फारवर्ड प्रेस के प्रिंट संस्करण में प्रेम कुमार मणि के कॉलम ‘जन विकल्प’ के तहत प्रकाशित लेखों का संग्रह ‘एफपी बुक्स’ ने द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन से प्रकाशित करवाया है। ‘चिंतन के सरोकार’ शीर्षक से प्रकाशित यह पुस्तक वर्तमान समाज व राजनीति पर सटीक और समुचित टिप्पणी है। 128 पृष्ठों की यह विचार तरंग पाठकों पर महाकाव्यात्मक प्रभाव छोडने में सक्षम है। है। मणि जी ने इस पुस्तक को सुरेश पंडित और मोती रावण कंगाली को अर्पित किया है, जिन्होंने आदिवासी, दलित तथा अन्य पिछडों की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए विपुल लेखन किया था।
मणि जिस वैचारिक परिपक्वता का प्रदर्शन करते दिखते है वह भोगे हुए यथार्थ की बानगी है। उसे शब्दबद्ध करना कितने साहस और कौशल का काम है, यह उनके पुस्तक में शामिल लेख ‘किसकी पूजा कर रहे है बहुजन’ को पढते हुए महसूस किया जा सकता है। यह आलेख हिन्दू परम्पराओं के विशद पुनर्पाठ की आवश्यकता की ओर संकेत करता है। भारतीय धर्म इस बात की छूट देता है कि कोई व्यक्ति इसकी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कस सकता है। इस आधार पर चिंतन का लंबा इतिहास रहा उनका सवाल जायज है कि देवी दुर्गा के गले में पड़ी नरमुंड माला किसकी है, समुद्र मंथन के बाद शेषनाग के मुंह की तरफ रहने वालो को दिया गया, जो ज्यादा जोखिम की तरफ थे। यह पौराणिक तथ्य बहुसंख्यक वर्ग के लिए विचारणीय है।
भष्टाचार और आरक्षण पर बंटे समूह पर लेखक की तल्ख लेकिन सही टिप्पणी है कि सवर्णों का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार नहीं,क्योंकि प्राचीन ऋषि कहते है कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।
मणि द्वारा अन्ना आंदोलन को संदेह की नज़र से देखना स्वाभाविक है। इसका लाभ एक राजनीतिक दल ने उठाया, उसे सत्ता मिल गयी। आम जनता के बीच बहस मे यह मुद्दा नहीं रह गया, मानो यह पूरी तरह समाप्त हो गया। अन्ना हजारे के हालिया आरक्षण विरोधी बयान उसी संदेह को पुष्ट कर रहे है। किताब में ‘जो सबका होता है, वह किसी का नहीं होता’, ‘इस चुनाव में हम क्या करें’, ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ आदि लेख लेखक के भाव और व्यंग्य को स्पष्ट करने मे सहायक है। ‘प्रधानमंत्री मोदी को पत्र’ में भारतीय समाज को समझकर समझाने की कोशिस की गयी है। पता नहीं नरेंद्र मोदी जी ने वह पत्र पढ़ा या नहीं। यदि एक बार पढ़ते तो भारत के उन मुद्दो पर ज़रूर कुछ कहते। उनका कहना बहुजन के लिए उपयोगी होता।
पुस्तक के ‘साहित्य और संस्कृति’ खंड में लेखक ने अपना विचार बेबाक रूप से रखा है। लेखक ‘ओबीसी साहित्य की अवधारणा’ से सहमत नहीं हो पाता। यह सही है कि ओबीसी और एससी कानून के शब्द है। लेकिन उसे साहित्य से सीधे तौर पर जोड़कर न्याय नहीं किया जा सकेगा। जो बात दलित साहित्य, भोगे गए यथार्थ और अनुभूति जन्य यथार्थ को लेकर इधर हाल के वर्षो मे उठी है। कहीं वही ओबीसी संदर्भ में भी न चल जाय, इससे साहित्य का भला नहीं दिखता। आलोचना के मानदंड अपने होते है, ओबीसी वहाँ आधार बनाया जा सके तो ठीक।
मणि ने शमोएल अहमद के उपन्यास ‘महामारी’ का उल्ल्ोख करते हुए उसके पात्र ढंचू के मुह से निकले वाक्य ‘सिस्टम के साथ रहोगे तो बचे रहोगे, नहीं तो मारे जाओगे’ का उल्लेख किया है, जो समसामयिक है। आज हर वर्ग इस बात का अनुसरण करने लगा है। पुस्तक में राजेन्द्र यादव, जगदीश कश्यप, रवीद्र नाथ,रेणु आदि साहित्यकारों का स्मरण करते हुए उनके अवदानों का उल्लेख सुंदर बन पड़ा है। श्रीलाल शुक्ल के कथन ‘एक लेखक का काम मिथ्याचार को उजागर करना है’ का क्रियान्वयन मणि जी ने अपनी इस लघु पुस्तक में पूरे मनोयोग से किया है।
पुस्तक समीक्षा ;
पुस्तक : चिंतन के सरोकार (लेख-संग्रह)लेखक : प्रेम कुमार मणि
बुक सिरीज : एफपी बुक्स, दिल्ली
प्रकाशक : ‘द मार्जिनलाइज्ड वर्धाप्रथम संस्करण : 2016
पृष्ठ संख्या : 128मूल्य : पेपरबैक : 100 रूपये, हार्डबाउंड : 300 रूपये।
किताब मंगवाने के लिए संपर्क करें: ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन, वर्धा/दिल्ली। मोबाइल : 9968527911. ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी Amazon,और Flipkart पर उपलब्ध हैं।