(सन् 2007 के अगस्त महीने की 14 तारीख को 64 वर्ष की आयु में, लुधियाना में जब उनकी मृत्यु हुई, तब उनकी जन्मभूमि पंजाब से बाहर उनकी कविताएं तो छोडि़ए, उन्हें कोई जानता तक नहीं था। पिछले दो सालों में, उनकी ‘दास्तान’ और कविताओं के हिन्दी व अंग्रेजी में प्रकाशन के बाद हालात कुछ बदले हैं।
रोज खाने-कमाने वाले, एक अत्यंत निर्धन रामदासिया चमार परिवार में जन्मे दिल, स्कूली शिक्षा हासिल करने वाले अपने परिवार के पहले व्यक्ति थे। उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में भी अध्ययन किया। परंतु जिस क्रूर भेदभाव का सामना उन्हें करना पड़ा, उसके चलते वे नक्सल आंदोलन में शामिल हो गए। वहां भी उच्च जातियों के माओवादी क्रांतिकारी उन्हें नीची नजरों से देखते थे। सन् 1970 के दशक में कई दुस्साहसिक कार्यवाहियों के चलते उन्हें गिरफ़्तारी कारावास और शारीरिक यंत्रणा भोगनी पड़ी। वे उत्तरप्रदेश के विभिन्न इलाकों में भटकते फिरे।
उत्तरप्रदेश में आम के एक बागान में चौकीदार का काम करने के दौरान उन्होंने कुछ मुसलमानों को एक साथ बैठकर खाना खाते देखा। यह उनके लिए एक क्रान्ति थी। उन्होंने इस्लाम अंगीकार कर लिया और एक ऐसे भाईचारे का अनुभव किया, जो उनके लिए एकदम स्वर्गिक था। वे पांचों वक्त की नमाज पढ़ते थे और उन्होंने अपनी गरीब, बूढ़ी मां से जिद कर अपनी पत्नी (जो हमेशा केवल उनकी कल्पनाओं में ही रही) के लिए बुर्का भी खरीदवाया। परंतु अंतत: वे शराब की शरण में चले गए।
इस बीच, पंजाब के उनके नक्सली साथी, अपनी उच्च जाति/वर्ग की जीवनशैली फिर से अपना चुके थे जबकि दिल को अपना पेट भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा था। अपने एक लेखक मित्र के साथ मिलकर उन्होंने अपने गांव समराला की एक बंद पड़ी मस्जिद को फिर से खोला और पांच साल तक वहां अजान देने का काम करते रहे। अपने जीवन के संध्याकाल में उन्होंने अपने गृहनगर के बस अड्डे के नजदीक एक चाय की दुकान चलाई परंतु उससे वे अपनी रोज की रोटी और रोज की शराब का इंतजाम भी नहीं कर पाते थे। अपनी घोर गरीबी के बावजूद दिल ने जरूरतमंद कवियों के लिए दी जाने वाली सरकारी पेंशन तक लेने से इनकार कर दिया। उनका कहना था
कि वे एक कामरेड हैं।
उनके कुछ मित्रों ने चंदा इकट्ठा कर अपने क्षेत्र में कच्चे मकान को सुधरवाया। उनके मित्रों के अनुरोध पर उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी।
‘दास्तान’ सन् 1998 में प्रकाशित हुई और वह आम बोलचाल के शब्दों में लिखी गई दिल को छू लेने वाली पुस्तक है। जीवनभर जब वे उत्तरप्रदेश में मजदूरी करते थे तब भी-वे कविताएं लिखते रहे और धर्मपरिवर्तन के बाद उनकी कविताओं में उर्दू और अरबी के कुछ शब्द भी शामिल होने लगे। दिल की कविताओं के कुछ संग्रह हैं ‘सतलज दी हवा’ (1971), ‘बहुत सारे सूरज’ (1982), ‘साथर’ (1997) और ‘बिल्ला आज फि र आया’ (2007)।
उनकी मौत के बाद भी जातिगत भेदभाव ने दिल का पीछा नहीं छोड़ा। यद्यपि उनकी इच्छा थी कि मुस्लिम होने के कारण उन्हें दफनाया जाए तथापि गांव में कोई मुस्लिम कब्रिस्तान नहीं था। ऐसे में उनकी देह को पड़ोसी गांव ले जाया जाना पड़ता जहां कि शायद उसे दफनाने के लिए स्वीकार न किया जाता। इसलिए दिल के भाईयों ने गांव में चमारों के लिए निर्धारित स्थान पर उनकी लाश का अग्निसंस्कार कर दिया।
वे शरीर से पूरी तरह से टूट चुके थे-भूख, शारीरिक यंत्रणा, बीड़ी, देसी शराब और ड्रग्स ने उनके शरीर को छलनी कर दिया था। परंतु उनका कवि ह्दय कभी पराजित नहीं हुआ। वे एक शाश्वत प्रेमी और एक शाश्वत क्रांतिकारी थे। ट्रकों के पीछे लिखीं दिल की कविताओं की पंक्तियां आज भी हर उस जगह पहुंचती हैं जहां पंजाबी ट्रक ड्राईवर जाते हैं। वे सच्चे जनकवि थे। दिल को लाल सलाम और खुदा हाफिज।)
थकान
कुछ भी करने
और न करने को
दिल नहीं करता
बंद कीड़े की तरह सोच चलती है
यदि कोई कहे
‘तुम्हारी सजनी गाड़ी के पहिए के नीचे कुचली गई’
तो भी शायद ..
यदि पता चले :
भाई पागल हो गया
तो जरा तड़पूंगा यदि कोई कहे : ‘तेरी मां को पुलिस ने नंगी कर दी’
तो यह बात आम ढंग से गुजर जाएगी
गाड़ी के पहिए की तरह
बिना तड़पे हुए
थकान सिर्फ अंगों में है
दीये की रोशनी में
भैंस की आंख चमकती है
जिसका गोबर उठाते हुए रोज
शेक्सपीयर महसूस करता खुद को
जिसकी अनगिनत शामें और सवेरें
लीद सूंधती थीं
मेरी बाहों का बल
न कम होता है न बढ़ता है
दिल उसी कहर की
लहर बना धड़कता है
यह पहाड़ उठा दूं
कस्सी के एक वार जैसे
मिटा दूं यह भवन सड़कों से
कुत्ते पुकारते हैं
‘मेरा घर, मेरा घर’
जागीरदार
‘मेरा गांव, मेरी सल्तनत’
लीडर
‘मेरा देश, मेरा देश’
लोग सिर्फ कहते हैं
‘मेरी किस्मत, मेरी किस्मत’
मैं क्या कहूं ?
कुछ भी करने
और न करने को
दिल नहीं करता
मेरा भाई, मित्र, प्रेमिका, मां, देश
कुछ भी नहीं मेरा
दिल उसी कहर की लहर बना धड़कता है..।
ऐ घोड़े चराने वाली कुडिय़े
कोई गीत सुना
तेरा गीत मुझे अच्छा लग जाएगा
जो उन दिनों में गाया हो घोड़ों को चराते
मन भर आया हो।
जब हाथ पर कुदाल तेरे
जमींदार ने मारी थी
कैसे तड़पी थी मां
कैसे वह सब सहा था ?
कब जागेंगे वीर (भाई)
कब होंगे जवान
कब चराएंगे घोड़े
कब खींचेंगे कमान।
हमारे लिए
हमारे लिए
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए
बहारें नहीं आतीं हमारे लिए
इंकलाब नहीं होते।
दूरी
ये रास्ते
धरती और मंगल के नहीं
जिन्हें राकेट नाप सकते हैं
ना ये रास्तें
दिल्ली और मास्को या वाशिंगटन के हैं
जिनको आप रोज नापते हैं
यह दूरी
जो हमारे और तुम्हारे बीच है तीरों के नापने की है।
शब्द
शब्द तो कहे जा चुके हैं
हमसे भी बहुत पहले
और हमसे भी बहुत पीछे के
हमारी हर जुबान
हो सके तो काट लेना
पर शब्द तो कहे जा चुके हैं।
(पंजाबी से अनुवाद : सत्यपाल सहगल)
(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिकी, मई 2014 अंक में प्रकाशित)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in