‘‘कुल मिलाकर, मैं जाति का सिद्धांत प्रतिपादित कर रहा हूं। अगर इसे गलत सिद्ध किया जा सके तो मैं इसे त्यागने के लिए भी तैयार हूं।‘‘
– बीआर आंबेडकर (1917)
पश्चिमी मानवशास्त्री और समाजशास्त्री, भारत को जाति पर आधारित एक ऐसे समाज के रूप में देखते हैं, जिसमें सामाजिक पदक्रम को जीववैज्ञानिक और सांस्कृतिक स्वरूप दे दिया गया है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘होमो हायराकिकस‘ (1966) में डयूमांट (1911-1998) ने जाति व्यवस्था की संरचनात्मक व्याख्या करते हुए सांस्कृतिक पदक्रम की इसी अवधारणा का समर्थन किया। दूसरी ओर, डयूमांट के विरोधी मेकेम मेरियट जैसे विद्वान, जो समाज के सदस्यों की परस्पर अंतःक्रिया को अधिक महत्व देते हैं, का जोर जातिगत पदक्रम में स्थानीय व क्षेत्रीय विभिन्नताओं पर था। एमएन श्रीनिवास ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार जाति व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता के लिए एक प्रक्रिया जिम्मेदार है जिसे वे ‘संस्कृतिकरण‘ कहते हैं। मार्क्सवादी अध्येता, जाति को एक तरह का वर्ग मानते हैं। परंतु इस विमर्श में भारत में जाति व्यवस्था पर मौलिक चिंतन करने वालों में से एक, डा. बीआर आंबेडकर (1891-1956) के योगदान की कोई चर्चा ही नहीं है। डा आंबेडकर न केवल प्रखर विद्वान थे वरन् स्वाधीन भारत के महानतम विधि निर्माताओं व नीति निर्धारकों में से एक थे।
आंबेडकर के जाति संबंधी विचारों को भारतीय विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र व मानवशास्त्र के पाठ्यक्रमों में नजरअंदाज किया गया। आंबेडकर के लिए भारतीय मानवशास्त्र में आज भी कोई स्थान नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालयों मे समाजशास्त्र, इतिहास, मानवशास्त्र व राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी लुई डयूमांट, एचएच रिज़ले, जेएच हटन, एलएसएस ओ मेले, जीएस घुरिए, डीडी कौशंबी, निर्मल कुमार बोस, रामकृष्ण मुकर्जी, एमएन श्रीनिवास, सुरजीत सिन्हा, अन्द्रे, बेतेय, रजनी कोठारी, मेकेम मेरियएट, रोनाल्ड इंडेन, बर्नाड कोहेन, निकोलस डर्कस व रोमिला थापर के बारे में तो बहुत कुछ पढ़ते हैं परंतु आंबेडकर के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं बताया जाता। आंबेडकर को केवल दलितों का नेता और संविधान निर्माताओं में से एक माना जाता रहा है। भारत पर काम करने वाले समाज वैज्ञानिकों ने अपने विमर्श में कभी भी आंबेडकर को अध्येता का दर्जा नहीं दिया। किसी भी भारतीय या पश्चिमी मानवशास्त्री या अन्य समाजविज्ञानी ने जाति पर आंबेडकर के विचारों को कोई महत्व नहीं दिया। भारत में जाति पर ब्राम्हणवादी और यूरोपीय वैज्ञानिक विमर्श में आंबेडकर ‘अछूत‘ बने रहे।
सन् 1916 में आंबेडकर ने भारत की जाति प्रथा को एक अनूठे परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास किया। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र पर एलेक्जेंडर गोल्डनवाईजर (1880-1940) द्वारा आयोजित एक शोध संगोष्ठी में अपना शोधपत्र पढ़ा। आंबेडकर तब केवल 25 साल के थे और मानवशास्त्र के शोधार्थी थे। उनके शोध प्रबंध का विषय था, ‘भारत में जातियां: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास।‘‘ 18 पृष्ठों के इस शोध प्रबंध में भारत में जाति व्यवस्था की प्रकृति का निर्लिप्त और शुद्ध अकादमिक विश्लेषण था। उसमें आंबेडकर ने न तो अपने व्यक्तिगत अनुभवों को शामिल किया था और ना ही कोई अपनी राय व्यक्त की थी। वह जाति पर समकालीन उपलब्ध मानवशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय साहित्य का तार्किक और समालोचनात्मक अध्ययन था। शोध प्रबंध के प्रथम खंड में आंबेडकर ने चार प्रसिद्ध अध्येताओं के विचारों की चर्चा की। इनमें शामिल थे एमील सेनार्ट (1847-1928), जान नेस्फील्ड (1836-1919), एसव्ही केतकर (1884-1937), व एचएच रिज़ले (1851-1911)। इस खंड में उन्होंने इन विद्वानों की जाति व्यवस्था के मूल लक्षणों की समझ में कमियों का बिना किसी पूर्वाग्रह के वर्णन किया। परंतु इन विद्वानों की आलोचना करते समय भी उन्होंने इनके योगदान के सकारात्मक पक्षों को नजरअंदाज नहीं कियाः
इन परिभाषाओं की समीक्षा, हमारे उद्देश्यों के लिए महत्वपूर्ण है। यह ध्यान देने की बात है कि इन तीनों लेखकों की परिभाषाएं या तो अति संकीर्ण हैं या अति विस्तृत। इनमें से एक भी अपने आप में संपूर्ण या सही नहीं है और इन सब में से जाति व्यवस्था के तंत्र का मूल तत्व गायब है। उनकी त्रुटि यह है कि वे जाति को एक एकाकी इकाई के रूप में परिभाषित कर रहे हैं ना कि संपूर्ण जाति व्यवस्था के अंदर के एक ऐसे समूह के रूप में, जिसके इस व्यवस्था से स्पष्ट परस्पर संबंध हैं। इसके बाद भी, समग्र रूप से ये तीनों परिभाषाएं एक दूसरे की पूरक हैं क्योंकि इनमें से एक में जिस तथ्य को नजरअंदाज किया गया है, उस पर दूसरी में जोर दिया गया है। {आंबेडकर (1917): 1979: 7}।
केवल किसी विशेष जाति की ओर न देखते हुए, समग्र जाति व्यवस्था, जाति जिसका एक भाग है, को समझना निश्चित तौर पर सामाजिक और सांस्कृतिक मानवशास्त्र में एक कदम आगे बढ़ना था। आंबेडकर इस विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि जाति व्यवस्था ‘श्रम विभाजन‘ है, जो विभिन्न पेशेवर समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा को न्यूनतम बनाता है। उनके लिए जाति व्यवस्था श्रम विभाजन न होकर, श्रमिक वर्गों का विभाजन है। आंबेडकर का कहना था कि अपने परिवार से बाहर, परंतु अपनी जाति के अंदर, विवाह करने की प्रथा, मानव समाज का मूल और सार्वभौमिक लक्षण है। भारत में आदिवासियों में बर्हिविवाह की प्रथा, मानव सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए भी अस्तित्व में बनी रही है। जबकि आधुनिक दुनिया में वह स्वीकार्य नहीं है। उन्होने लिखाः
समय के साथ, बर्हिविवाह ने अपनी प्रभावोत्पादकता खो दी और केवल निकटतम रक्त संबधियों के अतिरिक्त, विवाह के मामले में कोई सामाजिक रोक नहीं बची। परंतु जहां तक भारत के लोगों का सवाल है, वहां अब भी बर्हिविवाह पर जोर है। भारत अब भी कबीला व्यवस्था में विश्वास करता है, जबकि कबीले अब रहे ही नहीं। यह इससे स्पष्ट है कि विवाह संबंधी नियम, बर्हिविवाह के सिद्धांत के आसपास केन्द्रित हैं। न केवल सपिंडों के बीच विवाह प्रतिबंधित है बल्कि सगोत्र विवाह भी पाप माना जाता है। {उपरोक्त (1917): 1979: 9}।
यही वह तार्किक नींव है, जिसके आधार पर आंबेडकर जाति व्यवस्था की व्याख्या करते हुए अपने तर्क रखते हैं। उनका कहना है कि चूंकि भारत में बर्हिविवाह नियम था, अपवाद नहीं, इसलिए भारत में अंतर्विवाह एक विदेशी विचार रहा होगा। फिर, भारत में जाति व्यवस्था – अंतर्विवाह जिसकी एक आवश्यक शर्त है – कैसे अस्तित्व में आई? आंबेडकर की इस विसंगति की व्याख्या, उनके शोध प्रबंध का सबसे दिलचस्प हिस्सा हैः
आपके लिए यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत के लोगों के लिए अंतर्विवाह एक परायी अवधारणा है। भारत के विभिन्न गोत्र बहिर्विवाही रहे हैं और हैं और यही बात उन समूहों पर भी लागू होती है, जो कुलों पर आधारित हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत के लोगों के लिए बर्हिविवाह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसका उल्लंघन करने की हिम्मत किसी की नहीं है। यहां तक कि जातियों के भीतर अंतर्विवाह होने के बाद भी, बर्हिविवाह की प्रथा का कड़ाई से पालन किया जाता है और बर्हिविवाह संबंधी मानकों का उल्लंघन करने की सजा, अंतर्विवाह संबंधी मानकों का उल्लंघन करने की सजा से कहीं ज्यादा कड़ी है…। अर्थात भारत में जातियों का निर्माण, बर्हिविवाह पर अंतर्विवाह के अध्यारोपण से हुआ। {उपरोक्त (1917): 1979: 9}।
आगे आंबेडकर यह बताते हैं कि किस तरह प्राचीन भारत में सामाजिक समूह, उन विशेषाधिकारों, जो उन्हें प्राचीन वर्ग व्यवस्था से मिलते थे, को बचाए रखने के लिए वर्गों से बंद अंतर्विवाही समूहों में परिवर्तित हो गए। आंबेडकर के अनुसार, चूंकि ब्राम्हण और क्षत्रिय सर्वाधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग थे इसलिए सबसे पहले इन्हीं ने अपने विशेषाधिकारों की सुरक्षा के लिए अंतर्विवाही बनना शुरू किया। बाद में अन्य समूहों ने भी उच्च वर्गों की नकल की और यह व्यवस्था पूरे देश में फैल गई। इस तरह, आंबेडकर के अनुसार, भारत में जातियां वर्गों से उत्पन्न हुई और जातियां दरअसल बंद वर्ग हैं, अंतर्विवाह जिनका प्रमुख लक्षण हैः
सबसे पहले हमें यह स्मरण रखना होगा कि अन्य समाजों की तरह, हिन्दू समाज भी वर्गों में बंटा था जिनमें से सबसे पुराने थेः (1) ब्राम्हण या पुरोहित वर्ग (2) क्षत्रिय या सैनिक वर्ग (3) वैश्य या व्यापारी वर्ग और (4) शूद्र या शिल्पकार और सेवक वर्ग। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह मूलतः एक वर्ग व्यवस्था थी, जिसमें कोई भी व्यक्ति उचित योग्यता पाने के बाद अपने वर्ग को परिवर्तित कर सकता था। इस तरह, वर्गों के सदस्य बदलते रहते थे। फिर, हिन्दुओं के इतिहास के किसी काल में, पुरोहित वर्ग ने स्वयं को अन्य समूहों से विलग कर लिया और अन्य वर्गों के लिए अपने दरवाजे बंद कर स्वयं को जाति में बदल लिया। अन्य वर्गों कां भी, सामाजिक श्रम विभाजन के सिद्धांत के प्रभाव में विखंडन होता गया। कुछ बड़े वर्ग बने तो कुछ बहुत छोटे…इस सिलसिले में जिस प्रश्न का उत्तर हमें खोजना है वह यह है कि ये उपखंड या वर्ग – चाहे वे औद्योगिक रहे हों, धार्मिक या अन्य – बंद और अंतर्विवाही कैसे बन गए। मेरा उत्तर है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ब्राम्हणों ने ऐसा किया। अंतर्विवाह या ‘बंद दरवाजा‘ प्रथा हिन्दू समाज में फैशन बन गई। चूंकि इसका उदय ब्राम्हण जाति में हुआ था इसलिए सभी गैर-ब्राम्हण उपखंडों या वर्गों ने इसे अपना लिया और वे भी अंतर्विवाही जातियां बन गए। ‘नकल की इसी छूत की बीमारी‘ के कारण ये सभी उपखंड बंटते गए और जातियों में बदलते गए। {उपरोक्त 17-18}।
इस तरह, कबीलाई बर्हिविवाह की मानवशास्त्रीय खोज से शुरू कर, आंबेडकर ने यह बताया कि किस प्रकार जातिगत अंतर्विवाह उस पर थोप दिया गया। सन् 1917 में जाति को वर्ग व्यवस्था का स्वरूप बताना अनूठा था। परंतु इस सबका भारत में जातियों पर विश्व के प्रसिद्ध अध्येताओं के लेखन में कहीं जिक्र नहीं है। उदाहरण के लिए जीएस घुरिए को लें। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कास्ट एंड क्लास इन इंडिया‘ (1957) में घुरिए ने आंबेडकर का नाम केवल एक स्थान पर (पृष्ठ 226) पर लिया और वहां भी उन्हें केवल ‘अनुसूचित जातियों का नेता‘ बताया। यह इसके बावजूद कि लेखक ने अपनी पुस्तक में अंतर्विवाह को भारत के जाति-आधारित समाज का प्रमुख लक्षण बताया है। निर्मल कुमार बोस के लेखन में भी बीआर आंबेडकर के मानवशास्त्र में योगदान को कोई स्थान नहीं दिया गया है।
संदर्भ:
बीआर आंबेडकर (1916): ‘कास्ट्स इन इंडियाः देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेव्पलपमेंट‘, डा एलेक्जेंडर गोल्डनवाईजर द्वारा कोलंबिया विश्वविद्यालय में आयोजित शोध संगोष्ठी में 9 मई 1916 को प्रस्तुत शोध प्रबंध। इस प्रबंध का मूल पाठ ‘इंडियन ऐंटीक्योरी‘, खंड 41 (मई 1917) में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ।
‘डा बाबासाहब आंबेडकरः राईटिंग्स एंड स्पीचिज़‘ (1979), खंड एक, संपादक वसंत मून, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र शासन, मुंबई
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