डा. आंबेडकर ने अपने तीन गुरु माने थे, जिनमें कबीर साहेब उनके पहले गुरु हैं। स्पष्ट है कि कबीर ने उनको गहराई से प्रभावित किया था। अब यह बड़ा सवाल है कि वह किस आधार पर कबीर से प्रभावित हुए थे? या, यह कि कबीर ने उनके व्यक्तित्त्व के निर्माण में क्या भूमिका निभाई थी? जैसा कि कहा जाता है, उनका परिवार कबीरपंथी था, इसलिए इसमें संदेह नहीं कि कबीर की वाणी से उनका पहला परिचय उनके घर में ही हो गया था। पर यह कहना मुश्किल है कि यह परिचय एक दार्शनिक कबीर से था या भक्त कबीर से, या दोनों से? यह कहना भी मुश्किल है कि उनके समय में मराठी में कबीर वाणी उपलब्ध थी या नहीं? जबकि हिन्दी में कबीर ग्रंथावली का पहला प्रकाशन बाबू श्यामसुन्दर दास के संपादन में 1930 में हुआ था। लेकिन ज्यादा सम्भावना है कि 1915 में लन्दन मैकमिलन से प्रकशित किताब “हंड्रेड पोएम्स ऑफ कबीर” ने, जिसमें रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कबीर की सौ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था, बाबासाहेब के समक्ष एक दार्शनिक और तर्क करने वाले कबीर को प्रस्तुत किया था। इस किताब के प्रकाशन के समय बाबासाहेब अमेरिका में थे, और 1916 में लन्दन में राजनीतिक विज्ञान के छात्र थे। वह नई किताबों के खोजी और गजब के पढ़ाकू थे। अत: कहना न होगा कि कबीर की कविताओं के इस संग्रह ने उन पर व्यापक प्रभाव डाला था।
लेकिन कबीर साहेब से प्रभावित होने का यही एक कारण नहीं है, बल्कि सबसे बड़ा और प्रमुख कारण यह था कि कबीर और उनके समय की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियां समान थीं, और कबीर के व्यक्तित्व ने उनके नेतृत्त्व को नयी धार दी थी। इसे थोड़ा समझना होगा। बाबासाहेब और कबीर के बीच, यद्यपि, पांच सदियों का अंतराल है, परन्तु अगर इतिहास का कोई भी विद्यार्थी 15 वीं और 20 वीं सदी के समय का तुलनात्मक अध्ययन करेगा, तो वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि पांच सौ साल के बाद इतिहास ने अपने को दुहराया है।
इसे समझने के लिए हमें कबीर के समय को जानना होगा। कबीर पंद्रहवीं सदी के कवि और विचारक हैं। जो निम्नवर्गीय जुलाहा जाति से थे, जो उस समय की अछूत जाति थी। कबीर के समय में मुस्लिम सल्तनत कायम हो चुकी थी। इस्लाम ने शूद्र-अतिशूद्रों के लिए बंद दरवाजे खोल दिए थे। उनके मदरसों में दलितों के लिए कोई पाबंदी नहीं थी। दूसरी ओर सूफियों के मुहब्बत और बराबरी के व्यवहार से प्रभावित होकर पीड़ित जातियां इस्लाम में दीक्षित हो रही थीं। किन्तु, दूसरी ओर इस्लाम से हिन्दूधर्म को बचाने के लिए ब्राह्मणों की प्रतिक्रांति की भी तीव्र धारा चल रही थी। इस्लाम की प्रतिक्रांति में, 11वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने जो अद्वैतवाद का दर्शन खड़ा किया था, उसने 14वीं-15वीं सदी में एक विशाल वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय का नया अवतार धारण कर लिया था। इसके संस्थापक रामानुज थे। इन्हीं के एक शिष्य रामानंद, दलित जातियों को वैष्णव बनाने के लिए दक्षिण से आकर उत्तर भारत में, काशी में बस गए थे। उन्होंने इस्लाम में दलित जातियों के धर्मान्तरण को रोकने के लिए दलित जातियों, विशेष रूप से चांडालों को रामराम का मंत्र देकर वैष्णव बनाया। उनकी यह प्रक्रिया भी अजीब थी। वह इतने फासले से कि शरीर स्पर्श न हो सके, कान में रामराम के दो अक्षर बोल देते थे, और वे तत्काल वैष्णव हो जाते थे। हालाँकि, स्वामी रामानंद यह जरूर कहते थे कि ‘जातपात पूछे नहीं कोई/हरि को भजे सो हरि का होई’, पर हकीकत में वैष्णव-सम्प्रदाय वर्णव्यवस्था में विश्वास करता था। इसलिए उनकी कथनी और करनी में अंतर था। इसलिए दलित वैष्णवों के सामाजिक स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आया था। उन्हें मन्दिर के गर्भ गृह में भी जाने का अधिकार नहीं था। वे केवल दूर से ही अपने ‘ठाकुर’ के दर्शन कर सकते थे। वैष्णव सम्प्रदाय में दलित वैष्णवों की क्या स्थिति थी, यह जानने के लिए ‘दो सौ चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ को पढ़ना चाहिए, जिसमें उन्हें ब्राह्मणों की जूठन खाने से मुक्ति मिलने की बात कही गयी है। यही स्थिति उन दलितों की भी थी, जो शाक्त सम्प्रदाय में दीक्षित हो गए थे। कबीर ने ऐसे शाक्तों और वैष्णवों के प्रति हमदर्दी व्यक्त करते हुए कहा था—
साषत ब्राह्मण न मिलो, बैसनो मिलो चंडाल।
अंक माल दे भेटिए, मानो मिले गोपाल। (क.ग्र. पृष्ठ 28)
अर्थात, शाक्त और ब्राह्मण से मत मिलो, पर अगर चंडाल वैष्णव मिल जाये, तो उससे ऐसे गले मिलो, मानो गोपाल मिल गए हों। इसमें व्यंग्य भी है, और सन्देश भी कि वह भटके हुए दलित भाई से प्रेम करना है।
कबीर के समय में सत्ता के दो केन्द्र थे—एक मुल्ला और दूसरा पंडित। संयोग से सत्ता के यही दो केन्द्र डा. आंबेडकर के समय में भी थे। मुल्ला और पंडित दोनों ही अपने-अपने समुदाय के निर्विवाद धर्मगुरु थे, और उनकी मारी हलाल थी। उनके विरुद्ध बोलने या उनसे सवाल करने का किसी जनता में साहस नहीं था। कबीर देख रहे थे कि पंडित और मुल्ला किस तरह धर्म के नाम पर वर्णव्यवस्था, अस्पृश्यता, हज, पूजा, नमाज, तीर्थ, परलोक और आवागमन का पाखंड लोगों में भर रहे थे, और इसकी आड़ में सामंत, साहूकार और व्यापारी उनका आर्थिक शोषण करके उनका जीवन नर्क बनाये हुए थे। कबीर उनकी कथनी और करनी में अंतर देख रहे थे। कार्लमार्क्स का मत है कि ‘सत्ताधारी वर्ग के विचार हर युग में सत्ताधारी विचार हुआ करते हैं। यानी, जो वर्ग समाज की सत्ताधारी भौतिक शक्ति होता है, वही उसकी सत्ताधारी बौद्धिक शक्ति भी होता है।’ कबीर साफ़-साफ़ देख रहे थे कि मुल्ला-पंडित समाज की सत्ताधारी भौतिक शक्ति के साथ-साथ जनता की बौद्धिक शक्ति भी थे। इसलिए कबीर ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया था कि जनता के बौद्धिक नेतृत्त्व के लिए एक तीसरी बौद्धिक धारा को प्रवाहित करना होगा। यह तीसरी धारा आँखों देखी थी। कबीर ने दोनों से संवाद किया, पर उनका संवाद न मुल्ला को पसंद आया था और न पंडित को। इसलिए, कबीर ने ‘न-हिन्दू-न-मुसलमान’ के सिद्धांत को अपनाया और मुल्ला-पंडित को नकारते हुए जनता का क्रान्तिकारी नेतृत्व किया। कबीर ने वेद-पुराण और कुरआन के विरुद्ध समाज को देखने और धर्म के मूल्यांकन का अपना अलग ही सौंदर्यशास्त्र विकसित किया। उन्होंने कहा—‘अलाह राम का गम नहीं, तहं घर किया कबीर।’ (वही, पृ. 411) इस पद में राम वैष्णवों के आराध्य देव राजा राम हैं, जो विष्णु के अवतार हैं। इसलिए कबीर ने उनको नहीं माना। उनकी निगाह में अलाह और राम दोनों सगुण हैं, जबकि उन्होंने निर्गुण का आविष्कार किया था, जो वर्णव्यवस्था और परलोक के विरुद्ध एक क्रान्तिकारी खोज थी। उन्होंने कहा था – ‘हमरा झगरा रहा न कोऊ, पंडित मुल्ला छोड़े दोऊ’। (वही, पृ. 206)
पंडित-मुल्ला दोनों को छोड़ कर ही कोई क्रान्ति की जा सकती है, कबीर के इस आत्मचिंतन ने डा. आंबेडकर को प्रभावित किया था। बीसवीं सदी में डा. आंबेडकर भी उन्हीं परिस्थितियों से जूझ रहे थे, जिनसे कबीर जूझ रहे थे। इसलिए, कबीर के आँखों देखे चिंतन ने आंबेडकर को वह दृष्टि दी, जिसकी उन्हें तलाश थी। आलोचना की यह तीसरी धारा ही बहुजन वैचारिकी का मूल आधार बनी, जिसके प्रवर्तक यकीनन कबीर साहेब थे, पर जिसे निस्संदेह बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपने नेतृत्व का प्रस्थान बिंदु बनाकर आगे बढ़ाया था।
कबीर ने ब्राह्मण के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया था, जो उनके समय में पूरे जगत का गुरु बना हुआ था। (ब्राह्मण गुरु जगत का साधू का गुरु नाहीं, उरझि-पुरझि कर मरि रह्या, चारिउं वेदा माहीं, वही, पृ. 28) यह उस दौर की सबसे बड़ी क्रान्ति थी। कबीर के इसी विचार ने डा. आंबेडकर को गहराई से छुआ था। रामानंद कबीर के समय में नहीं थे, पर उनकी विचारधारा थी, और उसका एक से एक तुर्रम मठ विकसित हो चुका था। किन्तु, कबीर ने किसी से डरे बिना उन मठों पर प्रहार किया, और एक भी सगुण मठ दलित वर्गों में स्थापित नहीं होने दिया। यह बड़ी क्रान्ति थी, जिससे बाबासाहेब प्रभावित हुए थे। बीसवीं सदी में डा. आंबेडकर ने कबीर के ही रास्ते पर चलते हुए, ‘न-हिन्दू-न-मुसलमान’ का सिद्धांत अपनाया था, और गाँधी सहित किसी भी नेता के नेतृत्व को स्वीकार न करते हुए हिन्दू-मुस्लिम दोनों मठों पर बराबर प्रहार किया था। इसलिए वे कबीर की भांति ही हिन्दू और मुसलमान दोनों नेतृत्वों से दलित वर्गों को सचेत करने में सफल हुए थे।
डा. आंबेडकर की धर्म की जो खोज बौद्धधर्म पर खत्म हुई थी, वहाँ तक वे कबीर के द्वारा ही पहुंचे थे। उन्हें बुद्ध तक ले जाने वाली जो चीज थी, वह कबीर की तर्क शक्ति थी। जो उन्हें किसी हिन्दू संत में दिखाई नहीं दी थी। उनका निर्गुणवाद ही उनको अनीश्वरवाद तक ले गया था। यह कथन किसी को अविश्वसनीय लग सकता है। पर यह एक यथार्थ है। कबीर का निर्गुणवाद बाहर से भले ही ईश्वरवादी लगता है, पर भीतर से अपनी अर्थवत्ता में वह निरीश्वरवाद ही है। वह अकेला ऐसा ईश्वरवाद है, जो स्वर्ग-नर्क, आवागमन, परलोक, मुक्ति, पुनर्जन्मवाद, अवतारवाद, पूजा, तीर्थ, व्रत-उपवास और शास्त्रवाद का खंडन करता है। कौन सा ऐसा ईश्वरवाद है, जो यह खंडन करता हो? कबीर का निर्गुणवाद आदमी को भाग्य और शास्त्रों में विश्वास करने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि वह कहता है—
कौन मरे कौन जनमे भाई।
सरग नरक कौने गति पाई।
पंचतत अविगत थें उतपना, एकै किया निवासा
बिछुरे तत फिरि सहजि समाना, रेख रही नहीं आसा।
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तत कथो गियानी।
आदे गगना अन्ते गगना मधे गगना भाई।
कहे कबीर कर्म किस लागे, झूठी संक उपाई। (वही, पृ. 80)
बाबासाहेब डा. आंबेडकर को इस निर्गुणवाद ने बहुत प्रभावित किया था, यही विज्ञान उन्हें बुद्ध के दर्शन में मिला था। कालामों को दिए गए जिस उपदेश में बुद्ध ने शास्त्रवाद और व्यक्तिवाद का खंडन करते हुए अनुभूत ज्ञान पर जोर दिया था, उसे बाबासाहेब ने कबीर के इस पद में देखा था—
मेरा तेरा मनुआ कैसे एक होई रे,
मैं कहता हों आँखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी। (कबीर, पृ. 247)
इसमें ‘कागद लेखी’ में शास्त्रवाद और व्यक्तिवाद दोनों का खंडन है, और ‘आँखिन देखी’ में अनुभूत ज्ञान है। यह कबीर का वह पद है, जिसे बाबासाहेब ने अपने राजनीतिक नेतृत्व का आधार बनाया था, और जिसके बल पर गाँधी और कांग्रेस को दलितों की सामाजिक-आर्थिक हालात का आईना दिखाया था।
बाबासाहेब के ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का विनाश) भाषण में शुरू से अंत तक कबीर मौजूद हैं। उसमें जिस तार्किक ढंग से वर्णव्यवस्था और जातिवाद का खंडन मिलता है, उसे अगर कबीर के तर्कों को सामने रखकर पढ़ा जायेगा, तो लगेगा कि पांच सौ साल के बाद कबीर ही नए अवतार में बोल रहे हैं।
कबीर का तर्क था कि जब ईश्वर का कोई वर्ण नहीं है, तो वह मनुष्यों का वर्ण कैसे बना सकता है? कबीर ने बड़ी वैज्ञानिक बात कही थी—‘नाति सरूप वर्ण नहीं जाकै, घटि-घटि रह्यौ समाई।’ जो बात बुद्ध ने कही थी, वही बात कबीर ने भी कही— ‘एक बूंद एक मल मूतर, एक चाम इक गूदा / एक जोत से सब उत्पन्ना, को ब्राह्मण को सूदा।’ जब डा. आंबेडकर यह कहते हैं कि भारत में कोई भी जाति शुद्ध नहीं है, राजपूत और मराठा जैसी योद्धा जातियों में ही नहीं, बल्कि ब्राह्मणों में भी विदेशी रक्त का मिश्रण है, तो कौन ब्राह्मण और कौन शूद्र है? अथवा, जब वे यह कहते हैं कि अछूत और ब्राह्मण एक ही प्रजाति के हैं, तो क्या वे कबीर के ही तर्क को आगे नहीं बढ़ाते हैं? यही नहीं, जब डा. आंबेडकर धर्मशास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाने की बात करते हैं, तो क्या उनके जहन में कबीर नहीं थे, जो ब्राह्मण से कह रहे थे—‘बेद-कितेब छाड़ि देऊ पांडे, ई सब मन के भरमा’? (वही, पृ. 242) जब डा. आंबेडकर ब्राह्मण संतों की आलोचना करते हैं कि उन्होंने मनुष्य और ईश्वर के बीच समानता की बात तो की, पर सामाजिक समानता कायम करने के लिए जाति के खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाई, तो इसके पीछे भी कबीर की वह चेतना ही थी, जिसमें उन्होंने भक्ति का खंडन किया था और कहा था कि जिसने जाति वर्ण को नहीं खोया, वह क्या भक्ति करेगा? यथा—
जब लंग नाता जाति का, तब लंग भक्ति न होए,
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति बरण कुल खोये।
जहां भक्ति वहाँ भेष नहीं, वर्णाश्रम हूँ नाहिं।
नाम भक्ति जो प्रेम सों, सौ दुर्लभ जग माहिं।
(क.स. पृ. 404-5)
कबीर ने उस अध्यात्मवाद का समर्थन नहीं किया, जो लोक को मिथ्या और परलोक को सत्य बताता है। ब्राह्मणवादी अध्यात्म में द्वैतवाद और अद्वैतवाद ये दो दर्शन हैं। द्वैतवाद में जीव और ब्रह्म अलग-अलग हैं, जबकि अद्वैतवाद में जीव और ब्रह्म एक ही हैं। पर दोनों ही परलोक में विश्वास करते हैं। कबीर का अध्यात्मवाद क्या था, और डा. आंबेडकर उससे कितना प्रभावित थे, यह देखना भी दिलचस्प होगा।
डा. आंबेडकर भी अध्यात्म या दर्शन को सामाजिक न्याय की कसौटी पर परखते थे। इस कसौटी में तीन बिंदु थे—समानता, स्वतंत्रता और बन्धुता। इस कसौटी से उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन किया था, विशेष रूप से हिन्दूधर्म का। सामाजिक न्याय के ये तीनों बिंदु उन्हें हिन्दूधर्म के साथ-साथ इस्लाम और ईसाईयत में भी नहीं मिले थे। इस संबंध में उनकी कृति ‘फिलोसोफी ऑफ हिन्दूइज्म’ को देखा जा सकता है। सामाजिक न्याय के ये तीनों बिंदु उन्हें कबीर से मिले थे। कबीर के यहाँ प्रेम पर जोर है, जिसके बिना समानता, स्वतंत्रता और बन्धुता का भाव आ ही नहीं सकता। यह कबीर ही थे, जिन्होंने चिल्लाकर कहा था कि खजूर के पेड़ की तरह बड़ा होने से क्या लाभ, जिसके नीचे पंथी को छाया तक नहीं मिलती, और फल भी बहुत दूर होता है। यह कबीर ने ही कहा था कि ‘प्रेमी को प्रेमी मिले, तब सब विष अमृत होई।’ प्रेम का विकास ही आदमी के अंदर का सारा जहर अमृत में बदल सकता है, और तब लोग सिर्फ मृतकों के लिए ही नहीं रोयेंगे, बल्कि गुलामों के लिए भी रोयेंगे—‘मुओं को क्या रोइए, जो अपने घर जाए, रोइए बंदीवान को, जो हाटे हाट बिकाए’। (क.ग्र. पृ. 63) लेकिन ऐसे लोगों के प्रति कबीर तनिक भी उदार नहीं थे, बल्कि उनके कठोर निंदक थे, जो ब्रह्म और आत्मवाद पर गर्व तो करते थे, पर उनके मन में शूद्र और म्लेच्छ ही बसते थे, आदमी नहीं। (बहुत गरब गरबे सन्यासी, ब्रहमचरित नहीं पासी; सूद्र मलेछ बसे मन माहीं, आतमराम सु चीन्हा नाहीं। वही, पृ. 112)
कबीर के ये लोकप्रिय शब्द हैं, जो दलित वर्गों में आम प्रचलित हैं। कबीर ने भारत की बहुसंख्यक आबादी को बदला था। आज दलित वर्गों में जो अधिसंख्य लोगों के नामों के आगे-पीछे जो ‘राम’ शब्द मिलता है, यह उन पर कबीर और रैदास के ही प्रभाव को साबित करता है। यह प्रभाव इतना व्यापक था कि बाबासाहेब के पिता के नाम में भी ‘राम’ जुड़ा था। कबीर के इस निर्गुण राम ने दलितों को हिन्दू मंदिरों के सगुण देवताओं के प्रति जबरदस्त बिकर्षण पैदा किया था। पर क्या पता था कि सोलहवीं सदी में गोस्वामी तुलसीदास के ठाकुर जी का गुणगान, कबीर के निर्गुण राम को सगुण राम में बदल कर तीव्र प्रतिक्रांति करेगा और ब्राहमणवाद के पोषक हिन्दू सेठ उसके विस्तार में अपनी तिजौरियों के मुंह खोल देंगे।
डा. आंबेडकर के आलोचक कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी रचनाओं में कबीर को उद्धृत नहीं किया है, पर उन्हें मालूम होना चाहिए कि उद्धृत तो उन्होंने जोतिबा फुले को भी नहीं किया है, तो क्या उन्हें उन्होंने अपना गुरु नहीं माना है?
सन्दर्भ :
क.ग्र. (कबीर ग्रंथावली, श्याम सुन्दरदस , नगरी प्रचारिणी सभा, काशी. संस्करण सं. 2034)
कबीर (कबीर, हजारीप्रसाद द्वेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1993)
क.स. (कबीर समग्र, खंड-1, प्रो. युगेश्वर, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, संस्करण, 1995)
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