राजनीतिक विश्लेषक प्रभात पटनायक का मत है कि नवउदारवाद, अपनी दूरगामी रणनीति के तहत, पहले वर्गीय राजनीति को अप्रासंगिक बनाता है और फिर ऐसे हालात पैदा कर देता है जो अस्मिता की राजनीति को फलने-फूलने के लिए उर्वर जमीन तैयार कर देते हैं। विभिन्न अस्मिताओं का उभरकर सामने आना, नवउदारवाद को सुरक्षा प्रदान करता है। सामाजिक विखंडन का यह अच्छी तरह आजमाया हुआ फार्मूला, सार्वजनिक हित की बजाय अपने व्यतिगत स्वार्थ साधने के लिए लोगों को मानसिक रूप से तैयार कर देता है। वे व्यवस्था बदलने का इरादा छोड़कर, उसमें अपने अनुरूप बदलाव करने की बात करने लगते हैं। जाहिर है कि इससे विभिन्न पहचान समूह अपना थोड़ा-बहुत भला बेशक कर लेते हों लेकिन व्यवस्था को यथावत् बनाए रखने में मददगार सिद्ध होते हैं। इसलिए, विभिन्न अस्मिता समूह अलग-अलग लड़ाईयां लडऩे की बजाय एकजुट हो साझा मोर्चा बनाएं और अपनी इच्छानुसार दुनिया का रंग-रूप बदलने के लिए संघर्ष करें।
चूंकि आज के लेखक और बुद्धिजीवी अपनी जुझारू भूमिका को भुला बैठे हैं और परिवर्तनकामी आन्दोलनों के अगुआ नहीं रह गए हैं, इसलिए यह जरूरी हो गया है कि बहुजन साहित्य की अवधारणा को प्रभावी तार्किकता के साथ लोगों के सामने रखा जाए। इस पहल से जहां विभिन्न अस्मिताओं को एकजुट होने की प्रेरणा मिलेगी, वहीं इन समुदायों के साहित्य को पहचानने, संजोने और उसका विकास करने की प्रक्रिया को गति भी मिलेगी।
वस्तुस्थिति यह है कि अभी तो बहुजन साहित्य की अवधारणा ही स्पष्ट नहीं है। ‘फारवर्ड प्रेस’ के प्रधान संपादक आयवन कोस्का, आलोचक राजेन्द्र प्रसाद सिंह, प्रमोद रंजन और प्रेम कुमार मणि के बीच चले लम्बे विचारविमर्श के परिणामस्वरूप, इसकी जो स्थूल-सी रूपरेखा 2011 में सामने आई थी, उस पर अभी और गहरे व व्यापक चिंतन की जरूरत है। दलित साहित्य को सार्वजनिक मान्यता प्राप्त करने में कई दशक लग गए थे जबकिउसे फुले, पेरियार व आंबेडकर के द्वारा चलाए गए दलित मुक्ति आंदोलनों से प्राप्त अनुभवों व विचारों और मराठी साहित्य में हुए प्रयोगों से पर्याप्त फीडबैक मिल चुका था। इस आंदोलन ने तेजी इसलिए पकड़ी क्योंकि इसकी अगुवाई वही लोग कर रहे थे जो जातीय भेदभाव जन्य उत्पीडऩ, शोषण व वंचना के शिकार थे। वे लेखक भी थे और सक्रिय कार्यकर्ता भी। उनके दारूण अनुभवों ने उन्हें सिखाया था कि वे अपनी बदहाली की वजहों को जानने के लिए खूब अध्ययन करें और उस मनोवृत्ति को पहचानने की कोशिश करें, जो उनको इस हालत में पहुंचाने के लिए जिमेदार थी।
कंवल भारती की इस बात में सच्चाई दिखाई देती है कि दलितों ने भेदभाव के चलते जो मानसिक पीड़ाएं व शारीरिक कष्ट सहे हैं उन्हीं की बदौलत उनका आंदोलन प्रभावी व व्यापक हुआ है और उनके साहित्य को मान्यता मिली है। यही महिला मुक्ति आंदोलन को लेकर भी कहा जा सकता है लेकिन बहुजन का मामला इनसे मिलता-जुलता कतई नहीं है, यद्यपि यह सच है कि ऊंची जातियों ने उन्हें अपने बराबर कभी नहीं माना और ना ही उनके अथक श्रम व निरंतर सेवा के लिए उनके प्रति कभी कृतज्ञता व्यक्त की।
फिलहाल, बहुजन साहित्य की सबसे बड़ी समस्या ‘पहचान’ की है। चूंकि इसमें दलित, आदिवासी व महिला के अतिरिक्त अन्य पिछड़ी जातियों के साहित्य को भी शामिल किए जाने की अपेक्षा है इसलिए ओबीसी साहित्य की पृथक पहचान क्या हो और यह तय हो जाने के बाद सबकी समेकित पहचान क्या हो, इन मुद्दों पर गंभीर विचार-विमर्श जरूरी है। जाहिर है कि हर ओबीसी लेखक की रचनाएं इसमें नहीं आ सकतीं क्योंकि उनमें एकमात्र उनके ही जीवन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्य मात्रा में तो विपुल है परंतु स्पष्टत: चिन्हित नहीं है। इसी के साथ, उस लेखन को भी इसमें रखना उचित नहीं जान पड़ता जो सवर्णों ने उनके बारे में लिखा है, क्योंकि यह उन्होंने इस अवधारणा को ध्यान में रखते हुए नहीं लिखा है।
ओबीसी साहित्य को अन्य प्रकार के साहित्यों से अलग करने के लिए जब हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि पिछड़ी जातियों द्वारा रचित रचनाओं का उसमें उल्लेख तो है लेकिन विशुद्ध मनुवादी नजरिए से। रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ सबसे पहले व्यवस्थित रूप से लिखा गया इतिहास है। इसमें शुक्ल जगह-जगह अपनी रुचि के अनुसार लेखकों व उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं। उनकी अधिकतर प्रस्थापनाएं बाद में लिखे गए इतिहासों की राह सुगम बनाती हैं। सिद्धों, नाथों के बारे में शुक्ल जो मत व्यक्त करते हैं वही आगे के इतिहासकारों के लिए अंतिम, प्रामाणिक सत्य बन गया। भक्तियुग में ज्ञानमार्गी निर्गुण कवियों में कबीर का स्थान महत्वपूर्ण माना गया है। कबीर का जिस रूप में आकलन अपनी पुस्तक में किया है, आगे चलकर हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘कबीर’ और पुरुषोत्तम अग्रवाल ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में उसी मॉडल को संशोधित, संवर्धित करते दिखाई देते हैं। ये दोनों कबीर को रामानंद का शिष्य साबित करने के लिए अनेक तर्क देते हैं। दूसरी ओर, डॉ. ओम राज द्वारा हाल ही में किए गए अनुसंधान से यह सामने आया है कि कबीर सूफी परम्परा के संत कवि थे और रामानंद से उनकी भेंट का प्रसंग इसलिए गढ़ा गया है ताकि उनकी हिन्दू छवि बरकरार रहे। शुक्ल जिस श्रद्धा भाव से तुलसीदास, सूरदास आदि सनातन भक्ति मार्ग से जुड़े कवियों का वर्णन करते हैं वह भावभीनी दृष्टि रैदास, नानक, दादू, पीपा आदि गैर द्विज कवियों का आकलन करते समय बदल जाती है। वास्तव में इस पूर्वाग्रही दृष्टि को तभी पहचाना जा सकता है जब आलोचक किसी रचनाकार को अन्य समानधर्मा लेखकों से बेहतर साबित करने के लिए दूसरों को छोटा या उपेक्षणीय बनाने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, शुक्ल, तुलसीदास की तुलना में कबीर को कम प्रतिभाशाली और शुष्क कवि बतलाते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुजन साहित्य की अवधारणा को सामने रखकर हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य जब भी हाथ में लिया जाएगा तब बहुत सी ऐसी विसंगतियां सामने आएंगी, जिन्हें हम रामचंद्र शुक्ल जैसे द्विज लेखकों द्वारा हमारी सोच को अनुकूलित कर दिए जाने के कारण देख नहीं पाते।
(फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई, 2014 अंक में प्रकाशित )