मैला आंचल में नारीवादी दृष्टि या उसके स्त्री पात्रों पर चर्चा के पहले उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु के विषय में चर्चा करना उचित होगा। चर्चा के कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं, क्या वह एक स्पष्ट राजनीतिक पक्षधरता के साथ लिख रहे हैं? क्या उनकी सहानुभूति किसी पात्र समूह के साथ है? क्या उनके सपने किसी पात्र में जाग्रत हैं और क्या वह कहीं खड़े दिखते हैं?
स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता से लिखित साहित्य के प्राय: एक राजनीतिक दस्तावेज या नारा बन जाने का भी खतरा होता है, जो मैला आंचल में नहीं है। जबकि रेणु की राजनीतिक पक्षधरता उपन्यास में एक हद तक झलकती है। हां, कालीचरण जैसा पात्र उनके हाथ से निकल जरूर जाता है, जो विराट वामन बनकर उनसे अपनी मंजिल का पता पूछता है।
रेणु की अपनी वर्गीय चेतना गांव के सबसे बड़े शोषक तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के साथ अपनी सहानुभूति बनाती है। डा. प्रशांत और कमली के रूमानी प्रेम और प्रेम के आदर्श के साथ उपन्यास समाप्त होता है, जहां अगली पीढी का वारिस नीलोत्पल पैदा होता है। रेणु न कालीचरण की अगली पीढ़ी पैदा कर पाते हैं और ना ही लक्ष्मी (बालदेव) या फुलिया की कोई औलाद। मैला आंचल का नायक कालीचरण हो सकता था, बल्कि होना चाहिए था, परंतु डा. प्रशांत के माध्यम से रेणु का रूमानी आदर्श व्यक्त होता है। आखिर नीलोत्पल के जन्म के बाद तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद कुछ लोगों को पूरे सचेतन में जमीनी हक देते हैं-पांच-दस बीघे का उपहार। सवाल यह है कि क्या लेखक विश्वनाथ प्रसाद या उनकी अगली पीढ़ी की सदाशयता पर शोषण से मुक्ति का स्वप्न रच रहा है ? क्या अपने हकों के लिए जो लोग बाद के बरसों में खूनी स्त्रीवादी संघर्ष के रास्ते पर गए, उनके संकेत रेणु को प्राप्त नहीं हुए थे या वे संथालों के संघर्ष का समाधान बड़े किसानों की सदाशयता में ढूंढ़ रहे थे? इन बिन्दुओं पर बातचीत इसलिए आवश्यक है कि वर्णनात्मक उपन्यास होने के बावजूद ये बिन्दु ही मैला आंचल में मूल स्थितियां बनाते हैं, तथा स्त्रीवादी या गैर स्त्रीवादी स्वरों की पड़ताल के लिए इन बिन्दुओं को केंद्र में रखना जरूरी भी है।
वर्चस्वशाली जातियां जिस प्रकार उत्पादन के तमाम संसाधनों पर अपना नियंत्रण रखती हैं, उसी प्रकार पुनर्उत्पादन के साधनों पर भी उनका नियंत्रण रहता है, जो जाति-मूलक समाज में रक्त-शुद्ध नैरंतर्य के लिए आवश्यक भी होता है। मेरीगंज के समाज का जो चरित्र है, वैसे चरित्र वाले समाज में नीची जातियों के श्रम, जजमानी और स्त्रियों पर सवर्ण जातियां अपना अधिकार समझती हैं। सहदेव मिसिर, तंत्रिमा टोली की फुलिया पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। यद्यपि मेरीगंज की नीची जाति के नौजवान इस सत्य को समझते भी हैं, ‘अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना, चुमा लेवे में जात नहीं रे जाए।’
परंतु कामरेड वासुदेव या कालीचरण की क्रांति योजनाओं में या उनकी पार्टी की प्राथमिकताओं में यह कोई विषय नहीं है, इसलिए इसको लेकर किसी आक्रोश या क्रांति की स्थिति नहीं बनती। जातीय अस्मिता को लेकर मेरीगंज की नीची जातियां अपना शिकंजा अपनी महिलाओं पर कसती हैं। जातिगत विभेद, जो निन जातियों को उच्च जातियों के उत्पीडऩ का शिकार बनाते हैं, महिलाओं पर पुरुषों के शिकंजा कसने की भूमिका निभाते हैं। रामपिरिया जब नए महंत की दासिन बनने जा रही है, तो जाति पंचायत उस पर नियंत्रण करना चाहती है, यद्यपि ऐसा नहीं हो पाता है। तंत्रिमा टोली में भी पंचायत होती है कि तंत्रिमा टोली की कोई औरत बाबू टोला के किसी आंगन में काम करने नहीं जाएगी। तंत्रिमा टोली की तरह ही यह बंदिश गहलोत क्षत्रीय, कुर्मी क्षत्रीय, पोलिया टोले, कुशवाह टोली में भी लगाई जाती है। रेणु जिस यथार्थ का चित्रण 50 के दशक में कर रहे थे, वह यथार्थ धर्मवीर के औरत संबंधी नियमों में भी प्रकट होता है। शिवनारायण पंथ के विषय में समाजशास्त्री बर्नाड कोन का अध्ययन है कि इसमें शामिल चमारों और ठाकुरों के बीच एक समझौता हुआ कि ठाकुर चमार-स्त्रियों पर अपना यौन- आग्रह छोड़ेंगे। दरअसल, जातीय अस्मिता महिलाओं के माध्यम से ही प्रकट और निर्मित होती है।
मेरीगंज की दलित महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और यौन-मामलों में अधिक स्वतंत्र हैं। फुलिया अपना सहवास संबंध सहदेव मिसिर, खलासी जी या पैटसन के साथ रखती है, बिना किसी कुंठा या अपराध-बोध के। नए महंत की दासी बनने के लिए रामपिरिया पंचायत को अंगूठा दिखाती है। कांचा आयलैया के अनुसार ‘दलित महिलाएं सवर्ण महिलाओं से अधिक स्वतंत्र और गतिशील हैं। दलित महिलाएं पुनर्विवाह से लेकर यौन मामलों में स्वतंत्र हैं और ऐसा श्रम प्रक्रिया में उनकी बृह्त्तर भूमिका में अंतर्निहित गतिशीलता के कारण है।’ परंतु उपन्यास में कई बार दलित महिलाओं के यौन-व्यवहारों को लेकर एक पूर्वग्रह-सा भी दिखता है, जो लेखक के इस समाज से बाहरी होने का संकेतक है। वह सवर्ण टोलों में प्रचलित गप्पों का शिकार-सा दिखता है, हां, दलित महिलाओं की तुलना में सवर्ण महिलाओं की गुलामी सामंती समाज के अंधविश्वासी और कुरूप चरित्र के अनुरूप है। ब्राह्मण ज्योतिषि अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए मरने देता है कि वह पर-पुरुष के सामने अद्र्धनग्न हो अपना ऑपरेशन नहीं करवा सकती। राजपूत स्त्री उपन्यास में तभी दिखाई या सुनाई पड़ती है जब हरगौरी की मृत्यु पर वह छाती पीटती है। फुलिया के यौन जीवन के विपरीत कमली का गर्भधारण पूरे परिवार के लिए कलंक बन जाता है, इज्जत पर खतरे पैदा करता है।
तमाम उत्तर भारतीय गांव के सामंती मूल्यों और यौन आग्रहों से जर्जर समाज की तरह मेरीगजं का समाज स्त्री उत्पीडऩ की पराकाष्ठा पार कर जाता है। गांव के लोगों में मठ के प्रति आक्रोश तो है परतुं श्रद्धा में भी कोई कमी नहीं है। दासिन लक्ष्मी को यौन-यातना देने वाला महंत ग्रामवासियों की नजर में सद्गति को प्राप्त करता है। लेखक स्त्रियों के मानसिक अनकु लून को, जो धर्मसत्ता-पितसृत्ता का अनकुरण करती है, को लक्ष्मी के पश्चाताप के माध्यम से व्यक्त करता है। धार्मिक और जातीय नियमन के प्रति सहज समर्पण पितसृत्तात्मक समाज में स्त्रियों की आम नियति है। कमली गर्भधारण के बाद निरतंर ग्लानि की अवस्था में जीने को बाध्य है। पिता का विलाप उसकी इस बाध्यता के प्रेरक है।
मेरीगंज की तरह भारतीय गांव में प्राय: स्त्रियों का श्रम शोषण, पुनर्उत्पादन-श्रम का दोहन होता है। बालदेव और कालीचरण भी स्त्रियों के प्रति कुंठा और श्रद्धा की दोहरी स्थिति में जीता है। स्त्रियों के प्रति कूढ़मगज समाज की आस्था बामन की आस्था की तरह होती है, जो सोती स्त्री के अंग-प्रत्यंग को देखकर मायालोक में प्रवेश तो करता है परंतु गांधीनुमा किसी भय के कारण उसका दमन करता है, यद्यपि वामन मैला आंचल का निर्मल और आदर्श पात्र है।
इन भयंकर यर्थाथों के चित्रण के अतिरिक्त उपन्यासकार ने कोई नारीवादी स्थिति बनाई है या अपना कोई आदर्श रखा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह महिला उत्पीडऩ या मुद्दों के प्रति चेतना संपन्न किसी कालीचरण को भी पैदा नहीं कर पाता है, जबकि कालीचरण महिलाओं को लेकर अपेक्षाकृत सम्यक व्यवहार करता है। उपन्यास की सभी महिला पात्र या तो काम विसंगति की शिकार हैं या काम उत्पीडऩ की। इससे बाहर न इनकी कोई हस्ती है, न कोई सक्रियता। उनका होना पुरुष पात्रों के होने को सिद्ध करने के लिए होता है। लक्ष्मी की सक्रियता बालदेव के साथ घर बसाकर अच्छी गृहपत्नी बनने तक सीमित है। कमली, शरतचंद्र के उपन्यासों की नायिका की तरह, प्रेम करने के लिए ही पैदा हुई है, या उसकी सार्थकता कुमार नीलोत्पल को जन्म देने भर में है। ममता श्रीवास्तव त्याग और आदर्श की प्रतिमूर्ति है, जिसका जन्म या उपस्थिति डॉ प्रशांत को प्रेरणा देने भर के लिए है। चरखा सेंटर की मास्टरनी कालीचरण की प्रेरक शक्ति है और बालदेवजी को लक्ष्मी में भारत माता का दिग्दर्शन होता है-राष्ट्रवाद नातेदारियों में व्यक्त हो रहा है। जाति और राष्ट्र महिलाओं में रूपाकार होते हैं और महिलाएं जाति-गर्व या राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनती हैं। इसके अलावा, जाति अथवा राष्ट्र के प्रति भक्ति निवेदन स्त्री के माध्यम से सगुण रूप में साकार होता है। राष्ट्र ‘प्रेमिका’ अथवा ‘माता’ के रूप में सगुण रूप ग्रहण करता है। इस प्रकार यह उपन्यास किसी भी स्पष्ट स्त्रीवादी दृष्टि से रहित उपन्यास है।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2014 अंक में प्रकाशित )
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