष्ठित विधिवेत्ता डॉ. सीएस द्वारिकानाथ ने सिद्धस्वामी द्वारा लिखित पुस्तक ‘एनशिएंट असुर राष्ट्र’ (प्राचीन असुर राष्ट्र) का विमोचन किया। डॉ. द्वारिकानाथ ने कहा, ‘आर्यों द्वारा लिखित भारत के इतिहास में असुरों को दानव के रूप में प्रस्तुत किया गया है जबकि वे भारतीय संस्कृति और सभ्यता के महान रक्षक थे। असुर, भारत के मूल निवासी हैं जिन्होंने देश की मुक्ति के लिए अपनी जान न्यौछावर की और अपने कड़े श्रम और देशभक्ति से राष्ट्रीय संपदा में वृद्धि की।’
मीडिया अध्येता और तार्किकतावादी प्रोफेसर महेश चन्द्र गुरू ने महिष की विरासत के बारे में बोलते हुए कहा कि ‘डॉ. बीआर आंबेडकर ने ठीक ही लिखा था कि भारतीय इतिहास, ब्राहम्णवाद और बौद्ध धर्म के परस्पर संघर्ष का इतिहास है। आर्य विदेश से यहां आए और उन्होंने अपनी धूर्तता से भारत के द्रविड़ों को पराजित किया। आर्य, जो आज मैरिट या योग्यता की बात करते हैं, वे भारत के पिछड़ेपन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। योग्यता के झंडाबरदार नकली भारतीय हैं और द्रविड़ वास्तव में योग्य लोग हैं, जिन्होंने बुद्ध और आंबेडकर के नेतृत्व में भारत को एक समृद्व विरासत दी। भारत के इतिहास को दुबारा लिखा जाना चाहिए और आर्यों व द्रविड़ों के बीच के सत्ता समीकरणों को बदला जाना चाहिए। तभी भारत एक सच्चा, प्रगतिशील और कल्याणकारी राज्य बन सकेगा।’
मीडिया शोधकर्मी दिलीप नरसैया एम ने उद्घाटन भाषण दिया। उन्होंने बुद्ध, आंबेडकर व सामाजिक न्याय के अन्य प्रणेताओं के सिद्धांतों के आधार पर, हाशिए पर पड़े समूहों के सशक्तिकरण पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि ‘दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक महिष दशहरा हर वर्ष मनाएंगे।’
इस मौके पर जो लोग मौजूद थे उनमें दलित वेल्फेयर ट्रस्ट के मानद अध्यक्ष शांता राजु व ट्रस्ट के अध्यक्ष प्रोफेसर टीएम महेश, कर्नाटक स्टेट बैकवर्ड क्लासिस फेडरेशन के संयोजक केएस शिवराम, मैसूरू के पूर्व मेयर पुरूषोत्तम, इतिहासविद् व लेखक चिक्कारन जे गौड़ा, लेखक प्रोफेसर माई गौड़ा, कृष्णराजापुरम के विधायक एमके सोमशेखर, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आफ इंडिया के नेता अमजद खान, बहुजन समाज पार्टी के नेता सिद्धराजु, बुद्ध एंड आंबेडकर एसोसिएशन, नंजागुड़ के प्रज्जवल शशि, शेखर बुद्ध, श्रीनिवास डी. मनागल्ली और दलित-माईनारटीज संघ, गुलबर्गा के एजे खान शामिल थे।
सम्मेलन में एक संकल्प पारित किया गया, जिसमें यह कहा गया कि महिष के स्मारक का निर्माण किया जाएगा और महिष दशहरा उतने ही बड़े पैमाने पर मनाया जाएगा, जिस पैमाने पर मैसूर का प्रसिद्ध दशहरा मनाया जाता है। कार्यक्रम में यह भी तय किया गया कि महिष के ऐतिहासिक योगदान पर चर्चा और उसके दस्तावेजीकरण के लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाए।
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