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महाड़ चवदार सत्याग्रह और आंबेडकर की तीन क्रांतिकारी सलाहें

महाड़ आंदोलन के दौरान डा. आंबेडकर के द्वारा दलित समुदाय के लिए दिये गये तीनसूत्री सन्देश, गंदे व्यवसाय या पेशे को छोड़कर बाहर आना, मरे हुए जानवरों का मांस खाना छोड़ना, और अछूत होने की अपनी स्वयं की हीनभावना से बाहर निकलना और खुद को सम्मान देना, की ऐतिहासिकता और उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव की व्याख्या कर रहे हैं संजय जोठे

एक अर्थ में देखा जाए तो 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति की भूमिका जिन बातों ने बनाई थीं उन बातों की तुलना महाड चवदार सत्याग्रह से की जा सकती है। फ्रांस की धरती पर जिस क्रान्ति का बीज पड़ा था, उसने वैश्विक स्तर पर समानता को रेखांकित किया था और उसके तार्किक परिणाम में मानवाधिकार घोषणापत्र ने जन्म लिया था। इसी तरह भारतीय अछूतों के मानवाधिकारों को प्रखर और ओजस्वी वाणी में परिभाषित करने का पुनीत कार्य इन  सत्याग्रहों ने किया। बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में हुए इस आंदोलन ने न सिर्फ सामाजिक अर्थों में उभर रही एक नवीन दलित शक्ति को दिशा दिखाने का कार्य किया बल्कि इसने एक नयी राजनीति शक्ति को भी संगठित करने की भूमिका निर्मित की। यह आंदोलन और इसकी सफलताएं या असफलताएं बहुत महत्वपूर्ण हैं और उनके निहितार्थों को बहुत ध्यान से देखने की आवश्यकता है। विशेष रूप से इस अवसर पर आंबेडकर द्वारा की गयी क्रांतिकारी घोषणाओं पर बार- बार विचार करना चाहिए।

ambedkar-mahadउस समय अछूतपन के शाप से पीड़ित समाज को अपनी बदहाली से उबरने के लिए उन्होंने जो तीन सूत्र दिए थे वे उल्लेखनीय हैं उन्होंने पहला सूत्र दिया था- गंदे व्यवसाय या पेशे को छोड़कर बाहर आना। दूसरा, मरे हुए जानवरों का मांस खाना छोड़ना, और तीसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण – अछूत होने की अपनी स्वयं की हीनभावना से बाहर निकलना और खुद को सम्मान देना। एक क्रम में रखकर देखें तो ये क्रांतिकारी सूत्र बहुत गहरी समाज मनोवैज्ञानिक तकनीकें हैं। इन सूत्रों का सौंदर्य और क्षमता निरपवाद हैं और जिन भी समुदायों या व्यक्तियों ने इसपर अमल किया है, इतिहास में उनकी उन्नति हुई है।

इन तीन सलाहों के सन्दर्भ में अछूतपन या वंचितपन अथवा शोषण को नए अर्थ में भी देखा जा सकता है। यह नया तरीका इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि पुराने राजनीतिक तरीकों की निस्सारता हमारे सामने है और हाल ही के चुनावी गणित में सिद्धांतों की जैसी दुर्गति और खरीद फरोख्त हो रही है वह बहुत निराश करती है। एक नए अर्थ में इन तीन सूत्रों को देखें तो कुछ आशा जगती है। अभी तक सभी मुख्य विमर्शों में अछूतों की समस्या राजनीतिक और सामाजिक भेदभाव के तरीके से उत्पन्न बताई जाती है। लेकिन एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक विवशता भी,  जिसे अभी तक ठीक से अछूतपन के सन्दर्भ में रखकर देखा नहीं गया है। अछूत अपने अछूत कर्म की वजह से स्वयं अपनी ही नज़र में गिरता है और यह गिरना ही उसे अन्दर से कमजोर बनाता आया है। हालांकि सामाजिक राजनीतिक षड्यंत्रों पर इसका जिम्मा डाला जा सकता है और बहुत दूर तक यह सही भी है। और यह उन षड्यंत्रपूर्ण सामजिक व्यवस्था की और संकेत भी करती है जिसने पहली बार अछूत पैदा किये थे।  लेकिन आंबेडकर अछूतों के उत्थान के जो सूत्र दे रहे हैं वे राजनीतिक से ज्यादा व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक क्रान्ति के सूत्र हैं। ये सूत्र राजनीतिक विमर्श से दूर  रखकर देखे जाने चाहिये।

अगर इतिहास के किसी बिंदु पर किन्ही विवशताओं के चलते बौद्धों को अछूत बनना पड़ा था, तब उन्हें अछूत बनाने के लिए जो तकनीक अपनाई गयी थी उस पर हमें गौर करना चाहिए। तभी हम अछूत बनने और बनाने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझ पाएंगे। खुद आंबेडकर की रिसर्च जिस नतीज़े पर पहुँचती है वह यह बताती है कि अतीत के बौद्ध ही वर्त्तमान दलित हैं, उसमे भी वे जातियाँ जो मरे हुए जानवरों का मांस खाती थीं या खाती हैं ।

बौद्ध साहित्य में एक गाथा के सन्दर्भ मिलते हैं जिनमे किसी भिक्षु को बुद्ध द्वारा ये आज्ञा दी गयी थी कि भिक्षापात्र में जो भी मिले उसे बिना किसी चुनाव के भक्षण किया जाए। यह कथा आगे बढ़ती है और उल्लेख आता है कि किसी पक्षी के मुंह से मांस का टुकड़ा उस भिक्षु के भिक्षापात्र में गिरा और वह भिक्षु तथागत के सम्मुख मार्गदर्शन के लिए उपस्थित हुआ। कथा यह बताती है कि तब बुद्ध ने कहा कि चूकी यह पहले से ही मरे हुए जानवर का मांस है, इसलिए इसके भक्षण में हिंसा नहीं है। कालांतर में यह बात नियम बन गयी और आज भी बौद्ध देशों में मांस की दुकानों पर तख्ती लटकती देखी जाती है कि “यहाँ स्वाभाविक रूप से मरे हुए जानवरों का मांस बिकता है। “भारतीय जातियों में अनेक जातियों में ये परम्परा देखी जाती है। इसी बात ने आंबेडकर को यह स्थापित करने में मदद की थी कि अतीत के बौद्ध ही एक अर्थ में आज के अछूत हैं। अब  तथागत बुद्ध की आज्ञा को, कालांतर में ब्राह्मणवादी षड्यंत्र को और पिछली सदी  में दिए गए बाबा साहेब के तीन क्रांतिकारी सूत्रों को एकसाथ रखकर देखें तो पता चलता है कि अछूत कैसे पैदा होते हैं, और कैसे अछूतपन से बाहर आ सकते हैं। ये तीनों बातें एक क्रम में हमें बहुत कुछ सिखा सकती हैं।

तथागत की मांसभक्षण को स्वीकृति इस पूरे देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई। असल में उस समय उनके लिए प्रश्न ये था कि क्या भिक्षुओं को भिक्षा में भी चुनने का अधिकार दिया जाए या ना दिया जाए। भिक्षा का अर्थ ही समस्त चुनावो से परे जाकर मन के खेल से बाहर आने में है। यही बुद्ध की धर्म साधना का मौलिक सूत्र है। उनके अनुसार मन चुनाव करता है और ये चुनाव ही पतन में ले जाकर तृष्णा की दासता पैदा करते हैं। इस प्रसंग में जबकि भिक्षु द्वारा मांसभक्षण के बारे में निर्देश माँगा गया- तब बुद्ध ने जो निर्णय दिया वह इस अर्थ में दिया गया था। अगर उस समय बुद्ध मांस भक्षण का विरोध कर देते तो सारे भिक्षु मांसभक्षण से तो बच जाते लेकिन चुनाव करने वाले मन के झांसे में आकर साधना के मूल सूत्र से वंचित रह जाते। यह दूसरा पतन बुद्ध को मंजूर नहीं था, इसलिए उन्होंने मांसभक्षण को स्वीकृति दे दी इस तर्क के साथ कि चूंकि इस भिक्षु ने अपने भोजन के लिए किसी जानवर को नहीं मारा है इसलिए यहाँ हिंसा नहीं हुई है। दूसरे शब्दों में उन्होंने पहले से ही मरे हुए जानवर का मांस खाने की आज़ादी दे दी।

ambedkar_buddha-jayantiकालांतर में जब बौद्ध और जैन धर्म की चुनौती से हिन्दू धर्म बहुत कमजोर हो चला था और फिर से शक्ति प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था तब इन आज्ञाओं या निषेधों को उसने बहुत अलग ढंग से उपयोग करते हुए इनकी श्रेष्ठताओं को अपने में समावेशित कर लिया। यह समावेशिता हिन्दू धर्म की विशेषता है और एक अर्थ में यही हिन्दू धर्म को महान भी बनाती है। किन्तु इस महानता का एक कला चेहरा भी है, जो अछूतों के अछूतपन की सर्जना में सर्वाधिक दुखद और षड्यंत्रकारी रूप में सामने आता है।

जिस समय हिन्दू धर्म या वेदान्तिक ज्ञान की प्रणालियों को संगठित कर पुनर्जीवित करने के प्रयास चला रहे थे तभी बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों की उज्जवल छवि और चमत्कार को हिन्दू धर्म में लाने का प्रयास भी चला। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि तपस्वी भिक्षुओं या मुनियों के सम्मुख सुविधाजीवी ब्राह्मण का प्रभाव जनमानस पर बहुत कम था। वैरागी, व्रती और कठोर अनुशासन में जीने वाले भिक्षुओं का आचरण और ज्ञान ब्राह्मणों की तुलना में बहुत प्रभावी था। सम्भवतः इसीलिये बौद्ध धर्म छोटे से समय में पूरे भारत सहित एशिया भर में फ़ैल गया था। किन्तु बौद्ध धर्म वैराग्य और अहिंसा पर अति आग्रह के कारण एवं अन्य धर्मों के षड्यंत्र या आक्रमण के कारण कमजोर हुआ।

जब हिदू धर्माचार्यों ने हिन्दू सन्यासियों को सम्मानजनक पहचान दिलाने के सूत्र रचे तो ये सूत्र जैनों और बौद्धों से सीधे उधार ले लिए गए। अब हिन्दू सन्यासी भी भिक्षावृति पर जीने वाला और ब्रह्मचारी हो गया और उसके लिए मांस का निषेध कर दिया गया। उनके लिए भी कठोर आचारशास्त्र का निर्माण किया गया। हालांकि बुद्ध पूर्व के वैदिक हिन्दू समाज में ब्राह्मण गृहस्थ और सुविधाजीवी हुआ करता था। जब हिन्दू धर्म अपने पतन की गर्त से फिर से शक्तिशाली होकर उभरा तब इन्ही बौद्धों एवं जैनों के श्रेष्ठ आचरण को अपने सन्यासियों पर आरोपित कर दिया और पूरे बौद्धों को अछूत बना दिया। साथ ही राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक अर्थों में उन्हें सदैव कमजोर रखने के लिए उन्हें सबसे निंदनीय कामों में लगा दिया गया।

इस छोटी सी भूमिका से समझ में आता है कि एक समाज मनोवैज्ञानिक ढंग से चीजें कैसे काम करती हैं। राजनीतिक और सामाजिक षड्यंत्रों में भी कहीं गहरे में मनोवैज्ञानिक तकनीकें ही काम करती हैं जो ना सिर्फ शोषक को शोषण का अधिकार देती हैं, बल्कि शोषित को भी हीनभावना से भरकर कमजोर बनाती हैं। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि क्यों अछूत होना पहले एक राजनीतिक घटना थी और बाद में फिर एक सामाजिक परम्परा बन गयी।

अब इसे और विस्तार में देखते हैं। वास्तव में अच्छे बुरे श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ आदि में भेद करने की प्रवृत्ति एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है। यह मनुष्य को एक जीववैज्ञानिक और सामाजिक पशु की तरह ज़िंदा रखने में मदद करती है। काम धंधों में श्रेष्ठता या निकृष्ठता का पैमाना उसकी साफ़ सफाई एवं ज्ञान और कौशल से जोड़कर देखा जाता है। इसीलिये ज्ञान का पेशा करने वाले लोग सभी समाजों में समादृत होते हैं। वह ज्ञान चाहे धर्म का हो चाहे शस्त्र का हो चाहे विज्ञान का हो या व्यापार का हो। हालाँकि तथाकथित शूद्रकर्म का भी अपना ज्ञान होता है, किन्तु वो उस कर्म में शामिल गन्दगी के कारण सामान्य अर्थों में सम्मानित नहीं हो पाता।  यह हमारा दुर्भाग्य है, ऐसा नहीं होना चाहिए।  किन्तु समाज का सामूहिक मन इसी तरह कार्य करता है।

इस तरह हम देखते हैं कि किन्ही गंदे या अस्वच्छ कर्म में लगा दिए जाने पर ही अछूत पैदा होता है। अब इस बात के भी दो पहलू हैं। यहाँ गंदापन भी तुलनात्मक है। एक पहलू में अगर अध्ययन -अध्यापन, वाणिज्य और युद्धकर्म से इसकी तुलना की जाए तो ही ये अस्वच्छ या गंदा कर्म है। लेकिन दूसरी तरफ इसे अगर पीढ़ी दर पीढ़ी खानदानी पेशा बना दिया जाए, तो इसकी भयानकता बहुत बढ़ जाती है। और इसी अवस्था में गंदेपन और हीना भावना का यह दंश पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ सकता है। अगर जन्मतः कार्यविभाजन का सिद्धांत ना होता तो अछूत सिर्फ एक मानवीय गुण बन कर रह जाता। तब वह परम्परा नहीं बन सकता था। इस बात से यह सिद्ध होता है कि अस्वच्छ कर्म की स्वयं की पहचान, उससे जुडी हुई हीनभावना और उसके प्रति शेष समाज का तिरस्कार ही अछूतों को पैदा करता है।

अब आंबेडकर द्वारा दी गयी क्रांतिकारी सलाह को इस सन्दर्भ में रखकर देखें तो हम समझ पाते हैं कि वे एक बहुत मौलिक क्रांति का सूत्रपात कर रहे हैं। वे जब गंदे काम को छोड़ने का आग्रह करते हैं तो उनका सबसे पहला लक्ष्य होता है स्वयं अछूतं में अपनी आजीविका से जुडी हीन भावना और कमजोरी को खत्म करना। जब वे कहते हैं मरे जानवरों का मांस खाना बंद करो तब उनका लक्ष्य होता है नितांत व्यक्तिगत आचरण में शुचिता स्वच्छता और अहिंसात्मक जीवन शैली का पालन। और जब वे कहते हैं कि अछूत होने की मानसिकता से बाहर निकलो तब उनका लक्ष्य है वो आत्मविश्वास हासिल करना जो शोषकों को सम्यक जवाब दे सके और शोषण की परम्परा का उन्मूलन कर सके।

अब इस पूरे विस्तार में हमारे लिए क्या ग्रहणीय है? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इतिहास सिद्ध तथ्यों और विवरणों से हम अपने लिए क्या शिक्षा लेते हैं ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है। विशेष रूप से आज जबकि सत्ता के समीकरण और अनुमान भारतीय इतिहास में पहली बार एक दूरगामी और स्थायी परिवर्तन के संकेत दे रहे हों। इस अवश्यम्भावी राजनीतिक संक्रांति के दौर से गुजरते हुए हमें दलित आंदोलन या दलित विमर्श की दिशा पर पुनर्विचार करना चाहिए। एक राजनीतिक और सामाजिक अर्थ में ही अब तक दलित क्रान्ति का संगठन किया गया है। उसके परिणाम भी बहुत साफ़ नज़र आते हैं। राजनीतिक अर्थो में शक्ति संचय हुआ है और अब ये हालत हैं कि कोई भी पार्टी या सारी पार्टियां मिलकर भी दलित अधिकार के मुद्दे को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। किन्तु एक गहरी सांस्कृतिक या धार्मिक क्रान्ति के अभाव में यह शक्ति आत्मघाती बनाती जा रही है। दलितों में एक सबल सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को स्थापित किये बिना जिस शक्ति की उपासना चल रही है वह राजनीतिक शक्ति स्वयं उनके नियंत्रण से बाहर है। उसे बाहर से संचालित किया जा रहा है।

Muslims and hundreds of members of India's low-caste Dalit community gather for a rally in Una, India, Monday, Aug. 15, 2016. Four Dalits were brutally beaten by alleged vigilantes for skinning a dead cow at Mota Samadhiyala village near Una town in western Gujarat state. Dalits began a march on Aug. 5 from Ahmedabad to Una to protest against the atrocities on their community in the state. (AP Photo/Ajit Solanki)

शक्ति का यह अहसास एक गहरे पतन की पूर्वसूचना भी दे रहा है। यह मुस्लिम वोटबैंक के भारत में शोषण और मुस्लिम समाज के वैश्विक पतन जैसा नज़र आ रहा है। अन्य सारी समानताओं के अलावा दलित और मुस्लिम प्रश्न में कुछ असमानताएं हैं, जिनका एक् जैसा शोषण मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों ने किया है। ये एक व्यापक षड्यंत्र के तहत हुआ है। इस समाज मनोवैज्ञानिक षड्यंत्र को आंबेडकर की इन तीन सलाहों की रोशनी में आसानी से देखा और पहचाना जा सकता है।

पहली बात जो समझ में आती है वो यह कि अस्वच्छ धंधों से जुडी गंदी पहचान को परम्परागत रूप देकर अछूत होना जारी रखा गया है। और इन्ही अछूतों और मुस्लिमों को शिक्षा से दूर रखा गया है। अछूतों को शिक्षा से दूर रखने का कार्य स्वयं अछूतों को डराकर सामाजिक अलगाव पैदा करके किया गया है। इसका पूरा प्रभाव मुस्लिमों पर भी पड़ा है क्योंकि ज्यादातर मुस्लिम पुराने अछूत ही हैं। साथ ही आजादी के बाद मुल्लावाद और रूढ़िवाद को पोषित करते हुए तुष्टीकरण की नीति चलाकर बहुत गहरे अर्थों में पूरी मुस्लिम आबादी को भी आधुनिक शिक्षा से दूर किया गया है। सिर्फ दीनी तालीम और मदरसे वाली शिक्षा में पूरे मुस्लिम समाज को सीमित करने के परिणाम बहुत घातक हुए हैं। किन्तु शिक्षा से वंचित रखने के ये परिणाम दलितों के लिए ऐतिहासिक रूप से कहीं अधिक विनाशकारी रहे हैं। इसका मुख्य कारण है कि अछूत होना और अछूत होने के कारण गंदे व्यवसाय में लग जाना एक तरह का विषचक्र है। इसे तोड़ने की उन्होंने बहुत कोशिशे की हैं जिन्हे सवर्ण समाज ने कुचला है। लेकिन मुस्लिम समाज जो कि एक अर्थ में धर्मपरिवर्तित दलितों की बहुसंख्या से निर्मित हुआ है, उसमे शिक्षा के प्रति अजागरूकता के कारण बहुत दूसरे हैं।

दूसरे शब्दों में ऐतिहासिक अछूतों या अब के दलितों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बहुत पुराने समय से है।  हाल ही के इतिहास में महात्मा फूले और उनके बाद के दलित नेताओं के प्रयासों में ये बात स्पष्ट होती है। लेकिन मुस्लिम समाज में शिक्षा और विकास के प्रति जागरूकता की एक विशेष कमी है जो स्वयं उनके सचेतन निर्णय और चुनाव से आई है। दलितों में शिक्षा का अभाव उनकी इच्छा के बावजूद सवर्ण समाज की कठोरता के कारण उभरा है। इसके विपरीत मुस्लिम समाज में आधुनिक शिक्षा के प्रति स्वागत भाव का अभाव स्वयं को विशिष्ट साबित करने की मानसिकता से उत्पन्न हुआ है। एक ऐसे देश में जहां हिंदुओं का हज़ारों साल का समृद्ध अतीत रहा है, वहाँ स्वयं को भिन्न साबित करने की विवशता ने मुस्लिम समाज के लिए बहुत सारी असुरक्षाएं पैदा कर दी हैं। इन्ही असुरक्षाओं के चलते वह समाज अपनी परम्पराओं और विशिष्ठ पहचान के प्रति इतना आग्रही हो गया है कि आधुनिक शिक्षा से उसे डर लगता है। उन्हें डर लगता है कि इस शिक्षा के कारण उनकी विशेष पहचान ही ना मर जाए या उनके बच्चो में दूसरे धर्मों के आचरण व्यवहार ना प्रवेश कर जाएँ।

इस तरह हम देखते हैं कि दलितों में और मुस्लिमों में आधुनिक शिक्षा के प्रति एकदम अलग मानसिकता काम करती है। इसीलिये उनके साझे भविष्य को देखने वाले सभी आंदोलन इस दृष्टि वैषम्य से अनिवार्य रूप से पीड़ित होने को बाध्य होंगे। यह बात बहुत स्पष्ट हो चुकी है और हाल ही के इतिहास में इसके प्रमाण देखे जा सकते है।

इसीलिये अब समय आ गया है कि दलित समाज को स्वतंत्र रूप से आधुनिक शिक्षा और अंग्रेज़ी भाषा की तरफ बहुत तेजी से ले जाया जाये। यही आम्बेडकर की सलाहों में भी आता है। लेकिन आजादी के बाद दलित मुस्लिम और वाम गठजोड़ बनाते हुए एक साझे आंदोलन की जो इबारत वामपंथ ने लिखी है उससे बचने की भी आवश्यकता है। ये आवश्यकता अब बढ़ती जा रही है। इसके प्रति पूरे दलित समाज को जागरूक होना चाहिए। आम्बेडकर ने साम्यवादी ढंग का कभी समर्थन नहीं किया। और उन्हें पता था कि किस तरह आधुनिक साम्यवादी अपनी अवसरवादी चालों से दलितों के इतिहास सिद्ध अधिकारों और असंतोष का दुरुपयोग अपने  राजनीतिक लक्ष्यों के लिए कर सकते हैं। आंबेडकर की यह अंतर्दृष्टि आज हमारे लिए और अधिक महत्वपूर्ण बन गयी है।

विशेष रूप से अछूतों को अछूतपन से बाहर आने के लिए उन्होंने जो तीन सलाहें ऊपर कहे अनुसार दी हैं , उन सलाहों का पालन करना है तो दलित समाज को अपने ही दम पर अपने खुद को शिक्षित और आधुनिक बनाना होगा। दलितों के भविष्य का मार्ग उनके अपने सशक्तीकरण और पुनर्जागरण से होकर जाएगा। इस स्थिति में आधुनिक शिक्षा का और प्रगतिशीलता विरोध करने वाले मुस्लिम राजनीति नेतृत्व सहित पूरे मुस्लिम समाज से दूरी बनानी होगी। जब तक कि शिक्षा और आधुनिकता के लिए खुद मुस्लिम समाज में एक व्यापक स्वाकृति नहीं आ जाती तब तक दलित आन्दोलन को इस गठजोड़ से बचना चाहिए। दूसरे शब्दों में संक्षेप में दलित समाज या दलित आन्दोलन को किसी अन्य समुदाय की सचेतन प्रतिगामिता या किसी अन्य क्रांतिकारी विचारधारा के डूब रहे काल्पनिक यूटोपिया- दोनों से ही बचना होगा।

लेखक के बारे में

संजय श्रमण जोठे

डॉ. संजय श्रमण जोठे एक लेखक, अनुवादक और शोधकर्ता हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीस से अंतरराष्ट्रीय विकास में एमए हैं और मुंबई के टीआईएसएस से पीएचडी हैं। इसके अलावा सामाजिक विकास के मुद्दों पर पिछले 20 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत रहे हैं। जोतीराव फुले और रामसामी पेरियार पर इनकी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में जर्मनी के एर्फ़र्ट विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं। साथ ही, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व वेब-पोर्टलों के लिए लेखन में सक्रिय हैं।

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