‘एक नए इतिहास की खोज की जा रही है और मिथकीय पुनर्पाठ के प्रयास जारी हैं, ठीक उसी तरह जैसे कभी फुले, पेरियार और आंबेडकर ने किया था।’ – प्रतिमान, जून, 2016
इस रिपोर्ट के महत्व को आप एक चौकाने वाले घटनाक्रम से समझ सकते हैं। मार्च, 2016 में छत्तीसगढ के मानपुर कस्बे में कुर्मी जाति से आने वाले विवेक कुमार की गिरफ्तारी का प्रसंग आपको याद होगा। पत्रकार विवेक कुमार ने अपने फेसबुक पेज पर महिषासुर से संबंधित एक पोस्ट डाली थी, जिस पर देवी दुर्गा का अपमान करने का आरोप लगाकर कुछ स्थानीय लोगों ने पुलिस में शिकायत कर दी थी। विवेक को इस आरोप में कई महीने जेल में बिताने पडे़ थे। उसके बाद छत्तीसगढ समेत देश के विभिन्न हिस्सों में देवी दुर्गा के अपमान और महिषासुर को जननायक के रूप में चित्रित करने वाले अनेक लोगों को गिरफ्तार किया गया। कई जगह आगजनी और तोड-फोड की घटनाएं हुईं। कथित धार्मिक भावनाओं के आहत हो उठने पर यह सब चीजें स्वाभाविक मानी जाती हैं।
चौकाने वाला घटनाक्रम इसके विपरीत हैं।
10 नवंबर, 2016 को छत्तीसगढ़ के राजनंदगाँव जिले के मानपुर में भाजपा कार्यकर्ता सतीश दुबे की गिरफ्तारी महिषासुर का अपमान करने के आरोप में हुई। इस साल के अप्रैल महीने में ही स्थानीय आदिवासियों ने पुलिस में शिकायत की थी कि ‘महिषासुर के औलादों को जूते मारो सालों को’ के नारे लगाकर सतीश दुबे व उनके साथियों ने उनकी सांस्कृतिक आस्था का अपमान किया है। (देखें – महिषासुर का अपमान उल्टा पड़ा: सड़क पर उतरे आदिवासी) पुलिस ने जब उनकी इस शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की तो उन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आखिरकार कोर्ट के आदेश पर पुलिस को सतीश दुबे को गिरफ्तार करना पड़ा। इस मामले में पांच अन्य आरोपी भारतीय जनता युवा मोर्चा के राजू टांडिया, मंडल उपाध्यक्ष ओम चांडक, युवा मोर्चा के मंडल अध्यक्ष प्रकाश मिश्रा, और भाजपा के पूर्व मंडल अध्यक्ष मदन साहू फरार हैं। यह सामान्य घटना नहीं है। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। यह देश भर में पहली घटना है, जब ब्राह्मण मिथकों के प्रतिनायक के अपमान के लिए राज्य की एजेंसी को कार्रवाई करनी पड़ी है, अन्यथा अबतक तो महिषासुर, रावण आदि प्रतिनायकों का अपमान ब्राह्मण धर्म के विभिन्न पर्वों का सालाना उत्सव होता रहा है। यह ब्राह्मणेत्तर सांस्कृतिक दावेदारी का एक प्रतीक है, और उससे बनते दवाब का भी प्रतीक।
स्टेट की एजेंसी के द्वारा महिषासुर को एक विशाल सामाजिक समूह की सांस्कृतिक पहचान मानने की विवशता कोई अचानक की परिघटना नहीं है, इसकी एक पृष्ठभूमि है। इस पृष्ठभूमि को अक्टूबर महीने में देश भर में मनाये गये महिषासुर शहादत दिवस के आयोजनों से समझा जा सकता है। इन आयोजनों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के भीतर काफी खलबली पैदा की है। इस खलबली को समाज अध्ययन की ख्यात संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ द डेवलपिंग सेासाइटीज (सीएसडीएस) की शोध पत्रिका प्रतिमान के जून अंक ने इन शब्दों में व्यक्त किया है : ‘हमारे सामाजिक जीवन की सांस्कृतिक राजनीति में खलबली मचाने वाले महिषासुर विमर्श के कारण हिन्दू धर्म की मिथकीय संरचना और उसपर आधारित समाजशास्त्र के लिए ये बेचैनी के दिन हैं।’ यही बेचैनी इस साल के फरवरी महीने में संसद सत्र में देखने को मिली जब तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने संसद में महिषासुर दिवस के आयोजन को नीच मानसिकता का परिचायक बताते हुए देश के दलित, पिछडे व आदिवासी बहुजनों को अपमानित किया था।
साझा इतिहास, साझी स्मृति
आदिवासी-दलित और ओबीसी समुदाय से जो बहुजन वृत्त बनता है, इतिहासकारों के अनुसार उनकी प्रायः एक ही विरासत है, उनका इतिहास, उनकी स्मृतियाँ एक हैं, इसीलिए महिषासुर की उपस्थिति इस व्यापक समुदाय में है। ब्राह्मणवाद से लम्बे दौर तक आहत होकर अब यह व्यापक समुदाय अपनी संस्कृति की पुनर्खोज कर रहा है, उसपर पुनः दावेदारी कर रहा है। जनजातियों की अपनी व्यवस्था को नये राज्य/साम्राज्य के द्वारा नष्ट किये जाने के बाद तत्कालीन व्यवस्था का उल्लेख देवी प्रसाद चटोपाध्याय ने अपनी किताब लोकायत में किया है। उन्होंने कौटिल्य द्वारा जनजातियों के लिए प्रस्तावित तत्कालीन व्यवस्था को इन शब्दों में स्पष्ट किया है।
‘इन लोगों को दस या पांच परिवारों के छोटे-छोटे गांवों में बसाया जाना चाहिए और उन्हें कृषि कार्यों में लागना चाहिए (पञ्चकुलिम दसकुलिम वा कृष्यायाम निवेसयेत) ये गाँव अलग-अलग रहने चाहिए और इसलिए इन्हें आत्मनिर्भर होना चाहिए। यह बात प्रथम सिद्धांत में ही निहित है। इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन छोटे-छोटे समूहों के बीच रहने वाले लोगों के आपस में संपर्क में आने की कोई संभावना नहीं रहे।’
देवीप्रसाद के अनुसार कौटिल्य के अनुयायियों ने ग्रामवासियों को अपने गांवों में अपने ढंग का जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। स्वाभाविक ही है कि उनमें अपने जनजातीय विश्वासों और विचारों के तत्व बने रहे हों। अन्य शब्दों में, ग्रामीण समाज में परिवर्तित इन जनजातीय लोगों ने अपने अतीत की विशेषताओं को जीवित रखा। शायद यत्र -तत्र बिखर गये और अलग-अलग गांवों में अलग-अलग कामों-कृषि, पशुपालन और काश्तकारी में लगे लोगों की वही विशेषताएं, साझी स्मृतियाँ हैं, जो उन्हें जोडती हैं, महिषासुर के मामले में वह एकसूत्रता इन साझी स्मृतियों का परिणाम है।
पशुपालक, कृषक व अन्य पिछडों का आयोजन
आइए, इस रिपोर्ट में समझते हैं कि इस दिवस के बहाने ब्राह्मणवादी सोच को किस प्रकार जमीनी चुनौती मिल रही है। इससे पूर्व भी इस वेब पोर्टल पर वर्ष 2016 में अलग-अलग जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन की अलग-अलग खबरें/रपटें प्रकाशित हुई हैं (देखे : राजन कुमार, महेश सोसले, गुरूमूर्ति अनिल वर्गीज व अनिल कुमार की रिपोर्ट)। इन रिपोर्टो में विभिन्न श्रोतों से बताया गया था कि देश भर में लगभग 1000 जगहों पर ये आयोजन हो रहे हैं, लेकिन चूकि इन रिपोर्टें से आयेाजनों की कोई स्पष्ट तस्वीर उभर का सामने नही आ रही थी। 1000 का यह आंकडा तो चौंकाने वाला था ही, यह सवाल भी अनुत्तरित रह जा रहा था कि किस सामाजिक पृष्ठभूमि, किस आर्थिक हैसियत के लोग इसे आयोजित कर रहे हैं? इन्हीं सवालों ने मुझे इसके आयोजकों की तलाश के लिए उकासाया। छोटे-छोटे गांवों में मुख्य रूप से व्हाटस एप से जागरूक हुई युवा पीढी इनकी आयोजक हैं। कई जगहों पर एक ही गांव के दो से अधिक टोलों में भी ये आयोजन हुए हैं।
इन आयोजनों के बारे में एक आम अवधारणा है कि यह असुर जनजाति से संबंधित है तथा कुछ दलित संगठन इसे मनाते हैं। जबकि वास्तविकता इससे थोडा अलग है। इन रिपोर्ट पर काम करते हुए मैंने जाना कि झारखंड में बसे असुर समुदाय के लोग महिषासुर को अपना पुरखा मानते हैं तथा पारंपरिक तौर पर इनकी अराधना कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को करते हैं, जिसके समांतर ब्राह़मण पंरपरा में नरक चतुदर्शी तथा दीवाली मनायी जाती है। वे पारंपरिक तौर पर न दुर्गा पूजा में भाग लेते हैं, न ही दिवाली को अपना त्योहार मानते हैं। असुर जनजाति के लोग उन अर्थों में ‘महिषासुर दिवस‘ नहीं मनाते रहे हैं, जिन अर्थों में पिछले कुछ वर्षों से यह देश के विभिन्न हिस्सों में मनाया जा रहा है। यह नया महिषासुर दिवस किसी प्राचीन त्योहार का पुनर्जागरण नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक रूप से वंचित किये गये तबकों के प्रतिरोध का अभिनव हथियार है। इस नये ‘महिषासुर दिवस‘ को असुर जनजातियों के साथ-साथ गोंड, कोया, भील आदि जनजातियों के बीच मान्यता मिली है। आदिवासियों के अतिरिक्त आम्बेडकरवादी दलित समुदायों के लोग इसे बडे पैमाने पर मानते हैं। विशेषकर वे लोग, जिन्हें बामसेफ के विभिन्न धडों से सांस्कृतिक आंदोलन से प्रेरणा मिली है। लेकिन इसे आयोजकों में सबसे अधिक संख्या अन्य पिछडा वर्ग से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की है।
इस साल 2016 के पूरे अक्टूबर महीने में फैले महिषासुर शहादत दिवस के इन आयोजनों में साझी स्मृतियों, विरासत का जो सन्देश है- उसके तार, बिहार-बंगाल-उड़ीसा से लेकर कर्नाटक तक, उत्तरप्रदेश से लेकर गुजरात तक फैले हैं। जाहिर है, जो आयोजन इस रिपोर्ट में दर्ज हो रहे हैं, उससे कई गुना कहीं ज्यादा आयोजन हुए हैं, जो यहाँ दर्ज नहीं हो पा रहे हैं।
बिहार के अलग–अलग जिलों में आयोजन का उत्साह
बिहार के कई हिस्सों में अक्टूबर के पूरे महीने तक अलग-अलग जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन हुए। इन आयोजनों में एक ख़ास विशेषता थी कि इसकी अगुआई करने वालों में अधिकांश अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से आते हैं। बिहार के औरंगाबाद और गया जिले में छः स्थानों पर ये आयोजन हुए। पेरियार सरयू मेहता के द्वारा इसका आयोजन महिषासुर चौक, होलिका नगर अंबा, में 8 अक्टूबर को हुआ। विजय गोप, व सरयू मेहता के नेतृत्व में पुनः 11 अक्टूबर को नेमामठ, हरिहरगंज, पलामू में महिषासुर को याद किया गया। वही विजय गोप के नेतृत्व में ललई सिंह यादव सभागार, महिषासुर चौक, पीपरडीह, औरंगाबाद में दिनांक 23 अक्टूबर को महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन हुआ। देवनन्दन यादव, नागेन्द्र यादव व अन्य ने महिषासुर शहादत दिवस गया के गुरुआ बाजार में 29 अक्टूबर को आयोजित किया, वही राजेन्द्र यादव एवं परमेश्वर पासवान एवं अन्य ने 23 अक्टूबर को गया के मोहनपुर प्रखंड में ने महिषासुर शहादत दिवस मनाया और सिद्धेश्वर यादव तथा ललन पासवान ने पिरमा गाँव, मदनपुर, औरंगाबाद के महिषासुर सभागार में 30 अक्टूबर 2016 को अपने नायक के रूप में महिषासुर को याद किया।
इन आयोजनों में एक ख़ास एकरूपता देखी जा सकती है वह यह कि इनके आयोजक प्रायः ओबीसी जातियों के लोग हैं, या तो यादव या कुशवाहा। छः आयोजनों में से एक के आयोजक दलित जाति से भी आते हैं। आयोजकों के अनुसार इन आयोजनों में बड़ी संख्या में जिन लोगों ने शिरकत किया, वे जरूर दलित-ओबीसी जातियों के लोग थे। इन आयोजनों में वर्णित स्थानों के लिहाज से एक तथ्य यह भी है कि महिषासुर शाहदत दिवस सहित अन्य मिथकीय नायकों को याद करते हुए एक सांस्कृतिक क्रान्ति घटित हो रही है, औरंगाबाद के कई सभागारों और चौकों का नामाकरण वहाँ की बहुजन जनता ने महिषासुर के नाम से कर रखा है। विजय गोप बताते हैं कि औरंगाबाद और गया जिले में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन पांच साल पहले, यानी 2011 से पेरियार सरयू मेहता के नेतृत्व में शुरू हुआ, जिले में एक जगह से शुरू होकर महिषासुर शहादत दिवस आयोजन कई जगह तक फैलता गया, जिसके आयोजकों में से मुख्यरूप से राष्ट्रीय मूलनिवासी बुद्धिजीवी संघ रहा है। विजय गोप के अनुसार शुरू में तो इसके आयोजन में कठिनाइयां हुईं, मसलन प्रशासन से अनुमति आदि लेने में, लेकिन आगे चलकर आयोजकों ने तय किया कि वे प्रशासन को सूचित जरूर करेंगे, लेकिन अनुमति मिलने का इन्तजार नहीं करेंगे। सरयू मेहता बताते हैं, ‘धीरे-धीरे इन आयोजनों में जनभागीदारी बढ़ती जा रही है।’ इस सवाल पर कि क्या ऐसे आयोजनों से आप एक पूजा का विरोध कर दूसरी पूजा की ओर नहीं बढ़ रहे, सरयू मेहता बताते हैं कि ‘आयोजन में किसी की पूजा नहीं होती है, पर्चों के माध्यम से मूलनिवासी नायकों की जानकारी दी जाती है, भाषणों में ब्राह्मणवाद के षड्यंत्रों को स्पष्ट किया जाता है। शहादत दिवस का आयोजन मुख्यतः सेमिनार, विचारगोष्ठी’ के द्वारा होता है.’ पेशे से शिक्षक और मनिका मदनपुर इंटर विद्यालय के प्रिंसिपल विजय गोप आयोजन में शिरकत करने वाली जातियों के लोगों की सूची देते हुए बताते हैं कि ‘यादव पहले नंबर पर हैं, उनके अलावा, कोयरी (कुशवाहा), कुर्मी, कुम्हार (प्रजापति), कहार (चंद्रवंशी), नाई(ठाकुर) आदि ओबीसी जातियां हैं, पासवान और चर्मकार समुदाय के लोग भी आयोजन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
औरंगाबाद के पड़ोसी जिला अरवल में 16 अक्टूबर को महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन हुआ। आयोजक संजय कुमार यादव ने बताया कि ‘चूकि प्रशासन से पूरी तरह अनुमति नहीं मिल पाई थी, इसलिए आयोजन की एक सीमा बन गई.’ संजय के अनुसार प्रशासन को सिर्फ सूचना देकर हुए आयोजन में ओबीसी और एससी- एसटी समुदाय के सैकड़ों लोगों ने भाग लिया, जिनमें यादव, कुशवाहा, लोहार, कुर्मी, पासवान, बनिया समुदाय( साव) के लोग प्रमुख रूप से भागीदार थे।
वैशाली क्षेत्र : वैशाली-हाजीपुर-मुजफ्फरपुर जिले में
महिषासुर के नायकत्व का जश्न मनाते हुए और उन्हें बहुजन उन्नायक बताते हुए इन आयोजनों का सिलसिला यूं तो प्रायः हालिया 5-6 वर्षों का सिलसिला है, लेकिन हाजीपुर से शिव राय बताते हैं कि ‘उन्होंने हाजीपुर के मीनापुर में 22 साल पहले भी महिषासुर की याद में आयोजन किया था। तब आयोजन के दौरान पुलिस ने सामान्य पूछताछ की और फिर रोका नहीं।’ राय कहते हैं, ‘महिषासुर दलित-बहुजन समाज और मूल निवासियों के बीच अलग –अलग रूप में सदियों से समादृत हैं।’ वे यह भी जोड़ते हैं कि इस इलाके में पिछले 5-6 सालों में आयोजन का सिलसिला और विस्तृत हुआ है।
इस वर्ष वैशाली क्षेत्र में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन की शुरुआत 11 अक्टूबर को वैशाली जिले के कडियों घोड़हा, महुआ क्षेत्र से हुई। यह मूलतः यादव बाहुल्य गाँव है और आयोजकों में भी यादव प्रमुख थे। यहाँ कार्यक्रम की अध्यक्षता शिव राय ने की। 15 अक्टूबर को नरेश सहनी के नेतृत्व में मुजफ्फरपुर शहर के प्रेस क्लब में महिषासुर शहादत दिवस के दौरान हिंदूवादी संगठन के कुछ लोगों ने हंगामा किया। आयोजक और राष्ट्रीय मूलनिवासी अतिपिछडा संघ के जिला संयोजक और राष्ट्रीय मूलनिवासी मछुआरा संघ के प्रदेश अध्यक्ष नरेश सहनी ने बताया कि आयोजन में पूर्व कारा मंत्री, बसावन भगत ने भी शिरकत किया। सहनी कहते हैं, भागीदार ज्यादातर लोग यादव और मछुआरा समुदाय से थे।’ 2014 से नरेश सहनी यह आयोजन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘दुर्गा हमारी पूर्वजों की दुश्मन है, हत्यारी है। इसकी पूजा बहुजनों को नहीं करनी चाहिए। वैसे तो हम सभी तरह की पूजा के खिलाफ हैं, इसीलिए हम महिषासुर को अपने नायक के रूप में याद करते हैं, देवता के रूप में नहीं। और शाहदत दिवस मनाते हैं।’ वैशाली क्षेत्र के आयोजकों में रामालय राय, नरेश राय,दिलीप राय, रघुनाथ प्रसाद यादव आदि थे।
16 अक्टूबर को हाजीपुर जिले के लालगंज ब्लाक के सठिऔता गाँव में और 23 अक्टूबर को भगवानपुर, वैशाली में महिषासुर को बहुजन नायक के रूप में याद किया गया। इन सभी कार्यक्रमों में प्रमुख रूप से शामिल रहे बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, शिव राय कहते हैं, ‘हम इन आयोजनों में पूजा करने से मना करते हैं। हम महिषासुर की फोटो पर माल्यार्पण करके उन्हें श्रद्धांजलि जरूर देते हैं, लेकिन उनकी पूजा की जगह विचार गोष्ठी आयोजित करके बहुजनों के खिलाफ हुए ब्राह्मणवादी षड्यंत्र की चर्चा करते हैं।’ बामसेफ के एक धड़े के राजनीतिक दल के रूप में तब्दील हो जाने के बाद शिवराय बामसेफ के पहले ओबीसी राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये हैं।
गोपभूमि मधेपुरा में महिषासुर की बढ़ती लोकप्रियता
बिहार के मधेपुरा जिला को यादव जाति का गढ़ कहा जाता है। यह क्षेत्र बी पी मंडल जैसे सामाजिक न्याय के क्षेत्र में बड़े असर पैदा करने वाले हस्तियों का क्षेत्र भी रहा है और वर्तमान राजनीति के दो बड़े दिग्गजों, लालू प्रसाद और शरद यादव का चुनाव क्षेत्र रहा है। यहाँ महिषासुर शाहदत दिवस एक अभियान के तौर पर मनाया जा रहा है। पिछले 5-6 सालों में यह आयोजन एक मुहीम का हिस्सा बन गया है। मधेपुरा के बराही, मनहारा, साहूगढ़ आदि गांवों में पेशे से प्राध्यापक हरेराम भगत की प्रमुख मौजूदगी में बहुजन नायक के रूप में महिषासुर को याद किया गया। प्रोफ़ेसर देवेन्द्र यादव के नेतृत्व में 8 अक्टूबर को धौलाढ, मधेपुरा में आयोजन हुआ तथा तुलसी टोला जीबछपुर, मधेपुरा और बेल्हाघाट, मधेपुरा में 15 अक्टूबर को विचारगोष्ठियां आयोजित कर महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया। ‘महिषासुर के सम्मान में असुर समाज मैदान में’ जैसे नारों और बैनरों के साथ जनजागृति रैलियाँ निकाली गई। इन आयोजनों का नेतृत्व भारतीय द्रविड़ सेना, बहुजन मूवमेंट, मधेपुरा आदि संगठनों ने किया। हरेराम भगत बताते हैं कि आयोजक संगठन महिषासुर को नागवंशी बहुजन राजा मानते हैं।
16 अक्टूबर को बेल्हाघाट , मधेपुरा में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजकों में श्रीमंत यादव और किशोर राम प्रमुख रहे हैं। वे शहादत दिवस सादगीपूर्वक मनाये जाने की बात करते हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य बहुजन जनता की चेतना संपन्न बनाना हो। 30 अक्टूबर को मधेपुरा के पड़रिया, दीनपट्टी गाँव में बहुजन मूवमेंट कार्यक्रम और महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन हुआ।
नवादा के लोग अनुभवी महिला की अध्यक्षता में मनाते हैं शहादत दिवस
बिहार के नवाद जिला में कुशवाहा परिवार से आने वाली कृषि विज्ञानी सौरभ सुमन के नेतृत्व में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन 2010 से शुरू हुआ। मार्च 2016 में नारी शक्ति सम्मान से राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित सुमन बताती हैं कि ‘हम हर साल यह आयोजन नवादा के टाउन हाल में करते रहे हैं, इस वर्ष प्रशासन ने अनुमति नहीं दी।’ अनुमति न देने के कारण के तौर पर साल की शुरुआत में ही तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी के द्वारा महिषासुर-दुर्गा मुद्दे को संसद में उठाने से पैदा हुए विवाद के एक असर को भी वे देखती हैं। अनुमति न मिलने के कारण रिपोर्ट लिखे जाने तक आयोजन टलता रहा है। सौरभ सुमन बताती हैं कि नवादा के लोग जल्द ही अपने नायक को याद करते हुए इस वर्ष भी एक विचार-गोष्ठी का आयोजन करेंगे, जिसमें ‘भारतीय संस्कृति में हमारे पूर्वज हाशिये पर’ विषय पर बातचीत का आयोजन होगा तथा हम उस अवसर पर पांच हाथों वाली महिला का पुतला दहन भी करेंगे- एक हाथ जातिवाद का, एक हाथ आतंकवाद का, एक हाथ मनुवाद का, एक हाथ लिंगवाद का और एक हाथ सम्प्रदायवाद का।
नवादा में बुद्ध विचार समिति के बैनर तले बहुजन नायक के रूप में याद किये जाने वाले महिषासुर की याद में उनकी मूर्ति भी स्थापित की जाती है, जिसका विसर्जन नहीं होता, तथा पूजा नहीं की जाती है। इस अवसर पर किसी अनुभवी महिला की अध्यक्षता में विचार गोष्ठी होती है। सुमन बताती हैं कि ‘मांग न होने के कारण और दबंगो के भय से कुम्हार समुदाय के लोग महिषासुर की मूर्ति बनाने को तैयार नहीं थे, हालांकि काफी समझाने के बाद वे मान गये।’
और बक्सर
बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच का यह जिला रामायणकालीन मिथकों से जुड़ता है, रावण के दो राज्य अधिकारी इस इलाके में रहते थे, ताड़का और सुबाहू। रावण के साथ बहुजन (मूलनिवासी) अपनी ऐतिहासिक विरासत को जोड़ते हैं, यानी मूलनिवासियों के पास पशुबलि पर आधारित इन यज्ञ विरोधी नायकों से खुद को जोड़ने के भी पर्याप्त कारण हैं। बक्सर में अपने नायकों से जुड़ाव का एक बड़ा प्रसंग है महिषासुर शहादत दिवस। बक्सर में यह आयोजन विनय शंकर यादव के नेतृत्व में होता रहा है। इस वर्ष 11 अक्टूबर को महिषासुर को बक्सर में अपने नायक के रूप में याद किया गया। विनय यादव बताते हैं कि यह आयोजन दिसंबर वृहद पैमाने पर आयोजित करने की योजना है, जिसमें दलित-बहुजन विरासत पर सेमिनार आयोजित किया जायेगा। विनय यादव बताते हैं कि आयोजन में अधिकांश भागीदार यादव, कोयरी,कुर्मी सहित ओबीसी जातियों के बुद्धिजीवी होते हैं और उनके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति के बुद्धिजीवी भी शामिल होते हैं। बिहार के इन स्थानों के अलावा देवघर, बेगुसराय, सीतामढी, सुपौल, पूर्णिया, कैमूर, पश्चिमी चंपारण में महिषासुर को दलित-बहुजन नायक के रूप में याद किया गया।
गुजरात में महिषासुर : बौद्ध पद्धति से होता है आयोजन
गुजरात के अहमदाबाद में अलग-अलग जगहों पर समता सैनिक दल के लोगों ने महिषासुर शहादत दिवस मनाया। अहमदाबाद में अशोक बौद्ध दीक्षा समारोह और महिषासुर शहादत का आयोजन संयुक्त रूप से हुआ। राजकोट के उपलेटा तहसील के रम्बारिका गाँव में भी यह आयोजन हुआ। आयोजकों में से एक और पेशे से अधिवक्ता बी. डी. मैकमहू ने बताया कि पिछले पांच सालों से अशोक विजय दशमी (दशहरे के दिन) यह आयोजन समता सैनिक दल के द्वारा किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि ‘ब्राह्मण धर्म के लोग मूलनिवासी नायकों, जैसे महिषासुर और रावण का अपमान करते आये हैं। हम लोगों में इस आयोजन के अवसर पर जागृति फैलाते हैं तथा उनके नायकों के खिलाफ हुए षड्यंत्रों को बताते हैं।’ आयोजकों के अनुसार इसमें शिरकत करने वाले लोगों में कोली, पटेल, पसमांदा मुस्लिम- ओबीसी, बनकर समुदाय (अनुसूचित जाति) के लोग शामिल हैं। बिहार सहित उत्तर भारत में मनाये जाने वाले शहादत दिवस से यहाँ के आयोजन का तरीका भी भिन्न है, महिषासुर की प्रतिमा रखकर भागीदार लोग बुद्ध वन्दना करते हैं और पंचशील तथा त्रिशरण का पाठ करते हैं। राजकोट के अलावा समता सैनिक दल से जुड़े अलग-अलग आयोजकों ने अमरेली, भावनगर, सूरत आदि नगरक्षेत्र और जिलों में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन दशहरे के दिन किया। समता सैनिक दल के अध्यक्ष बी. डी. चौहान ने बाताया कि महिषासुर आदि बहुजन-नायकों के पक्ष में वे ब्राह्मणवादियों से किसी भी बहस को तैयार हैं।
बालाघाट, मध्यप्रदेश : दस दिनों तक महिषासुर की याद में आयोजन
मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में जहां दर्जनो जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया, इनके आयोजकों में वे आयोजक भी शामिल हैं, जिन पर दुर्गा के तथाकथित अपमान के लिए हाल ही में मुक़दमे भी दर्ज हुए थे, वहीं बालाघाट, मध्यप्रदेश में के मरारी मोहल्ला में ओबीसी समुदाय के लोगों ने बहुजन नायक के रूप में महिषासुर को याद किया। वहां दो सालों से महिषासुर शहादत दिवस मनाया जा रहा है। बालाघाट के मरारी मोहल्ला में 10 दिनों तक यह आयोजन होता है, इस दौरान 10 दिनों तक अलग-अलग विषयों पर विचारगोष्ठी का आयोजन हुआ और ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ‘शूद्रा द राइजिंग’ जैसे धारावाहिक डाक्यूमेंट्री और फ़िल्में दिखाई गयीं। आयोजक राजेश मरार ने बताया कि पिछले साल आयोजन की अनुमति नहीं मिली थी, इसलिए इस बार बिना अनुमति के ही आयोजन किया गया। राजेश कहते हैं, ‘यह तर्क और आस्था के बीच लड़ाई है, तर्कवादियों को निर्भीक होकर काम करना होगा।’ राजेश आयोजन की पद्धति के विषय में बताते हैं कि ‘एक बैनर बनाया जाता है, जिसमें महिषासुर की तस्वीर होती है और उसमें हम महिषासुर उर्फ़ दिग्विजय शंकर का शहादत दिवस लिखते हैं, साथ ही उसमें असुरों का विजयादशमी लिखते हैं। इसी बैनर के तहत हम दस दिनों तक वैचारिक शिविर जैसा आयोजन करते हैं, कोई पूजा नहीं, कोई धूप-दीप-माला नहीं.’ आयोजन में मरार( कोयरी जाति), लोधी, सोनी समुदाय के ओबीसी कार्यकर्ता सक्रिय होते हैं और दलित-आदिवासी-ओबीसी जाति के लोग उसमें भागीदारी करते हैं। मध्यप्रदेश के ही बैतूल में सुनील झाडे के नेतृत्व में शहादत दिवस मनाया गया तो महोबा में भी महिषासुर की याद में दशहरे के दौरान महिषासुर शहादत दिवस मनाये जाने की खबर है।
बंगाल और उड़ीसा में असुरों का नायक
पूर्वी भारत के इन राज्यों में महिषासुर शाहदात दिवस की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। बंगाल में शहादत दिवस के आयोजकों में समुद्र बिस्वास, चरियन महतो आदि शुरुआती दौर में सक्रिय रहे हैं, वे बताते हैं कि आज धीरे –धीरे फैलकर बंगाल में 700 जगहों पर मनाया जाता है, (पढ़ें बंगाल का महिषासुर दिवस: मिथकीय जंजीरों को उतार फेंकने का दिन) आयोजन समितियों में मुख्यतः बंगाल के दलित-आदिवासी और ओबीसी जातियों के लोग हैं। समुद्र बिस्वास बताते हैं कि इन आयोजनों में बंगाली ओबीसी जातियों में मुख्य रूप से सतचासी, ग्वाला घोष, कापालिक, ताती, नाथ, कोइवर्तो जेले (मछुआरे), महतो आदि जातियों के लोग शामिल हैं। चरियन महतो बताते हैं कि ‘बंगाल के आयोजक महिषासुर को शहीद मानते हैं, इसलिए उनकी पूजा नहीं करते हैं। मूर्ती जरूर बनाते हैं, लेकिन मूर्ती को पानी में नहीं डालते हैं। मूर्तियाँ उन स्टेचू की तरह हैं, जो बड़े नेताओं के बनाये जाते हैं, हम गरीब लोग हैं पत्थर के स्टेचू नहीं बना सकते इसलिए मिट्टी की मूर्तियाँ बनाते हैं।’
बंगाल के पड़ोसी राज्य उड़ीसा में भी बहुजन नायक महिषासुर की याद में आयोजनों का सिलसिला शुरू हो गया है। यह आयोजन उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से 130 किलोमीटर दूर केंद्रपाड़ा जिला के गणेश्वरपुर गाँव में हुआ। मूलनिवासी छात्र और युवा संघ ने 10 अक्टूबर से 12 अक्टूबर तक महिषासुर शहादत दिवस मनाया। आयोजकों में से एक अभिराम मल्लिक ने फॉरवर्ड प्रेस को बताया कि महिषासुर को यहाँ के दलित-ओबीसी समाज के लोग अपना पूर्वज मानते हैं, उनकी याद में इस वर्ष आयोजन के लिए अनिल कुमार मल्लिक, करुणाकर मल्लिक, प्रदीप मल्लिक, अवंतिका मल्लिक आदि ने अगुआई की। इस अवसर पर एक विचारगोष्ठी के माध्यम से महिषासुर आदि मूलनिवासी नायकों को राक्षस बताये जाने का विरोध किया गया।
उत्तर प्रदेश में महिषासुर की धूम
उत्तरप्रदेश में प्राप्त सूचना और दावों के अनुसार सैकड़ों जगहों पर मूलनिवासी नायक के रूप में महिषासुर को याद किया गया। अक्टूबर महीने में हर दिन ये आयोजन हुए। कौशम्बी, रायबरेली, बस्ती, बाराबंकी, सिद्धार्थनगर, सीतापुर, बलिया, वाराणसी, गाजियाबाद, फैजाबाद, इलाहाबाद, अलीगढ़, हमीरपुर, लखीमपुर, प्रातापगढ़, मउ, बहराइच, गाजीपुर, देवरिया, बलरामपुर, सुलतानपुर, उन्नाव, बदायू, आंबेडकर नगर, इटावा, आगरा, औरैया आदि जिलों और इलाकों के कई गांवों में महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन हुआ। ‘यादवशक्ति पत्रिका’ के संपादक राजवीर यादव बताते हैं कि इन जिलों से उनके पास ओबीसी समुदाय के द्वारा शहादत दिवस मनाये जाने की खबरें आई हैं, जिनमें से कई जिलों में वे स्वयं या यादवशक्ति पत्रिका के प्रधान सम्पादक चंद्रभूषण सिंह यादव भी उपस्थित रहे हैं।
राजवीर यादव दुर्गा की जगह महिषासुर को दलितों, आदिवासियों और ओबीसी का नायक माने जाने को क्रमिक सांस्कृतिक क्रान्ति बताते हैं। वे बताते हैं कि महिषासुर की याद में पंजाब के कपूरथला में भी आयोजन हो रहा है तो नेपाल में भी रामकेश धवल और भागीरथ यादव के द्वारा शहादत दिवस मनाये जाने की खबर है। उन्होंने बताया कि इन आयोजनों में जिन लोगों ने यादव शक्ति पत्रिका को या तो आमंत्रित किया या इनके होने की सूचना दी उनमें प्रमुख हैं: कौशम्बी से अशोक वर्धन, रायबरेली से दिनेश यादव, बस्ती से रामतंवल अर्जक, खुशीराम यादव, फैजावाद से, मनोज गौतम वाराणसी से, राजकुमार गाजियाबाद से, धर्मेन्द्र सिंह अलीगढ़ से, सुरेश दोहरे आगरा से, राम सहाय हमीरपुर से, महेशबाबू लखीमपुर से, बुद्ध प्रकाश प्रतापगढ़ से, पी डी टंडन मउ से, तुलसी सिंह कुशवाहा बहराइच से, भंते धम्म चक्रधारी गाजीपुर से और मीनराज बलरामपुर से प्रमुख हैं।
कौशम्बी ले आयोजकों में से अशोक वर्धन यादव ने बताया कि बल्लाहा बरियांवा ग्रामसभा और युगवां गाँव सहित तीन गांवों में उनके नेतृत्व में महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया। एक महीने तक लगातार कहीं न कहीं ये आयोजन होते रहते हैं। अशोक वर्धन के अनुसार लोग चौथी बार उनके जिले में बहुजन नायक के रूप में महिषासुर को याद कर रहे हैं और दुर्गापूजा का बहिष्कार इस सवाल के साथ करते हैं कि आखिर हत्या का जश्न क्यों मनाया जाये? उनके अनुसार हजारो की संख्या में लोग इन आयोजनों में इकट्ठे होते हैं। गाँव-गाँव में जागृति अभियान चलाया जाता है।
रायबरेली के आयोजकों में से एक दिनेश यादव ने बताया कि ‘कृष्णानगर में एसपी यादव के आवास पर बहुजन नायक को याद किया गया। इस अवसर पर महिषासुर को याद करते हुए बातचीत हुई और वक्ताओं ने बताया कि कैसे देवताओं ने दुर्गा का इस्तेमाल कर महिषासुर की ह्त्या करवाई। आज भी समाज में यह हो रहा है, ब्राह्मणवादी इंद्र लोग आज भी दलित-ओबीसी के बढ़ते हुए नायकों के खात्मे के लिए ऐसे हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं।’
आदिवासियों से लेकर अन्य पिछडी जातियों तक महिषासुर की व्याप्ति
झारखंड के आदिवासी समाज से लेकर और दलित-ओबीसी समाज तक महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन फैला है। अधिवक्ता दामोदर गोप, गिरिडीह, झारखण्ड ने महिषासुर शहादत दिवस की शुरुआत 2012 में जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय, नई दिल्ली के कार्यक्रम की प्रेरणा से की थी। अनिल असुर, जमशेदपुर, झारखण्ड; विक्रम मांझी, गिरिडीह, झारखण्ड; ने हाल में ही महिषासुर स्मृति दिवस मनाना शुरू किया है, इस वर्ष 2016 में भी मनाया।
मदन मोहन ने, बालीगुमा, डिमना, पूर्वी सिंहभूम में महिषासुर शहादत दिवस इसी वर्ष 2016 से मनाना शुरू किया है, जबकि सरायकेला में महिषासुर शहादत दिवस लगभग 8-10 वर्षो से मनाया जाता रहा है। इन कार्यक्रमों में कुडमी, संथाल, मुंडा, भूमिज, नाइ समाज ने प्रमुख रूप से सहयोग किया। संगठन के रूप में “आदिवासी महासभा” ईचागड, सरायकेला और “आल इंडिया बैकवर्ड (SC ST OBC) एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाइज फेडरेशन” (बामसेफ) आदि का प्रमुख योगदान रहा।
गैर आदिवासी समाज में से कुडमी समाज शहादत दिवस मनाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता रहा है। कुडमी समाज के अलावा झारखण्ड से अन्य समाज के लोगों द्वारा भी महिषासुर शहादत दिवस मनाया जाता रहा है। बिजेश्वर गुप्ता और अधिवक्ता राजदेव यादव, धनबाद, झारखण्ड ने महिषासुर शहादत दिवस अलग-अलग वर्षो में अलग-अलग जगहों पर मनाया। 2013 में मईथन डैम, धनबाद, 2014 में मिरसा, धनबाद, 2015 में मुगमा धनवाद में मनाया। इन्होने बताया कि इन्होने इसकी शुरुआत 2013 में फॉरवर्ड प्रेस और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की प्रेरणा से की।
जमशेदपुर के दिलीप कुमार महतो, ने बताया कि इनका संघर्ष ब्राह्मणवाद के खिलाफ है। इनके क्षेत्र में ब्राह्मण उनके घर सिर्फ मरने के समय आता है। और झारखण्ड बंगाल और ओडिसा के बॉर्डर इलाके में आबतक लगभग 1000 से ज्यादा ब्राह्मण मुक्त श्राद्ध कर्म करा चुके है। इनका “पूर्वांचल आदिवासी कुडमी समाज” ने पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) और पश्चिम सिहभूम (झारखण्ड) में एलान किया है कि ब्राह्मणवाद और दुर्गा पूजा को यहाँ से हटाना है। इस क्षेत्र में केदो महतो (उर्फ़ पुर्नेंद महतो), जिन्होंने यूरोप की साइकिल से यात्रा की है का भी महत्वपूर्ण योगदान है। धनबाद के बिजेश्वर गुप्ता और राजदेव यादव, ने बताया कि इनका प्रमुख उद्देश्य नास्तिकता का प्रचार और अन्धविश्वास का विरोध करना है। साथ ही मूलनिवासियो के बौद्धिक अवरोध को खोलना है। इनका कहना है कि ‘अगर महिषासुर को यादव जाति का माना गया तो इससे हमारा आन्दोलन कमजोर होगा। महिषासुर किसी यादव या आदिवासी समाज के न होकर पूरे भारत के मूलनिवासियों के थें।’
गिरिडीह के अधिवक्ता दामोदर गोप ने बताया कि ‘इस कार्यक्रम के दौरान इन्हें प्रशासन की तरफ से थोडा विरोध का सामना करना पड़ा था थोडा-बहुत जनता भी खफा थी। उनके अनुसार कम्युनिस्ट पार्टियाँ इस मामले में पंगु साबित हुई।’ कार्यक्रम में उन्हें बढई, कोइरी, रविदास, आदिवासी, पासवान, यादव आदि जातियों का सहयोग मिला।
इन आयोजनों में एक ख़ास पैटर्न है पर्चा, पम्पलेट के जरिये महिषासुर के बारे में जनजागृति फैलाना तथा विचारगोष्ठियों का आयोजन। आयोजनों की खासियत यह भी है कि लोग महिषासुर को याद तो करते हैं लेकिन इस बात से भी सजग हैं कि इससे कोई स्थाई कर्मकांड न बन जाये। उत्तरप्रदेश के आयोजकों की सूची और वहाँ भागीदार होने वाले लोगों के बारे में प्राप्त जानकारी से यह प्रायः सिद्ध है कि महिषासुर की याद में होने वाले इन आयोजनों में मुख्य रूप से ओबीसी के लोग सक्रिय होते हैं। यादव शक्ति पत्रिका के प्रधान संपादक चंद्रेश्वर सिंह यादव कहते हैं कि ‘आयोजनों में शिरकत करने वाले लोगों में दलित और ओबीसी दोनो,शामिल हैं।
महिषासुर की याद में इन आयोजनों की सूचनाओं से यह तो जाहिर होता ही है कि इसका स्वरुप अखिल भारतीय होता जा रहा है। यद्यपि महिषासुर की उपस्थिति बहुजन लोक में किसी न किसी रूप में पहले से भी रही है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ये आयोजन पुनर्खोज की तरह हो रहे हैं, जिनका फैलाव दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पश्चिम से लेकर पूरब तक है। कार्नाटक के मैसूर में महिषासुर शहादत दिवस मानाये जाने की खबर पहले भी फॉरवर्ड प्रेस के प्रिंट अंकों में प्रकाशित हुई है तथा इसके एक आयोजक महेशगुरू का ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा हुए उत्पीडन व उनकी गिरफ्तारी की खबरें भी फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित हुई थीं। पढ़ें (कौन हैं महिषासुर समर्थक और राम विरोधी महेश चन्द्र गुरु)। प्रोफ़ेसर महेशगुरु बताते हैं, ‘आदि कर्नाटक, आदि द्रविड़, आदि जम्बवा- दलित जाति, नायका- आदिवासी, कुरुवा- ओबीसी आदि जातियों के लोग शहादत दिवस में शामिल होते हैं।’ महेशगुरू ने बताया कि मैसूर में होने वाले शहादत दिवस आयोजन में इस वर्ष गुलबर्गा सहित कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों से तथा महाराष्ट्र के दलित-ओबीसी-आदिवासी लोगों ने भाग लिया।’
यह रिपोर्ट एक रैंडम आधार पर आयोजकों से की गई बातचीत पर आधारित है तथा स्थानीय लोगों से सूचना पर आधारित है। झारखंड में आयोजकों से बातचीत अनिल कुमार ने की है। रिपोर्ट में उल्लेख ख़ास तौर पर उन आयोजनों और स्थानों का है, जहां महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन में कोई खासियत है या जिससे इस आयोजन का एक अखिल भारतीय स्वरुप सामने आ सके।
कुछ प्रमुख आयोजकों के नाम और संपर्क
- शिव राय, हाजीपुर: 9431430951
- नरेश कुमार सहनी, मुजफ्फरपुर:9471621188
- पेरियार सरयू मेहता, औरंगाबाद : 9572174140
- विजय गोप, औरंगाबाद: 9939973596
- नागेन्द्र यादव, गुरुआ गया: 8083096709
- रामालय राय, महुआ: 9546974913
- जगदीश प्रसाद राय, लालगंज, 9572039765
- संजय कुमार यादव, अरवल: 9546308985
- सौरभ सुमन, नवादा: 9771236599
- हरेराम भगत, मधेपुरा: 9431891827
- श्रीमंत यादव, मधेपुरा: 8678002394
- किशोर राम, मधेपुरा: 7549879285
- अशोक वर्धन, कोशम्बी: 7398180721
- दीनेश यादव, रायबरेली: 9451980104
- विनयशंकर यादव, बक्सर: 9431084394
- रामतंवल अर्जक, बस्ती: 9839182861
- राजेश मरार, बालाघाट: 9424616601
- राजवीर सिंह, लखनऊ: 9415972928
- रमेश सोलंकी, उपलेटा: 9662496890
- भानू भाई चौहान, सूरत: 8469558244
- जेंती गोहिल, अमरेली: 9737600450
- समुद्र विश्वास, कोलकाता: 8582833621
- अभिराम मलिक, केंद्रपाड़ा, उड़ीसा: 9437890720
- प्रोफ़ेसर महेशगुरू, मैसूर, कर्नाटक: 9448462590
- अतीत हेम्ब्रोम, पुरुलिया, पश्चिम बंगाल 8972113531
- आदेशुम लोहुक, झारखण्ड 8130936231, 9199292516
- अनिल असुर, गुमला, झारखण्ड 9102959957, 9905515890
- अश्विनी पंकज, झारखण्ड 9431109429, 9234301671 akpankaj@gmail.com
- चारियन महतो, पुरुलिया, पश्चिम बंगाल 9933000702 chariyanmahto1962@gmail.com
- दामोदर गोप, अधिवक्ता, झारखण्ड 7870146923, 9199045471
- दिलीप कुमार महतो, जमशेदपुर झारखण्ड 9693374844, 9430713591
- दीपक रंजित, झारखण्ड 9431150509
- राजीव यादव, अधिवक्ता, धनबाद, झारखण्ड 9835317333
महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/दिल्ली। मोबाइल : 9968527911. ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी Amazon,और Flipkart पर उपलब्ध हैं।