जाति और वर्गविहीन समाज के निर्माण के लिए आजीवन कार्य करने वालों में एक महान विभूति सन्तराम जी थे, जो सन्तराम बी. ए. (14 फरवरी 1887-5 जून 1988 ) के नाम से जाने जाते थे। वह कुम्हार जाति से थे, और अपने समय के सर्वाधिक चर्चित लेखक थे। चांद, सुधा, और सरस्वती पत्रिकाओं में उनके लेख जेरेबहस रहते थे। उन्होंने उर्दू में ‘क्रान्ति’ पत्रिका निकाली थी। इसके सिवा वह जालन्धर कन्या महाविद्यालय की मुख्य पत्रिका ‘भारतीय’ और लाहौर की ‘विश्वेश्वरानन्द वैदिक संस्थान’ की पत्रिका विश्व ज्योति’ के भी सम्पादक बने। उनकी लोकप्रियता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राहुल सांकृत्यायन भी उनसे मिलकर उनके परम मित्र हो गए थे। यह सम्भवतः पिछली सदी का पहला दशक होगा, जब राहुल जी ने लाहौर में सन्तराम जी से पहली भेंट की थी। राहुल जी का यात्रा-सम्बन्धी पहला लेख भी उन्हीं की पत्रिका ‘भारतीय’ में छपा था। जिस समय राहुल जी ने सन्तराम जी से भेंट की, उस समय राहुल जी आर्यसमाजी साधु थे। लेखक के रूप में अभी वह ख्यात नहीं हुए थे। बाद में जब वह रामोदार से राहुल सांकृत्यायन बने[i], तो उन्होंने सन्तराम जी पर मार्मिक संस्मरण लिखा था, जो उनकी किताब ‘जिनका मैं कृतज्ञ’ में संकलित है। एक जगह वह एक रोचक प्रसंग लिखते हैं, ‘उनका घर होशियारपुर के पास ही ‘पुरानी बस्सी’ गांव में था, जहां वह अपने बाग वाले मकान में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। मेरे वहां रहते ही उनको पुत्री पैदा हुई। पंजाबिन महिला के स्वास्थ्य को देखकर आश्चर्य होता था। सवेरे उन्होंने घर का सब काम काज किया। भैंस का दूध भी दुहा और दोपहर को मालूम हुआ, लड़की पैदा हुई। जात-कर्म-संस्कार का पुरोहित मैं बना और मैंने ही लड़की का नाम गार्गी चुना।’
राहुल जी का संस्मरण हमें एक और सूचना देता है कि सन्तराम जी का एकमात्र होनहार पुत्र तरुणाई में ही मर गया था। बाद में उन्होंने लाहौर के कृष्णनगर में अपना घर बनवा लिया और पहली पत्नी के मरने पर एक महाराष्ट्रीयन महिला को सहधर्मिणी बनाया। पर देश के बॅंटवारे के बाद सन्तराम जी का लाहौर वाला आशियाना हाथ से चला गया, पर उनका जन्मस्थान(पुरानी बस्सी) भारत में ही रहा था। इसी पुरानी बस्सी में 14 फरवरी 1887 को उनका जन्म हुआ था।
सन्तराम जी अपनी तरुणाई में ही आर्यसमाजी हो गए थे। आर्य समाज में जिस संस्था की वजह से वह विख्यात हुए, वह संस्था ‘जातपात तोड़क मण्डल’ थी, जिसे उन्होंने 1922 में स्थापित किया था। वह उसके सचिव थे। इसी मण्डल ने 1936 में डा. आंबेडकर को अपने वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देने के लिए लाहौर बुलाया था। इस अधिवेशन के लिए डा. आंबेडकर ने जो अध्यक्षीय भाषण तैयार किया था, उसमें वेद-शास्त्रों की निन्दा होने के कारण मण्डल के अनेक सदस्य उससे सहमत नहीं थे। पर आंबेडकर उसमें परिवर्तन करने को तैयार नहीं थे। परिणामतः, मण्डल ने अधिवेशन को ही स्थगित कर दिया था। किन्तु डा. आंबेडकर ने उस भाषण को पुस्तकाकार में मुद्रित करा दिया था। ‘एनीलेशन आफ कास्ट’ उनकी वही चर्चित पुस्तक है।
सन्तराम जी और उनके ‘जातपात तोड़क मण्डल’ ने अपने जाति-विरोध से पूरे देश का ध्यान खींचा था। पर उसे जितना समर्थन मिला था, उससे कहीं ज्यादा रूढ़िवादियों ने उसका विरोध किया था। विरोधियों में देश के चोटी के विद्वान सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ भी थे। उन्होंने ‘मतवाला’ (1924) में ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ शीर्षक अपने लेख में लिखा था- ‘शूद्रों के प्रति केवल सहानुभूति प्रदर्शन कर देने से ब्राह्मणों का कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, न ‘जातपात तोड़क मण्डल’ के मन्त्री सन्तराम जी के करार देने से इधर दो हजार वर्ष के अन्दर संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के यथार्थ शत्रु सिद्ध हो सकते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन कठोर से कठोर होने पर भी अपने समय की मयार्दा से दृढ़ सम्बन्ध हैं। खैर, वर्णव्यवस्था की रक्षा के लिए जिस ‘जायते वर्ण संकर’ की तरह के अनेकानेक प्रमाण उद्धृत किए गए हैं, उसकी सार्थकता इस समय मुझे तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ती, न ‘जातपात तोड़क मण्डल’ की ही विशेष कोई आवश्यकता प्रतीत हाकती है। ब्रह्म समाज के रहते हुए सन्तराम जी आदि ने मण्डल की स्थापना क्यों की? ब्रह्म समाज की ही एक शाखा क्यों नहीं कायम कर ली?’ उन्होंने यहां तक लिखा कि ब्राह्मणों ने शूद्रों के लिए कठोर नियम इसलिए बनाए थे, क्योंकि ‘‘उनके दूषित बीजाणु तत्कालीन समाज के मंगलमय शरीर को अस्वस्थ करते थे। निष्कलुष होकर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर होने वाले शुद्ध परमाणुकाय समाज को शूद्रों से कितना बड़ा नुकसान पहुंचता था, यह मण्डल के सदस्य समझते, यदि वे भागवादी, अधिकारवादी, मानवादी-इस तरह जड़वादी न होकर, त्यागवादी या अध्यात्मवादी होते। इतने पीड़नों को सहते हुए अपने जरा से बचाव के लिए, अगर द्विज समाज ने शूद्रों के प्रति कुछ कठोर अनुशासन कर भी दिए, तो हिसाब में शूद्रों द्वारा किए गए अत्याचार द्विज समाज को अधिक सहने पड़े थे।’’
निराला जी का यह ‘क्रान्तिकारी लेख’ उनके निबन्ध संग्रह ‘चाबुक; में संकलित है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि ‘जातपात तोड़क मण्डल’ को हिन्दू समाज ने किस कदर उपेक्षित किया था। बहुत से आर्यसमाजी भी नहीं चाहते थे कि सन्तराम जी मण्डल को चलाएं। इसलिए मण्डल के अधिकांश सदस्य, जिनमें गोकुल चन्द्र नारंग, भाई परमानन्द और महात्मा हंसराज जैसे प्रगतिशील बुद्धिजीवी शामिल थे, घोर हिन्दूवादी होने के कारण, डा. आंबेडकर को मण्डल के अधिवेशन का अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में मण्डल से अलग हो गए थे। इनमें भाई परमानन्द जैसे बहुत से लोग तो बाद में हिन्दू महासभा में चले गए थे। इसलिए यह अकारण नहीं है कि उस समय के हिन्दू ब्रह्म समाज के तो पक्ष में थे, जो जाति को मानता था, पर जाति का खण्डन करने वाले ‘जातपात तोड़क मण्डल’ के खिलाफ थे। पर आर्यसमाजियों के असहयोग के कारण सन्तराम जी ने मण्डल को समाप्त नहीं किया, बल्कि उसे स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयं चलाया।
सन्तरामजी ने हिन्दू-मुस्लिम-एकता और जातिभेद के उन्मूलन पर सौ से भी ज्यादा लघु पुस्तिकायें लिखी थीं, जिनके विचारों ने हिन्दू समाज में हलचल मचा दी थी। इन पुस्तिकाओं को वे मुफ्त बांटते थे। सुबह-शाम जब वह सैर को निकलते थे, तो अपनी जेब में उनको रख लेते थे, और जो भी मिलता, उसे देते चलते थे। उनकी 1948 में प्रकाशित किताब ‘हमारा समाज’ तो आज भी हिन्दुओं के लिए आंखें खोल देने वाली किताब है। मैंने इस किताब को 1975 में पढ़ा था, और उसके बाद से मैं उसे पवित्र ग्रन्थ की तरह सॅंभालकर रखे हुए हूं। मेरी दृष्टि में वह एक वैज्ञानिक वेद है, जिसके सूत्र अगर हिन्दुओं के कानों में पड़ जायें, तो उनके दिमाग के जाले साफ हो जायें। कुछ का उल्लेख मैं यहां जरूर करना चाहूंगा। यथा :
‘शेरशाह सूरी के समय में हेमचन्द्र (हेमू बक्कल) नामक एक बनिए ने अपना नाम विक्रमादित्य रखकर हिन्दूराज्य स्थापित करना चाहा। उसने दिल्ली आदि कई स्थानों पर मुगल सेनाओं को हराया। परन्तु राजपूतों ने उसकी सेना में भर्ती होने से इन्कार कर दिया। वे कहते थे कि हम क्षत्रिय होकर नीच वर्ण के वैश्य के अधीन काम नहीं कर सकते। फलतः, जब हेमचन्द्र को बैरम खां से हार हुई, तो उन्हीं राजपूतों को मुसलमानों का गुलाम बनने में किसी तरह के अपमान का अनुभव न हुआ।’ (पृष्ठ 226)
‘गुजरात का एक ढेढ़ (अछूत) जब तक हिन्दू रहा, वर्णव्यवस्था के ठेकेदारों ने उसे उठने न दिया। परन्तु ज्यों ही उसने मुसलमान बनकर अपना नाम नासिरुद्दीन खुसरो रखा, त्यों ही उसने खिलजी वंश की सारी सत्ता अपने हाथों में ले ली। हिन्दू रहते हुए वह किसी क्षत्रिय स्त्री का स्पर्श तो दूर, दर्शन भी न कर सकता था। मुसलमान बनकर उसने राजा कर्णराव की स्त्री देवल देवी के साथ विवाह कर लिया था।’ (पृष्ठ 227)
‘जिस वर्ष मैलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माता का देहान्त हुआ, उस समय भाई परमानन्द जी उनके पास सम्वेदना प्रकट करने गए। बातचीत में मौलाना ने भाई जी से कहा कि आप लोग व्यर्थ ही शुद्धि और अछूतोद्धार का रोड़ा अटका कर इस्लाम की प्रगति को रोकना चाहते हैं। इसमें आपको कभी सफलता नहीं मिल सकती। भाई जी ने पूछा, क्यों? मौलाना ने उत्तर दिया, देखिए, यह भंगिन जा रही है। मैं इसे मुसलमान बनाकर आज ही अपनी बेगम बना सकता हूं। क्या आप में या मालवीय जी में यह साहस है? मैं किसी भी हिन्दू को मुसलमान बनाकर अपनी लड़की दे सकता हूं। क्या कोई हिन्दू नेता ऐसा कर सकता है? मैं आज ‘शुद्ध’ होता हूं। क्या कोई मेरी स्थिति का हिन्दू नेता मेरे लड़के को लड़की देगा? यदि नहीं, तो फिर आप शुद्धि और अछूतोद्धार का ढोंग रचकर इस्लाम के मार्ग में रोड़ा क्यों अटका रहे हैं?’ (पृष्ठ 178-79)
‘आप पूछेंगे कि जातपांत को मानते हुए जब हिन्दुओं की विभिन्न जातियां इक्टठी रह सकती हैं, तो मुसलमान हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं रह सकते? इसका कारण यह है कि जिस प्रकार सब कोढ़ी-जिनमें से किसी की नाक में कोढ़ है, किसी के पैर में, किसी के हाथ की उॅंगलियों में-इकट्ठे रह सकते हैं, पर कोई निरोग व्यक्ति उन कोढ़ियों के साथ मिलकर नहीं रह सकता, उसी प्रकार हिन्दुओं की जातियां-जो सब की सब जातपांत रूपी कोढ़ से पीड़ित हैं-इकट्ठी रह सकती हैं, पर मुसलमान, जिनमें जातपांत का रोग नहीं है, इनके साथ रहना स्वीकार नहीं कर सकते। द्विज ने शूद्र की आत्मप्रतिष्ठा को ही कुचल डाला है। वह द्विज के हाथों होने वाली मानहानि को अनुभव करने में असमर्थ हो गया है। पर मुसलमान को यह अपमान अखरता है।’ (पृष्ठ 237) इस तरह के उदाहरणों से सन्तराम जी की किताब भरी पड़ी है।
मैंने 16 जनवरी 1996 को इलाहाबाद में ‘जन संस्कृति मंच’ के राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने पेपर में सन्तराम जी के योगदान का उल्लेख किया था, वह सुधीर विद्यार्थी को अच्छा लगा, और उन्होंने इसका जिक्र सन्तराम जी की बेटी गार्गी चड्ढा से दिल्ली में किया। उसकी प्रतिक्रिया में 20 मार्च 1997 को मुझे 51, नवजीवन विहार, नई दिल्ली से गार्गी चड्ढा का अन्तर्देशीय पत्र मिला, जिसमें उन्होंने अपनी स्थिति का बहुत ही मार्मिक वर्णन करते हुए लिखा था- ‘भैया, मैं सच कहती हूं कि मुझे यह जानकर सच्ची आन्तरिक प्रसन्नता हुई कि पिता जी के त्याग, निष्काम, समाज सेवाओं को स्मरण रखने वाला उनका कोई सपूत तो है। मैं उनकी एकमात्र जीवित सन्तान हूं। उन्हें कभी मुझमें या उनके अन्य स्नेहियों में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता था।[ii] जो उनके विचारों-जातपांत तोड़क विचारों-का व्यक्ति होगा, वही उनका प्रिय था। शायद आप जानते ही होंगे, कि उस महान त्यागी ने देश से जातिभेद का महाघातक रोग मिटाने के लिए अपना पूर्ण जीवन संघर्षों, विद्रोहों, अभावों का सामना करते हुए लगा दिया। कहा करते थे-जातिभेद हिन्दुओं का महान घातक शत्रु है। इसे जड़मूल से मिटाना ही मेरे जीवन का ध्येय है। सिवाए विद्रोहों के उनकी झोली में कुछ कम ही पड़ा। अपने आप में ही बोला करते थे-‘चला जाऊॅंगा छोड़कर जब इस आशियाने को, वफाएं तब याद आयेंगी मेरी इस जमाने को।’
उन्होंने अन्त में लिखा था-‘मैं चाहती थी मेरे रहते उनके पुराने लेख, जो आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने तब रहे होंगे, पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सकें, तो अच्छा है। प्रयत्न भी किया, पर अभी सफलता नहीं मिल पाई। आप तो अच्छे लेखक हैं, सम्भवतया आपके प्रयत्न से इस कार्य में सफलता मिल सके।’
उनका दूसरा पत्र 17 अप्रैल 1997 का मिला। इसमें उन्होंने सन्तराम जी के बारे में एक-दो नई सूचनाएं दी थीं, जिनका उल्लेख जरूरी है। उन्होंने लिखा था- ‘1991 तक मेरे पति भीमसेन चड्ढा, (जो मेरे पास नहीं, पिता जी के पास ही चले गए), पिताजी के मिशन को सजीव रखने के लिए पूर्ण सहयोग देते थे। पिताजी की उन्होंने पांच वर्ष वह सेवा की, जो बेमिसाल है। श्रद्धेय विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा था कि पंडित जी की वह सेवा हुई कि भगवान को भी ईर्ष्या
होने लगी होगी।’ उन्होंने यह भी लिखा कि 1987 में उनके शतायु होने के अवसर पर साहित्य अकादमी ने रवीन्द्र भवन में उनका सम्मान किया था। उसके एक वर्ष बाद 5 जून 1988 को उन्होंने अपनी बेटी के यहां ही अन्तिम सांस ली।
गार्गी जी ने सन्तराम जी के असंख्य लेखों के प्रकाशन के लिए कई प्रकाशकों से सम्पर्क किया था। पर किसी ने कोई रुचि नहीं ली थी। उन्होंने मुझे इस उम्मीद से आग्रह किया था कि शायद यह महत्वपूर्ण काम मेरे हाथों होना लिखा हो। मैंने कोशिश भी की थी। पर वह अपनी भारी अस्वस्थता के कारण सामग्री उपलब्ध नहीं करा सकीं। बाद में उनसे पत्र-सम्पर्क भी टूट गया। गम्भीर रोगों से ग्रस्त अब वह जीवित भी कहां होंगी?
संदर्भ :
[i] राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। https://hi.wikipedia.org/wiki/
[ii] वाक्य संशोधित। संतराम बी.ए की पुत्री गार्गी चड्ढा के पत्र में मूल वाक्य है – “मैं उनकी एकमात्र जीवित सन्तान हूॅं। पर उन्होंने कभी मुझमें या उनके अन्य स्नेहियों में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता था। ”
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