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ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार

ओबीसी की अवधारणा एक गतिशील अवधारणा है, जहाँ जातियों का वर्ग में रूपांतरण हो गया है और हो रहा है। ओबीसी साहित्य इसी प्रगतिशील अर्थ में ओबीसी की अवधारणा को स्वीकार करता है। ‘ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार’ पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं रामकृष्ण यादव :

ओबीसी साहित्य एक नवीन अवधारणा है। हिन्दी साहित्य में इस अवधारणा को स्थापित करने का श्रेय द्विभाषी मासिक पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ को है।

वैसे मराठी साहित्य में ओबीसी साहित्य का जन्म पहले हो चुका था। पर हिन्दी साहित्य इससे अछूता था। ‘फारवर्ड प्रेस’ ने ‘ओबीसी साहित्य की अवधारणा’ शीर्षक आलेख जुलाई, 2011 के अंक मे प्रकाशित की। यह आलेख भाषाविद् राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने लिखा था। पत्रिका के आगामी अंकों में ‘ओबीसी साहित्य’ पर विपुल मात्रा में सामग्री प्रकाशित हुई। इस दौरान लेखक-आलोचकों के बीच हुई क्रिया-प्रतिक्रिया, वाद-विवाद एवं विमर्शों के बाद ओबीसी साहित्य की अवधारणा को काफी बल मिला। हाल के वर्षो में इस विषय पर कई पुस्तकें भी सामने आयी हैं, जिसमें प्रमोद रंजन एवं आयवन कोस्का के संपादन में प्रकाशित ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘ओबीसी साहित्य विमर्श’, ‘ओबीसी साहित्य : नया परिप्रेक्ष्य’, डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह एवं डा. शशि कला के संपादन में प्रकाशित ‘ओबीसी साहित्य के विविध आयाम’ आदि प्रमुख हैं। ओबीसी साहित्य की धारा को हिन्दी साहित्य में स्थापित करने में इन पुस्तकों की भूमिका निर्णायक रही है। इस धारा को मजबूत आधार प्रदान करने के उद्देश्य से युवा साहित्यकार डा. हरेराम सिंह ने भी एक पुस्तक लिखी है-‘ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार’। यह पुस्तक हाल ही में किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी से प्रकाशित हुई है।

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हरेराम सिंह

इस पुस्तक में डा. हरेराम सिंह ने ओबीसी साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से प्रकाश डाला है। ओबीसी साहित्य की उत्पत्ति, परिकल्पना, चिंतनधारा, दार्शनिक आधार, ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार, विचारक, साहित्यकार सहित कई अनछुए पहलू एवं तथ्य इस पुस्तक में समाहित हैं। ‘ओबीसी साहित्य : इतिहास की उपज’ शीर्षक आलेख में वे लिखते हैं कि ‘साहित्य केवल रात की चाँदनी नहीं होता, अपने काल की समस्त सच्चाइयों व उसके प्रभाव पर गहनता से विचार भी होता है, विश्लेषण भी होता है। साहित्य, इतिहास व कला के क्षेत्र में ओबीसी वर्ग का चिंतन की उपेक्षा ही साहित्य के क्षेत्र में ‘ओबीसी साहित्य को जन्म दिया।’ (पृ. 2)

साहित्यकार राजेन्द्र यादव भी हिन्दी साहित्य में इस वर्ग की उपेक्षा पर उद्वेलित थे। बकौल उनके, ‘कुछ लोगों की सीमित और स्वार्थी सोच को हम कब तक ‘अखिल विश्व’, ‘सकल मानवता‘ या ‘मानव-मात्र’ के नाम पर स्वीकारते रहेंगे और यह सवाल भी नहीं पूछेंगे कि वे कौन लोग हैं, जो इन परिधियो से बाहर रखे गए हैं- वे कौन-सी धाराएँ हैं, जिन्हें ‘मुख्यधारा’ ने उपेक्षित, वंचित और बहिष्कृत किए रखा है? जिस तरह साम्राज्यवादी जब ‘सभ्य मनुष्य’ के  ‘साहित्य-संस्कृति’, सोच का चतुर्दिक जयघोष करते थे, तो उनमें ‘उपनिवेशवासी असभ्य’ शामिल नहीं थे- न वहाँ कहीं भारतीय था न अफ्रीकी- वे सिर्फ सेवक, बैरे और डोलीबटदार थे। देखना यह होगा कि हमारी वर्चस्ववादी, सत्ताश्रित सोच के बाहर वे कौन-से उपनिवेश हैं, जहाँ के निवासियों को न साहित्य में प्रवेश मिल रहा है, न समाज में…..? उनके लिए बोलने वाले आज भी ‘असुर’ और ‘राक्षस’ हैं तो मुबारक हो आपको अपना देवत्व…….‘शुद्ध साहित्य’ की वकालत करने वालों को इन सवालों का सामना तो करना ही होगा कि क्यों बार-बार सत्ता, यानी राजा, ऋषियों और सामंतो द्वारा पीड़ित, प्रताड़ित, घृणित और अधिकार या सम्मान-वंचित व्यक्ति लोक साहित्य में नायक का पद ही नहीं पाता, अपने प्रति किए गए अन्याय का प्रतिशोध या भरपाई भी पाता है। शुद्ध साहित्य के नाम पर लोक और कुलीन साहित्य की दूरियों के फलितार्थ कब तक अनदेखे किये जाते रहेंगे ? (‘हंस’, जनवरी,1994)

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यही वजह है कि राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ में हाशिये के लोगों को प्रमुखता से जगह दी। दलित एवं स्त्री विमर्श के मुख्य पैरोकार बने। हालाँकि ओबीसी विमर्श उन्होंने नहीं शुरू की, पर उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकारा था कि ‘यदि साहित्य के पीछे के इन नक्शों की राजनीति (उपेक्षित-उत्पीड़ित से सम्बद्ध) को बार-बार रेखांकित करना साहित्य का बी. पी. सिंह होना है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’ (वही)

यह बात सौ फीसदी सही है कि साहित्य की कथित मुख्यधारा में ओबीसी को अपेक्षित स्थान नहीं मिला। यही वजह  है कि ओबीसी विमर्श को काफी बल मिला और एक नई साहित्यिक धारा उत्पन्न हुई।

डा. हरेराम सिंह ने ‘ओबीसी साहित्य : धारा एवं चिंतन’ शीर्षक लेख में लिखा है कि ‘ओबीसी साहित्य’ नामकरण भले ही नया लग रहा हो, पर यह वर्ग हमेशा से भारत में रहा, आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी। इनका साहित्य भी सदैव विद्यमान रहा है। मौखिक और लिखित इनके दो रूप हैं। उन्हें सहेजने की जरूरत है। कितने ओबीसी रचनाकार ऐसे हैं, जो अच्छे रचनाकार होने के बावजूद भी गुमनाम हैं, उनकी रचनाएँ गुमनाम हैं, कभी साजिश की वजह से, कभी शिक्षा व साधन के अभाव में। उन्होंने स्पष्ट किया है कि ओबीसी साहित्य ओबीसी द्वारा लिखित साहित्य हैं, यह मनुवादियों का विरोधी और छद्म भेषधारी सवर्ण वामपंथी या लिजलिजा ओबीसी रचनाकारों की पोल खोलने वाला साहित्य हैं। …….सत्ता से विच्यूत वर्तमान भारत में उन जाति-समूहों की बात ओबीसी साहित्य करता है जो हमेशा से उत्पादक व श्रमजीवी रहे हैं, पर सामाजिक न्याय उनके साथ अभी तक नहीं हुआ। ऐसे विशालतम जनसमूह को लेकर ओबीसी साहित्य चलेगा। (पृ.11)

‘ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार’ आलेख में युवा लेखक ने लिखा है कि भारतीय समाज सामंती युग में वर्ग और जातियों में बँटा था। आज यह वर्ग और जातियों में विभक्त नजर आएगा। वर्ण गौण पड़ गए हैं, वरना आज भी एक ही घर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एक साथ नजर आते। वर्ण व्यवस्था प्रारंभ में रूढ़ नहीं थी, पर उत्तर वैदिककाल आते-आते रूढ़ हो गयी। इतिहास में कई उदाहरण ऐसे भी मिलेंगे जब किसानी करने वाला राजा बनते ही क्षत्रिय हो गया, पर बाद में वह इस रूप में नहीं रहा गया। ओबीसी की कई जातियाँ प्राचीन समय से क्षत्रिय भी रही हैं और कई शूद्र भी, तो कई वैश्य तो कुछ विघटित रूप में ब्राह्मण भी। ओबीसी की अवधारणा, वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न तरह की अवधारणा है। जो लोग ओबीसी को मात्र वर्ण-व्यवस्था की नजर से देखते हैं, वे ओबीसी अवधारणा से अच्छी तरह परिचित नहीं हैं। ओबीसी की अवधारणा एक गतिशील अवधारणा है, जहाँ जातियों का वर्ग में रूपांतरण हो गया है और हो रहा है। ओबीसी साहित्य इसी प्रगतिशील अर्थ में ओबीसी की अवधारणा को स्वीकार करता है।

ओबीसी के दार्शनिक अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि ओबीसी के दार्शनिक आधार हैं-बुद्ध, फूले, जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, बीपी मंडल, पेरियार आदि। वर्गीय अवधारणा को जानने-समझने के लिए मार्क्सव लेनिन भी इसके साथ हैं। (पृ. 18)

वे आगे लिखते हैं कि कुछ तथा कथित प्रगतिवादी एवं दलित साहित्यकार जो यह कह रहे हैं कि ओबीसी का अपना कोई दार्शनिक आधार नहीं, वे भ्रम में हैं। दलित साहित्यकारों से कोई पूछे कि बुद्ध, महात्मा फुले, वीपी मंडल, जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा आदि किस वर्ग की सम्पति हैं? तब पता चले। साहित्यकारों में फणीश्वरनाथ रेणु, राजेन्द्र यादव, मधुकर सिंह, प्रेमकुमार मणि, डा. ललन प्रसाद सिंह, अनूपलाल मंडल आदि का चिंतन-दर्शन ओबीसी साहित्य का चिंतन दर्शन है। (पृ.19)

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डा. हरेराम सिंह की इस पुस्तक में 94 पृष्ठ हैं, जिसमें कुल 23 आलेख संकलित हैं। पुस्तक का लगभग आधा भाग ओबीसी साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित है और शेष आधे भाग में ओबीसी लेखकों-सिद्धांतकारों पर प्रकाश डाला गया है। ओबीसी से सम्बद्ध कुछ पत्रिकाओं की भी चर्चा हैं। कुल मिलाकर यह पुस्तक ओबीसी साहित्य के दार्शनिक आधार एवं चिंतनधारा को जानने-समझने में बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेखक ने विभिन्न तथ्यों को न सिर्फ समग्रता से प्रस्तुत किया है, बल्कि उनका नये दृष्टि से गंभीर विवेचन-विश्लेषण भी किया है।

पुस्तक : ओबीसी साहित्य का दार्शनिक आधार

लेखक : हरेराम सिंह

प्रकाशक : किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी, फोन: 9415996512

पृष्ठ संख्या : 94

मूल्य : 200 रूपये


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लेखक के बारे में

रामकृष्ण यादव

बिहार राज्य साक्षारता मिशन प्राधिकरण द्वारा 1998 में श्रेष्ठ कहानी लेखन के लिए तथा शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 2012 में बिहार सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा सम्मानित डा. रामकृष्ण यादव की रचनायें और आलोचनात्मक लेख हंस, हिन्दुस्तान, अक्षर पर्व सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. सम्प्रति आर.पी.एस. राजकीय इंटरस्तरीय विद्यालय कवई,रोहतास में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत

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