गत 26 नवंबर, 2015 को पहली बार संसद में ‘संविधान दिवस’ मनाया गया। इस अवसर पर पश्चिम बंगाल के कुछ संसद सदस्यों की डॉ बी.आर. आंबेडकर के 1946 में संविधान सभा के सदस्य चुने जाने के संबंध में अज्ञानता निंदनीय ही कही जा सकती है। उनका चुनाव एक स्मरणीय घटना थी, जिसके दौरान कलकत्ता की सड़कों पर हिंसा हुई और अराजकता व तनाव का माहौल रहा। डॉ आंबेडकर के विरोधियों ने विधान परिषद् के उनके एक समर्थक सदस्य को गैर-कानूनी ढंग से एक स्थान पर बंदी भी बना लिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दबे-छुपे ढंग से हरचंद यह कोशिश की कि डॉ आंबेडकर को उस उच्च सदन की सदस्यता न मिल सके, जो भारत का संविधान बनाने वाला था। सरदार पटेल ने आंबेडकर के खिलाफ इस अभियान का नेतृत्व किया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि “संविधान सभा के दरवाजे ही नहीं उसकी खिड़कियां भी डॉ आंबेडकर के लिए बंद हैं। हम देखते हैं कि वे संविधान सभा में कैसे प्रविष्ट होते हैं”।
देश के छह करोड़ अछूतों की नियति दांव पर थी। कांग्रेस ने अपने बंबई अधिवेशन में अपने सबसे धूर्त रणनीतिकार और जोड़तोड़ में माहिर नेता किरण शंकर राय को डॉ आंबेडकर के बंगाल से संविधान सभा में निर्वाचित होने की कोशिश को असफल करने के लिए चुना। इससे आंबेडकर के प्रति कांग्रेस के द्वेष का पता चलता है। बंगाल के बुद्धिजीवी भद्रलोग आंबेडकर को ज़रा भी पसंद नहीं करते थे।
एक अंग्रेज़ी कहावत है कि पतन के पहले किसी व्यक्ति का गर्व चूर-चूर होता है। यही बंगाल में हुआ। बंगाल के दलितों ने ‘भारत के लौहपुरूष’ को उनके ही अखाड़े में जबरदस्त पटकनी दी। बंगाल की विधान परिषद के सात सदस्यों, जिनमें चार नामशूद्र, दो राजबंशी और एक आदिवासी शामिल थे, ने इतिहास रचा। राजनैतिक परिपक्वता, पक्के इरादे और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करते हुए बारीसाल (अब बांग्लादेश में) जिले के एक नामशूद्र वकील जोगेन्द्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को पूर्वी बंगाल के जेसोर-खुलना निर्वाचनक्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया क्योंकि आंबेडकर बंबई से चुनाव हार गए थे । मंडल, आंबेडकर द्वारा स्थापित शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के विधान परिषद में एकमात्र सदस्य थे।
आंबेडकर की लेखनी में उनकी मेधा, विद्वता और गहन शोध प्रतिबिंबित होता था। समाज का उच्च तबका आंबेडकर से घृणा करता था। आंबेडकर सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासनिक मुद्दों पर जिस तरह के तर्क रखते थे, उनका प्रतिउत्तर उन वर्गों के पास नहीं था। इस कारण भी आंबेडकर के प्रति उनके कटुताभाव में वृद्धि हो रही थी। आंबेडकर की वे सभी कृतियां, जिनसे हिन्दू घृणा करते है, उस समय तक प्रकाशित हो चुकी थीं और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध थीं। आंबेडकर ने एक कुशल शल्य चिकित्सक की तरह जाति और उसके सामाजिक दुष्परिणामों का सूक्ष्म विच्छेदन किया था। वे हिन्दुओं की कूपमंडूकता और उनकी बीमार मानसिकता के कटु आलोचक थे। उन्होंने चातुरवर्ण व्यवस्था में हिन्दुओं की आस्था को हिला दिया था। वे आत्मा-परमात्मा और ईश्वर व राम, कृष्ण सहित ईश्वर के अवतारो में हिन्दुओं की आस्था पर ज़ोरदार हमले कर रहे थे। उन्होंने गांधीजी को भी नहीं बख्शा था। परंतु गांधीजी के मन में आंबेडकर के प्रति कोई कटुता भाव नहीं था। उन्होंने लिखा, ‘आंबेडकर को कटु होने का अधिकार है। वो हमारे सिर नहीं फोड़ रहे हैं इससे ही यह स्पष्ट होता है कि उनका स्वयं पर कितना नियंत्रण है”। आंबेडकर के सबसे कटु शत्रु भी यह स्वीकार करने के लिए बाध्य थे कि उन्होंने कभी कोई गलत तर्क प्रस्तुत नहीं किया, कभी कोई अनैतिक हमला नहीं किया और अपने विरोधियों के लिए कभी अशालीन भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। यह गुण राजनीतिज्ञों में कम ही पाया जाता है। उनकी सोच उदार थी और वे तथ्यों और तर्क के आधार पर अपनी बात रखते थे। उन्हें पोंगापंथियों से परहेज था और उन पर हमला करने में कभी नहीं चूकते थे। वे अंधविश्वासों और कर्मकांडों के कड़े विरोधी थे।
संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिनमें से 31 दलित थे। ये सभी प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा चुने गए थे। आंबेडकर के गृह प्रदेश बाम्बे प्रेसिडेन्सी ने उन्हें नहीं चुना। पूर्वाग्रह से ग्रस्त और बदला लेने को आतुर कांग्रेस के निर्देश पर बंबई के प्रधानमंत्री बी.जी. खरे ने यह सुनिश्चित किया कि संविधान सभा के चुनाव में आंबेडकर पराजित हो जाएं। ब्रिटिश सरकार ने सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया का निर्धारण करने के लिए जिस कैबिनेट मिशन का गठन किया था, उसने शेड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन को गंभीरता से नहीं लिया। कैबिनेट मिशन का यह मानना था कि फेडरेशन अछूतों के हितों और उनकी महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इंग्लैंड के मिडिलसेक्स विश्वविद्यालय के डॉ डेविड कीम के अनुसार, कांग्रेस अध्यक्ष के अनुरोध पर कैबिनेट मिशन ने “कांग्रेस के अनुसूचित जाति के प्रतिनिधियों, जिनमें जगजीवनराम शामिल थे, से मुलाकात की। इन प्रतिनिधियों ने कैबिनेट मिशन से ज़ोर देकर कहा कि “अनुसूचित जातियों के सदस्य अपने आपको हिन्दू मानते हैं और उनकी समस्याएं धार्मिक या सामाजिक न होकर आर्थिक हैं। कैबिनेट मिशन इससे सहमत थी।’’[1] यही वह बात थी जो हिन्दू, भारत अछूतों से सुनना चाहता था (और चाहता है)। इससे अछूतों के पीड़क और शोषक “स्वर्ग से उतरे नेता”[2] बन जाते थे। यह डॉ आंबेडकर की इस स्थापना के बिलकुल उलट था कि अछूतों के दुःख-दर्द के लिए सामाजिक कारण ज़िम्मेदार थे।
विधानसभाओं और संसद में अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे ऊँची जातियों के हिन्दू हितों के आगे झुक जाते हैं। ‘बाबूजी’ (जगजीवनराम) को उनकी इस भूल का एहसास अपने राजनैतिक जीवन के संध्याकाल में हुआ था। उन्हें यह समझ में आ गया था कि सामाजिक कारक ही अछूतों का अभिशाप हैं। एक समृद्ध अछूत को भी उसी तरह की घृणा से देखा जाता है जैसा कि एक गरीब अछूत को, क्योंकि जाति ही हिन्दुओं का धर्म है।
जैसोर-खुलना चुनाव क्षेत्र से विजय
डॉ आंबेडकर ने कलकत्ता जाकर बंगाल विधान परिषद के यूरोपीय सदस्यों का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया। परंतु दुर्भाग्यवश उन्होंने पहले ही यह तय कर लिया था कि वे न तो चुनाव में भाग लेंगे और न ही किसी उम्मीदवार का समर्थन करेंगे। निराश आंबेडकर दिल्ली लौट गए। इसी समय जोगेन्द्रनाथ मंडल ने आंबेडकर को बंगाल के जैसोर-खुलना चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया। जब मंडल से मुलाकात करने आंबेडकर फिर से कलकत्ता आए तब चुनाव में केवल तीन हफ्ते बाकी थे। मंडल डॉ. आंबेडकर की उम्मीदवारी के प्रस्तावक बने और कांग्रेस एम.एल.सी. गयानाथ बिस्वास समर्थक। दोनों नामशूद्र थे।
जोगेन्द्रनाथ मंडल ने यह पहल इसलिए की क्योंकि वे इस तथ्य से वाकिफ थे कि उनकी जाति के लोगों को लंबे समय से अनवरत अपमान, अन्याय, शोषण और घृणा का शिकार बनना पड़ रहा था। सन 1873 में फरीदपुर, बारीसाल और जैसोर के चांडालों (जिन्हें 1911 में नामशूद्र कहा जाने लगा) ने ऊँची जातियों द्वारा उन्हें निम्न सामाजिक दर्जा दिए जाने के खिलाफ पहला शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन शुरू किया। उनका आंदोलन, जिसे आधिकारिक रूप से ‘आम हड़ताल’ और ‘एक नया तरीका’ बताया गया, ने लगभग 55 लाख लोगों की रोज़ाना की ज़िदंगी को अस्तव्यस्त कर दिया। जनवरी-फरवरी 1872 में बारीसाल के एक धनी व प्रभावशाली चांडाल ने अपने पिता के श्राद्ध के अवसर पर आयोजित भोज में लगभग दस हजार लोगों को निमंत्रित किया। इनमें ब्राह्मण, वैद्य और कायस्थ शामिल थे। कायस्थों के उकसावे पर ऊँची जातियों ने इस निमंत्रण को स्वीकार करने से इंकार कर दिया इसके बाद ही यह आंदोलन शुरू हुआ। फरीदपुर (अब बांग्लादेश में) के पुलिस अधीक्षक ने व्यक्तिगत रूप से मामले की जांच करने के बाद लिखा ‘‘उच्च जातियों के हिन्दू उन्हें (चांडाल) जानवरों से थोड़ा ही बेहतर मानते हैं।[3] बंगाल का हर हिन्दू चांडालों को इसी दृष्टि से देखता है। साफ-सफाई के कार्य चांडालों को करने होते थे और अन्य जातियां इस काम से पूरी तरह मुक्त थीं। इस अभूतपूर्व हड़ताल ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को प्रभावित किया।
फरीदपुर के जिला मजिस्ट्रेट, जिन्हें उनके उच्चाधिकारियों ने इस हड़ताल के पीछे के कारणों का अध्ययन करने की ज़िम्मेदारी सौंपी, ‘‘इस” दुर्भाग्यशाली जाति (चांडाल), जो कि घृणा का शिकार है, के सदस्य बिना शिकायत किए धैर्यपूर्वक कठोर श्रम करते हैं, परंतु उनके लिए कोई भी एक अच्छा शब्द नहीं कहता”। उन्होंने लिखा “‘वे नाव बनाते हैं, बढई का काम करते हैं, मछुआरे हैं और पानी ढोते हैं और इन सभी कामों को वे बहुत अच्छे से करते हैं। वे मज़बूत शरीर वाले, धैर्यवान और मेहनती हैं”। इस तरह के लोग, जिन्हें किसी भी जगह, कोई भी समाज, अपना “सबसे कीमती मानव संसाधन” मानेगा, उन्हें बंगाल में उनकी जाति के कारण घृणा का शिकार बनना पड़ता है। चांडालों के साथ “घोर दुर्व्यवहार”’ किया जाता है। मजिस्ट्रेट ने हड़ताल के प्रभाव का आंकलन करते हुए लिखा “बड़ी संख्या में हिन्दुओं और मुसलमानों ने मुझसे यह शिकायत की कि चांडालों की इस कार्यवाही के कारण वे कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गए हैं”[4]। इस हड़ताल के प्रभाव का असली व पूरा आंकलन किया जाना अब भी बाकी है।
इस शांतिपूर्ण हड़ताल और विरोध प्रदर्शन से चांडालों के दमनकर्ता हतप्रभ रह गए। चांडालों ने जो तरीका अपनाया, वह भारतीयों ही नहीं पूरी दुनिया के लिए एकदम नया था। शांति और अहिंसा के अग्रदूत मोहनदास करमचंद गांधी तब केवल तीन साल के थे और ‘बायकाट’ (बहिष्कार) शब्द अंग्रेज़ी के शब्दकोषों में सात साल बाद सन 1880 में आया। इस अनूठे विद्रोह के 21 साल बाद सन 1894 में लियो टाल्सटाय ने अपनी असाधारण कृति ‘‘द किंगडम ऑफ़ गॉड इज विदिन यू” में अहिंसा की महान अवधारणा का प्रतिपादन किया। इसी पुस्तक से प्रभावित होकर गांधीजी ने सत्याग्रह की अवधारणा को आकार दिया। सन 1860 में जॉन रस्किन ने “अन्टू दि लास्ट” लिखी जिसे गांधी ने 1904 में पढ़ा। यह मानना हास्यास्पद होगा कि निरक्षर चांडालों की 1873 की बंगाल के ऊँची जातियों के हिन्दुओं के विरूद्ध शांतिपूर्ण और अहिंसक हड़ताल की प्रेरणा ये महान लेखक और दार्शनिक थे।
विधान परिषद के जिन सदस्यों ने डॉ आंबेडकर को मत दिया वे निम्न थेः
1. जोगेन्द्रनाथ मंडल (नाशूद्र), बारीसाल, शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन।
2. मुकुन्दबिहारी मलिक (नामशूद्र), स्वतंत्र, खुलना।
3. द्वारिकानाथ बरूरी (नामशूद्र), कांग्रेस, फरीदपुर।
4. गयानाथ बिस्वास, (नामशूद्र), कांग्रेस, टंगेल।
5. नागेन्द्र नारायण रे, (राजबंशी), स्वतंत्र, रंगपुर।
6. क्षेत्रनाथसिंहा (राजबंशी), कांग्रेस, रंगपुर।
7. बीरबिरसा, कांग्रेस (आदिवासी), मुर्शीदाबाद।
मुस्लिम लीग ने इस चुनाव में आंबेडकर को नैतिक समर्थन दिया। सन 1946 में हुए इस चुनाव में आंबेडकर की विजय के पीछे बंगाल के पिछड़े वर्गों और नामशूद्रों की एकता और बंधुत्व था।
मुकुन्दबिहारी मलिक के नेतृत्व में 21 जनवरी, 1929 को आल बंगाल नामशूद्र एसोसिएशन और आल बंगाल डिप्रेस्ड क्लासेस एसोसिएशन ने संयुक्त रूप से साइमन कमीशन के समक्ष उपस्थित हो अपने विचार रखे। आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस एसोसिएशन ने कलकत्ता में कमीशन को लिखित रूप से यह सूचित किया कि हम आल बंगाल नामशूद्र एसोसिएशन के ‘‘सुझावों से मोटे तौर पर सहमत हैं और उन्हें अंगीकार करते हैं”[5]। ऐसी थी बंगाल में जातिगत अन्याय और दमन के पीड़ितों की मित्रता और एकता। 18 साल बाद उन्होंने एक होकर डॉ आंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाया, क्योंकि उन्हें यह विश्वास था कि इससे उनके जीवन में एक क्रांति आएगी। यह अलग बात है कि उनके सपने पूरे न हो सके।’’
जापानी अध्येता प्रो. मासायुकी उसादा के अनुसार, “आंबेडकर सबसे अधिक बहुमत से जीते। इसे आंबेडकर के जीवनी लेखक उनके जीवन की एक साधारण सी घटना के रूप में चित्रित करते हैं। परन्तु वे यह नहीं बताते कि इस जीत के पीछे अनुसूचित जातियों के बंगाली युवकों का गहन परिश्रम और समर्पण था।[6] कोई आश्चर्य नहीं कि बंगाली बुद्धिजीवियों ने आंबेडकर के जीवन के इस प्रसंग को नज़रंदाज़ किया। उर्जावान और देशभक्त नामशूद्र युवकों की एक पूरी पलटन, जिसमें प्रान्त के विभिन्न हिस्सों के युवक शामिल थे, ने आंबेडकर के पक्ष में धुआंधार प्रचार किया और कांग्रेस को धूल चटा दी। इन युवकों में अपूर्बलाल मजूमदार, रसिकलाल बिस्वास, चुनीलाल बिस्वास, मनोहर ढली, राजकुमार मंडल, कामिनी प्रसन्न मजूमदार, शशिभूषण हल्दर, उपेन्द्रनाथ मल्लिक, डॉक्टर स्वर्णलता मैत्रा और बिना समद्दर शामिल थे। यह दिलचस्प है कि कांग्रेसियों ने गयानाथ बिस्वास को एक स्थान पर बंद कर दिया था ताकि वे अपना मत देने के लिए विधान परिषद् न पहुँच सकें, परन्तु उन्हें समय रहते छुड़ा लिया गया। जैसोर-खुलना की विजय ने आंबेडकर को एकमात्र ऐसा नेता बना दिया, जो अपने गृह प्रदेश के बाहर से संविधान सभा के लिए चुना गया।
आंबेडकर की “सबसे अधिक बहुमत” से जीत को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। आंबेडकर को सात वोट मिले थे और शरतचन्द्र बोस को छह, यह बंगाल में किसी भी उम्मीदवार को मिले वोटों में सबसे ज्यादा थे। शरतचन्द्र एक शीर्ष नेता थे और प्रसिद्द स्वाधीनता संग्राम सेनानी सुभाषचन्द्र बोस के बड़े भाई थे। मतदान के दिन, कलकत्ता की सड़कों पर हिंसा हुई। तलवारों से लैस, आंबेडकर के अनुसूचित जाति के सिक्ख समर्थकों और नामशूद्र कार्यकर्ताओं ने हिन्दू तत्वों द्वारा की जा रहे हिंसा का प्रतिकार किया।
अनुसूचित जातियों और विशेषकर नामशूद्रों को यह अहसास था कि आंबेडकर का संविधान सभा में पहुंचना उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है। सरदार पटेल के रुख से साफ़ था कि कांग्रेस, अछूतों के सख्त खिलाफ थी। देश की इस सबसे बड़ी पार्टी को उसके टिकिट पर चुने गए अनुसूचित जातियों के 29 सदस्यों से कोई समस्या नहीं थी क्योंकि वे सब दब्बू थे। आंबेडकर इन सब से अलग थे। वे उद्भट विद्वान थे और असमानता, अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध उनके अनवरत संघर्ष और पददलितों के लिए उनके त्याग के कारण उनका कद बहुत ऊंचा था। आंबेडकर का संविधान सभा के लिए चुना जाना, उनके राजनैतिक प्रतिद्वंदियों और सामाजिक विरोधियों के लिए एक बहुत बड़ी मुसीबत था, परन्तु वे कुछ कर नहीं सकते थे। कैबिनेट मिशन के अछूतों के प्रति दृष्टिकोण से आंबेडकर अत्यंत दुखी और निराश थे और उन्होंने अपने इस दुःख और निराशा को छुपाया नहीं। उन्होंने कहा, “उनके (अछूत) हाथ-पाँव बांध कर उन्हें हिन्दुओं के हवाले कर दिया गया है”[7] । आंबेडकर और उनके कार्यों और त्याग पर एक सटीक और सारगर्भित टिपण्णी यह है: “उन्होंने बहुत त्याग किये हैं। वे अपने काम में डूबे रहते हैं। उनका जीवन बहुत सादा है। वे हर महीने एक से दो हज़ार रुपये कमा सकते हैं। वे चाहें तो यूरोप में बस सकते हैं। परन्तु वे इनमें से कुछ भी नहीं करना चाहते। उन्हें केवल हरिजनों की भलाई की फिक्र है”[8] । और यह टिपण्णी आंबेडकर के किसी प्रशंसक की नहीं है। ये शब्द जीवनपर्यंत आंबेडकर के धुर विरोधी रहे गांधीजी के शब्द हैं। उन्होंने ये बात 1934 में कराची में विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कही थी।
संविधान सभा के लिए आंबेडकर को चुनकर, बंगाल के अछूतों ने उन्हें यह मौका दिया कि पूरी दुनिया में भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में पहचाने जा सकें। यह निश्चित है कि अगर संविधान सभा में आंबेडकर नहीं होते तो हमारा संविधान, मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि के कानूनों का मिश्रण होता। आंबेडकर ने हमें इस आपदा से बचाया। बंगाल के अछूतों और पिछड़ी जातियों के विधान परिषद् सदस्यों ने आंबेडकर को चुनकर उन्हें उनके जीवनभर के श्रम को सार्थक करने का मौका दिया।
भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब बंगाल का विभाजन हुआ तब जेसोर-खुलना, जहाँ से आंबेडकर चुने गए थे, पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। अब समस्या यह थी कि वह क्षेत्र जहाँ से आंबेडकर चुने गए थे, देश का हिस्सा ही नहीं रह गया था। सौभाग्यवश, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद, तब तक आंबेडकर की क्षमता और योग्यता से परिचित हो गए थे। उन्होंने बम्बई के प्रधानमंत्री बी.जी. खरे को निर्देश दिया कि वे डॉ. मुकुंद रामराव जयकर के इस्तीफे से खाली हुई सीट से आंबेडकर को कांग्रेस के टिकिट पर चुनाव जितवाएं।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लिखा, “अन्य बातों के अतिरिक्त, हमें यह महसूस हुआ है कि डॉ आंबेडकर का संविधान सभा व इसकी विभिन्न समितियों में जो काम है, वह इतनी उच्च श्रेणी का है कि हमें उनकी सेवाओं से वंचित नहीं होना चाहिए। जैसा कि आप जानते है, वे बंगाल से चुने गए थे और प्रान्त के विभाजन के बाद वे संविधान सभा के सदस्य नहीं रह गए हैं। मेरी यह उत्कट इच्छा है कि 14 जुलाई से शुरू होने वाले सभा के अगले सत्र में उन्हें भाग लेना चाहिए और इसलिए यह आवश्यक है कि उन्हें तुरंत फिर से चुना जाये”।
अमरीकी इतिहासविद और भारतीय संविधान के अच्छे ज्ञाता ग्रान्विल्ले सेवार्ड ऑस्टिन (1927-2014) ने लिखा है कि डॉ आंबेडकर द्वारा तैयार किया भारतीय संविधान “सबसे पहले एक सामाजिक दस्तावेज है”। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा, “भारत के संविधान के अधिकांश प्रावधान या तो सामाजिक क्रांति के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ाने वाले हैं या ऐसी स्थितियों का निर्माण करते हैं, जिनसे सामाजिक क्रांति हो सके”। अगर भारत में सामाजिक क्रांति हो जाये तो वह रातों-रात एक आधुनिक, उदार व जीवंत देश बन जायेगा। परन्तु इसकी आबादी का एक बहुत छोटा सा हिस्सा, सामाजिक क्रांति से घृणा करता है क्योंकि इससे जाति, अंधकारवाद और रूढ़िवादिता का अंत हो जायेगा।
जब संविधान सभा, देश का संविधान तैयार करने में जुटी हुई थी, उस वक्त भारत के धर्मांध और कट्टर तत्त्व लगातार दबाव बना रहे थे। संविधान के 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किये जाने के तीन दिन पहले, माधव सदाशिव गोलवलकर (1906-1973) ने ‘आर्गेनाइजर’ के 3 नवम्बर, 1949 को प्रकाशित अपने एक लेख में, कहा, “हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास की कोई चर्चा नहीं है। मनु ने अपने नियम, स्पार्टा के लाईकरगस और पर्शिया के सोलोन के काफी पहले लिखे थे। आज भी मनुस्मृति के कानूनों की दुनिया प्रशंसक है और इनका स्वतःस्फूर्त पालन होता है। परन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई महत्व ही नहीं है”.[9] वे और उनके जैसे अन्य, देश को उनके पूज्यनीय मनु के युग में वापस जाना चाहते थे।
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, पूर्वी बंगाल में नामशूद्रों और भद्रलोक के परस्पर रिश्ते बहुत ख़राब हो गए। बंगाली हिन्दू टिप्पणीकारों ने लिखा, “फरीदपुर और बारीसाल के नामशूद्रों ने, ब्राह्मणों, कायस्थों और बैद्यों का लगभग बहिष्कार कर दिया है। ऐसी सम्भावना है कि उनकी अन्य नीची जातियों से एकता स्थापित हो जाये। अगर ऐसा होता है तो ऊंची जातियों का सुख और सम्मान समाप्त हो जायेगा [10]।” साफ़ है कि ऊंची जातियों के सुख और सम्मान को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि जिन समुदायों का वे दमन करते हैं, उनमें एकता स्थापित न हो सके!
डॉ बी.आर. आंबेडकर ने भारत को हिन्दू राष्ट्र बनने से रोकने में प्रभावकारी भूमिका अदा कर देश को एक बड़ी आपदा से बचाया। जोगेन्द्रनाथ मंडल के नेतृत्व में नामशूद्रों, राजबंशियों और आदिवासियों ने इस नाजुक मौके पर आंबेडकर को संविधान सभा के सदस्य के रूप में निर्वाचन में महती भूमिका निभायी और इस तरह भारत के इतिहास का एक चमकदार पृष्ठ लिखा गया। उन्होंने ऊंची जातियों द्वारा अछूतों के खिलाफ रचे गए षड़यंत्र को विफल कर दिया। उन्होंने डॉ आंबेडकर को यह मौका दिया कि वे दुनिया को उनकी चमत्कारिक मेधा, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व व विद्वत्ता से परिचित करवा सकें। जिन लोगों ने यह संभव बनाया, वे प्रशंसा और सम्मान के हक़दार हैं परन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें भुला दिया गया है। इस अध्याय कि चर्चा ही नहीं की जाती क्योंकि इससे ‘बंगाली छोटालोग’ के राष्ट्रनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश पड़ता है।
अपनी ऐतिहासिक भूमिका की चर्चा करते हुए, आंबेडकर ने कहा, “हिन्दुओं को वेद चाहिए थे, तो उन्होंने व्यास को याद किया, जो ऊंची जाति के नहीं थे। उन्हें रामायण चाहिए थी, तो उन्होंने वाल्मीकि को याद किया। उन्हें संविधान चाहिए था, तो उन्होंने मुझे याद किया”।
[1] डेविड कीन, कास्ट-बेस्ड डिस्क्रिमिनेशन इन इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स लॉ, ऐशगेट, 2007
[2] आल बंगाल डिप्रेस्ड क्लासेज एसोसिएशन ने इस शब्द को गढ़ा था और इसका सबसे पहले प्रयोग जनवरी, 1929 में साइमन कमीशन को सौंपे गए अपने ज्ञापन में किया था. ए. के. बिस्वास, द नामशुद्रास ऑफ़ बंगाल, ब्लूमून, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 75
[3] ए.के. बिस्वास, “चांडालस रेज: हाउ अ पीसफुल स्ट्राइक बाय दलितस पैरालाईजड लाइफ इन बंगाल”, आउटलुक, अगस्त 29, 2016
[4] जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जेल महानिरीक्षक, लोअर प्रोविन्सस ऑफ़ बंगाल को लिखा गया पत्र क्रमांक 44, दिनांक 22 अप्रैल, 1873
[5] ए. के. बिस्वास, द नामशुद्रास ऑफ़ बंगाल, ब्लूमून, दिल्ली, 2000
[6] सदानंद बिस्वास, महाप्राण जोगेन्द्रनाथ, बंगभंग ओ अनन्य प्रसंगो (बांग्ला) मार्च 2004, पृष्ठ 61
[7] क्रिस्टोफर जेफेरलॉट, आंबेडकर एंड अनटचेबिलिटी, परमानेंट ब्लैक, दिल्ली, 2004, पृष्ठ 61
[8] जेफेरलॉट उपरोक्त पृष्ठ 71
[9] एम.एस. गोलवलकर का आरआरएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर के दिनांक 23 नवम्बर, 1949 के अंक में पृष्ठ 3 पर प्रकाशित लेख.
[10] बंद्योपाध्याय, शेखर, कास्ट, प्रोटेस्ट एंड आइडेंटिटी ऑफ़ कोलोनियल इंडिया: द नामशुद्रास ऑफ़ बंगाल, 1872-1947, ओ.यू.पी., 2011, पृष्ठ 81
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